2013-07-21

पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !

पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !

भारत पाकिस्तान के बटवारे के दंश को दोनों मुल्कों के इतिहास, साहित्य, लोकगीतों और अब फिल्मों के माध्यम से संजो कर रखा जाता रहा है । जहाँ आक्रमण, बार्डर और लक्ष्य जैसी फिल्में सीधे तौर पर दोनों मुल्कों की सेनाओं के टकराव को दिखाती हैं वहीं अब फिल्मों की एक जमात ने उस टकराव को खेल के मैदानों तक ला खड़ा किया हैं ।

’चक दे इण्डिया’ में भारत के एक मुसलमान हाकी खिलाड़ी के पाकिस्तान के खिलाड़ी से मैच के बाद हाथ मिलाने पर देश-द्रोही करार दिया जाना दिखाया । इस खिलाड़ी का कैरियर लगभग तबाह हो गया था । जिसे फिर से महिलाओं की हाकी टीम के कोच के रूप में आने के लिये काफी मशक्क्त करनी पड़ी । और जब तक महिलाओं के हाकी का विश्व खिताब जीत नहीं लिया उसका "गद्दार" का तमगा हटा नहीं ।

फिल्म में मिल्खा की जो कहानी दिखायी गयी उससे मालूम हुआ कि उनको ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक ने दिया था । किसी भी कामयाबी के लिये कड़ी मेहनत, लगन और जज्बे की जरूरत के महत्व को यह फिल्म रेखांकित करती है ।

गुरू, उस्ताद और मौलवी के महातम को भी बखूबी दिखाया गया है । पर एक बात जो दिल को छू गयी वह थी कि सिर्फ ’एक मग दूध और दो कच्चे अण्डों’ पर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार किये जा रहे थे  ।  सोनम कपूर की अदाकारी में दिल्ली 6 वाला खिलंदड़ी अन्दाज बरकरार दिखा । फरहान अख्तर एथलीट कम और बाडी बिल्डर टाइप ज्यादा लगे ।

पाकिस्तान से विभाजन के वक्त जान बचा कर ’भागने’ पर मिल्खा के उपर चुभने वाली टिप्पणी पाकिस्तान के कोच ने की ।  निश्च्य ही फिल्म के कुछ भाग को हटाकर इसे कुछ छोटा किया जा सकता था ।  यह भी एक पीरीयड फिल्म है और कुछ glitches रह जातें है ।  चूंकि मिल्खा सिंह आज भी स्वयं जीवित हैं इसलिये यह माना जा सकता है कि उनके ऊपर बनीं फिल्म "भाग मिल्खा भाग" पर उनकी स्वीकृति भी है । 

और हाँ भविष्य में मैं एक फिल्म भारत - पाकिस्तान के क्रिकेट वर्ल्ड कप फाईनल पर भी देखना चाहूँगा ।  कोई फिल्म अगर आई-पी-एल आदि में मैच फिक्सिंग पर भी बने तो क्या कहना । मधुर भण्डारकर खेमें से हो तो बेहतर ।

2013-03-28

उत्सवों के प्रतीक चिन्हों पर प्रश्नचिन्ह ?

होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही तैयार हो रही होती हैं ।

होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है । इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।

ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है । या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।

मेरा प्रश्न इन प्रतीक चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।

इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !

2013-03-27

मृत्यु से निकट लाते जन्मदिन की बधाइयों का नाद ?

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मार्च की 18 तारीख जन्मदिन के रूप में आयी । संचार तंत्र के कई - कई माध्यमों की मदद से अनेकों ईष्ट जनों, मित्रों आदि ने इस दिन मुझे बधाईयाँ प्रेषित करीं । आप सभी को धन्यवाद !

इस दिन के बहाने से कुछ उद्गगार जो विगत कई वर्षों से साझा करना चाहता था आज उकेर रहा हूँ । जीना बेतक्ल्लुफ़ होता जा रहा है इसलिये यह ठान लिया था कि जब तक कह नहीं दूंगा, मानूंगा नहीं । तो चलतें हैं अपने स्कूल के दिनों में ।

बात मेरे हाई स्कूल से पहले के किसी वर्ष की रही होगी । उन दिनों स्प्रिंग ड़ेल स्कूल, लखनऊ में ड़ा. ए. के. मिश्रा प्रिंसिपल थे । मिश्रा जी कड़क किस्म के प्रिंसिपल थे । कम शब्दों में वे अंग्रेजी की कहावत Spare the rod and spoil the child वाली विरादरी के मास्टर थे । कहने में कोई शर्म नहीं कि, कई बार मेरे तत्कालीन बाल शरीर को भी उनके इस बिरादरी के समर्थक होने का अहसास हो चुका था । आदतन मिश्रा जी कम बोलने वाले रिजर्व टाइप के इन्सान थे । छात्रों की क्या कहना, स्कूल के मास्टरों ने भी शायद उन्हे कभी कभार ही हंसते - मुस्कराते देखा हो तो उनका सौभाग्य रहा होगा ।

एक बार, मिश्रा जी का जन्मदिन आया और जाने कैसे यह बात कुछ शिक्षकों के माध्यम से छात्रों तक पहुँच गयी । जैसा कि मैं इस प्रकरण को समझ पाया, कि उन मास्टरों ने अपनी चापलूसी का प्रदर्शन कुछ छात्रों के माध्यम से करने के लिये स्कूल की सुबह की प्रार्थना सभा को चुना । रूटीन प्रार्थना सभा के बाद कुछ ’अति प्रेरित टाइप’ के छात्रों ने मिश्रा जी को भरी प्रार्थना सभा में जन्म दिन की बधाईयाँ दे डाली और उनकी शान में कसीदे पढ़ डाले । आदतन मिश्रा जी मंच से प्रार्थना सभा समाप्त होने से कुछ पहले ही नीचे उतर चुके थे । पर इस अप्रत्याशित घटना क्रम के कारण वे बहुत ही सधे हुये कदमों से पुन: मंच पर चढ़े । जो चापलूस टाइप मास्टर इस प्रकरण के पीछे थे उनके चेहरे पर प्रफुल्लित होने के भाव साफ देखे जा सकते थे । और अबतक मिश्रा जी मंच पर माईक थाम चुके थे । फिर जो हुया उस एक वाकिये का बयान बड़ा ही मौजूं है ।
अनेकों अल्पविरामों और पूर्णविरामों से लबरेज, अपने चिर परिचित और बड़े ही सधे हुये अन्दाज में मिश्रा जी ने औपचारिक एवं सार्वजनिक रूप से उन ’चापलूसी की चाशनी में डूबी छ्द्म बधाईयों’ को स्वीकार किया । उसके बाद जो कहा वह जीवन का दर्शन था । मिश्रा जी जो कहा वह उस बाल मन पर अमिट स्याही से अंकित गया ।

उन्होनें बड़ी ही शालीनता और गंम्भीरता के साथ हमें बताया कि जन्मदिन का मतलब अवश्यम-भावी मृत्यु से एक वर्ष और निकट होना । धरती पर हमारे आवंटित समय का एक साल और कम हो गया । यह दिन वर्ष पर्यन्त किये अपने कामों की समीक्षा करने का है । और आने वाले दिनों लिये मापदण्ड स्थापित करने का है । उनके अनुसार जन्म दिन भी वर्ष के अन्य दिनों के समान ही है । क्या हम उस दिन कोई अलग तरीके से जीवन जीतें हैं ? सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक सब कुछ सामान्य ही तो होता है ! यानि सिर्फ रूटीन ।

इस प्रार्थना सभा के बहुत वर्षों बाद ड़ा@ shobha pandey ने जब राबर्ट फ्रास्ट की कविता में and miles to go before I sleep, I have promises to keep से परिचित कराया तो भी उसमें मुझे कहीं न कहीं मिश्रा जी का दर्शन झलकता दिखायी दिया । और बड़ा हुआ तो विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों में कुलपतियों को "सत्य में प्रमाद न करो" की दीक्षा देते देखा । भगवान महावीर की इस शिक्षा में शायद "उत्सव में प्रमाद न करो" को भी जोड़ने के इरादे का सूत्रपात ड़ा मिश्रा ने बहुत पहले ही मेरे मन में कर दिया था । त्योहारों, उत्सवों और जन्मदिवसों पर बहुत ज्यादा उल्लासित एवं प्रफुल्लित नहीं हो पाने के पीछे शायद यह भी एक कारण हो ? पक्के तौर कह नहीं सकता पर इस घटना के योगदान को विस्मित कदापि नहीं कर सकता ।

इस दर्शन के बाद सुबह की प्रार्थना सभा विसरजित हो गयी । अपुष्ट खबरें आती रहीं की उन चापलूस टाइप मास्टरों की एक क्लास मिश्रा जी ने अलग से ली । और क्लास में क्या पढ़ाया गया होगा, आप स्वयं समझ सकते हैं । बताना जरूरी है कि इस स्कूल से सेवा निवृत्त होने के बाद भी मिश्रा जी जीवन भर अपने काम में लगे रहे । मेरी जानकारी के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम समय तक वो फर्रूखा़बाद के किसी उद्योगपति के आई.सी.एस.सी. माध्यम के स्कूल को संवारने में लगे रहे ।

हर वर्ष के भांति इस वर्ष भी अनेकों फोन काल, एस. एम. एस. और अब फेसबुक सन्देशों का मैं आभारी हूँ । आपके स्नेह और आशीष को सर आखों पर रखता हूँ । सिर्फ Sharad Singh का एक सन्देश मिश्रा जी के दर्शन से मेल खाता हुआ सा दिखा । और अगर मुझे सही समरण है तो कुछ समय पूर्व भाई Mukul Srivastava ने भी इससे मिलते जुलते विचार व्यक्त किये थे । शायद Shamoli Sarkar इस घटना की तस्दीक कर सकें । और शायद Pooja Singh एवं Deepshikha Ghose आदि छात्रों को उनके उस सवाल का जवाब भी मिल जाये, जो कि वे विगत कई वर्षों से पूछते आये हैं कि मैं उल्लास एवं के उत्सव अवसरों पर बड़े ही सहज तरीके से व्यवहार क्यों करता हूँ ।

निश्चय ही मिश्रा जी के इस दर्शन को हर व्यक्ति ने अपने - अपने हिसाब से रिसीव किया होगा और अपने ही अन्दाज में लागू किया होगा । मैंने इस दर्शन के शब्दों और आत्मा के साथ आत्मसात का प्रयास जारी रखा है । अन्त में एक गीत जो, इस आलेख के भाव से मेल खाता हुआ है ।

www.youtube.com/watch?v=ADHapMuxZik

2013-03-11

अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !

अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !

इसी अतिवाद की ओर मैं घ्यान आकृष्ट कराना चाहता हूँ । निरंजन कुमार मण्डल भी एक बहुप्रचारित बलात्कार काण्ड में आरोपी थे । अब न्यायालय ने उन्हे बरी कर दिया है । वे एक बार फिर न्यायालय की शरण में हैं कि उन्हे उनका खोया हुआ सम्मान एवं अस्मिता वापस दिलाया जाये । जिस प्रकार यह काण्ड बहुप्रचारित था वैसे ही आज दिल्ली बलात्कर (निर्भया) काण्ड भी है ।

सुबह - सुबह दिल्ली बलात्कार काण्ड के आरोपी राम सिंह की आत्महत्या की खबर आयी और शाम को निरंजन मण्डल की "अस्मिता वापसी की गुहार" की गूंज सुनाई दी । सही अर्थॊं में अस्मिता खुद लिंगभेद का शिकार हो गयी है । स्त्री की अस्मिता और पुरुष की अस्मिता का भेद करना सीख गयी है ।
हा !

निरंजन बाकायदा कानूनी रुप से बरी हुआ पर समाजिक रूप से नहीं हो सका । अब स्त्री की अस्मिता का सवाल उठाने कहाँ हैं ? क्या पुरुष की अस्मिता का कोई मोल नहीं हैं । क्या निरंजन की पत्नी और उसकी लड़कियाँ कभी भी एक सामान्य समाजिक जीवन जी पायेंगी ? शायद वह भी महिलायें ही हैं ? तो उनकी अस्मिता का मूल्यांकन ही किया जाये ?

उस महिला को क्या सजा हुयी जिसने निरंजन पर यह आरोप लगाया होगा ? यह कोई सोच रहा है क्या ?

राम सिंह की आत्महत्या पर मै सुबह से आ रही प्रतिक्रियाएं देख रहा हूँ । निश्चय ही सबको अपने विवेक से प्रतिक्रिया देने का अधिकार है । पर अधिकांश प्रतिक्रियाएं यह रही कि मर गया तो अच्छा हुया । न्यायालय का काम हल्का हुआ । बाकी भी मर जायें तो और भी ठीक होगा ।

जिस देश में न्यायिक प्रक्रिया से दण्डित किये गये अफजल गुरू की फांसी पर सवाल उठाये गये और मानवाधिकारों की बातें निकली । उस देश में एक लिंग विशेष के लिये यह असंवेदनशीलता चिंतनीय है ।

मीडिया और पुलिस की कहानी से कोई अपराधी नहीं हो जाता । अगर सभी फैसले न्यायालय के बाहर "ब्रेकिंग न्यूज" वालों के द्वारा और अतिवादी विचारधारा से किये जाने हैं तो फिर "वी वान्ट जस्टिस" का क्रुन्दन बेमानी है ।

आपना फैसला आप खुद कीजिये ।
लिंगभेदी अतिवाद का नाश हो !
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 संदर्भ :

Return my dignity, man absolved of rape asks SC


2013-03-10

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
जौनपुर | 07 मार्च 2013

वर्ष 2006 के नवम्बर माह में लखनऊ विश्वविद्यालय के अकादमिक स्टाफ कालेज में एक ओरियन्टेशन प्रोग्राम में मैंने सहभागिता की थी । इसके एक सत्र का व्याख्यान करना यहाँ वस्तुसंगत है । महिला मुद्दों पर संवेदनशीलता बढ़ाने के लिये आयोजित उस सत्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में कार्यरत महिला अध्ययन के मनीषी प्रो. राकेश चन्द्रा ने एक प्रयोग कराया । कक्षा में मौजूद सहभागियों में से एक पुरुष और एक महिला को मंच पर बुलाकर उन्होने महिला के दुपट्टे से उसकी आंखो पर कसकर पट्टी बांध दी और पुरुष को उसके दुपट्टे का दूसरा सिरा पकड़ा कर उन दोनों को कक्षा में घूमने के लिये कहा । शर्त यह भी थी कि महिला का हाथ पकड़ कर नहीं घूमना था,  परन्तु बोल कर रास्ते के बारे में बताया जा सकता था । अब पुरुष सहभागी ने बार - बार महिला की ओर देखते हुये घूमने का प्रयास किया ।

चूंकि महिला इस समय देख नहीं सकती थी इस कारण पुरुष सहभागी का ध्यान इस ओर ज्यादा था कि कहीं घूमने के दौरान महिला को कोई चोट न लग जाये । वह उसे लगातार रास्ते में आने वाली रुकावटों (जैसे सीट, बेन्च, मेज, मंच आदि) के बारे में बताता जा रहा था । उसका स्वयं का ध्यान अपने घूमने के काम को पूरा करने पर कम और महिला सहभागी की सुरक्षा आदि पर ज्यादा था । यह बात प्रयोग की समाप्ति पर स्वयं उस पुरूष सहभागी ने पू्री कक्षा से साझा की ।  

इस प्रयोग की समाप्ति पर प्रो. चन्द्रा के व्याख्यान का सारांश भी कुछ इसी प्रकार था । उनके अनुसार जब महिला की देखभाल की जिम्मेदारी (प्रयोग में महिला की आखें बन्द कर दुपट्टे का दूसरा सिरा पुरुष को पकड़ाना इसका प्रतीक था ।) किसी और पर थी तो एक पक्ष यह रहा कि उसकी किसी और पर निर्भरता बढ़ी थी परन्तु साथ ही दूसरा पहलू यह भी रहा कि पुरुष भी अपनी जिम्मेदारी के बोध से दबा हुया था । साथ ही वह अपने काम (कमरे के चक्कर लगाना) को करने में अपना पूरा ध्यान नहीं केन्द्रित कर पा रहा था । इस प्रयोग के निहीतार्थ कहीं न कहीं यह थे कि अगर महिला और पुरुष अपने - अपने कामों को स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्भरता के साथ अंजाम देते हैं तो दोनों को सफलता अलग - अलग मिलेगी । एक दूसरे पर अनावश्यक निर्भरता नहीं रहेगी ।  इसके साथ ही इस प्रयोग ने एक बहुत बड़े मिथक पर प्रहार भी किया कि महिला की बागडोर अपने हाथ में आने पर पुरुष सिर्फ इसे अपनी जागीर मान कर प्रयोग करता है । दायित्व बोध के जिस तत्व की ओर यह प्रयोग इशारा कर गया उसे हम सामाजिक जीवन में भी विस्मित नहीं कर सकते । इस कक्षा में @mukul srivastava और @ isht vibhu भी मौजूद थे । अगर इस प्रयोग के व्याख्यान और आत्मा को समझने में मुझसे कोई त्रुटी रह गयी हो तो वे कृपया मुझे सही करेंगे ।

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे मन में जो द्वन्द है उसे सामने लाने के लिये इस प्रमाणिक घटना को साझा करने के साथ ही प्रलाप शुरू हो जाता है । वर्तमान देश - काल में महिला के हितों और उत्थान की बातें चारों ओर से उठती दिखती है । क्या देशी और क्या अन्तराष्ट्रीय ? सभी ओर से चिर काल से अबलारही नारी को सबला बना कर आगे बढ़नेकी बात की गूंज है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि यह आलेख किसी के उत्थान के विरोध में नहीं है अपितु इस उत्थान के मिशन में पनप रहे अतिवाद को उजागर करने के लिये एक प्रयास जरूर है ।

प्रो. चन्द्रा के उसी व्याख्यान में जो सीखा उसके सहारे आगे बढ़ने का प्रयास करता हूँ । एक विचार बहुधा व्याप्त है कि पुरुषों ने महिलाओं पर बहुत अत्याचार किये हैं और नारी उसे युगों - युगों तक चुपचाप मुहँ दबाए सहती रही । और अब पुरुषों से बदला लेने का समय आ गया है । सभ्य समाज में, जिसके अन्य तौर तरीकों के साथ - साथ सबसे ज्यादा जोर, एकतरफा कानून बना कर उस युग पीड़ित "बेचारी नारी" को सशक्त करने के प्रयास पर रहता है । कमोवेश मैं इन दोनों से ही इत्तेफाक नहीं रहता ।

यह बिलकुल वैसे ही है, कि दलितों पर सवर्णों ने जाति प्रथा के अंतर्गत अत्याचार किये । एकतरफा कानून के सहारे दलितों का उत्थान करने के प्रयास बहुत ज्यादा सफल होते नहीं दिखते । इससे एक वर्ग विशेष के मन में भय का वातावरण तो बनाया जा सकता है पर वृहद स्तर पर समाज को कोई नयी दिशा या मानसिकता में अन्तर शायद ही आया हो ? समाज में इस प्रकार के भय का व्याप्त होना भी किसी सुसुप्त ज्वालामुखी से कम नहीं है । एक वर्ग को summarily convict मान कर किया गया कोई भी affirmative action समाज में और ज्यादा विभेद और कटुता पैदा करेगा । इस प्रकार के कानूनी उपायों के सफल होने में मुझे सन्देह है । ठीक यही बात महिलाओं को केन्द्र में रखकर बनाये गये एकतरफा कानूनों के सन्दर्भ में भी लागू होती है । Affirmative Action  का यह तरीका समाज को, जो लाभ देगा उससे ज्यादा समाजिक विचलन पैदा करने की सम्भावना रखता है । यह सोंच ही त्रुटिपूर्ण है कि यदि एक का भला करना है तो दूसरे का बुरा करना ही पड़ेगा । यह विचार किसी समाज के समग्र उत्थान और विकास की अवधारणा के विरुद्ध है ।

नेशनल क्राईम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि विवाह के संस्था में आत्महत्या कर
मरने वाले पुरुषों की संख्या लगातार महिलाओं से ज्यादा रही है । और इसका अन्तर भी काफी है । वर्ष 2010 के दौरान 61,453 विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या की जबकि 31,754 विवाहित महिलाओं ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निर्णय लिया ।

विस्तृत आकड़े और टिप्पणियाँ इस वेबसाइट पर देखें जा सकते हैं ।
http://www.rediff.com/news/report/ncrb-stats-show-more-married-men-committing-suicide/20111028.htm

कारण अनेक हो सकते हैं पर समाज में फैलती यह सोच घातक होती जा रही है कि प्रत्येक पुरुष, महिलाओं के प्रति एक सम्भावित (potential) अपराधी है । और इस अपराघी से निपटने के लिये विशेष, कड़े और एकतरफा कानूनों की आवश्यकता है । ऐसे कानून जिसमें, बिना सुनवाई के, किसी महिला के कह देने मात्र से ही पुरुष को अपराधी मान लिया जाये । समाज और उसकी सोंच पर ऐसे कानून दीर्धकालीन प्रभाव डालेगें । सिर्फ एक उदाहरण से इस बिन्दु को समाप्त करना चाहूँगा कि हत्या पर कानून जग व्याप्त है । पर क्या इस कानून के होने मात्र से ही देश में हत्याएं होना बन्द हो गयी ?

एक तरफ तो बराबरी का हक और समता की बातें और दूसरी तरफ विशेषाधिकार की ! मामला पेचीदा है | मौजूदा कानूनों में क्या कमी है जो और नये कानून बना कर पूरी कर ली जायेगी ?  विषेशाधिकारों की यह चाहत अन्य जगहों पर भी परिलक्षित होती है । जैसे कि, जब पचास आदमी लाईन में लगे हों और एक महिला सबको धता बताते हुये सीधे आगे पहँच कर अपना टिकट लेने में कामयाब हो जाये - तो कैसा अनुभव होता है ? इस विशेषाधिकार का आधार भी लिंगभेद ही है । क्या पुरुषों का समय कीमती नहीं है ? इस बारे में और ऐसे अनको प्रकरणों पर किसी नारी वादी संगठन ने कभी आवाज बुलन्द क्यों नहीं की ? समता और विशेषाधिकार एक साथ कैसे समाहित हो सकते हैं ? इस पर कानूनविद अभी माथा-पच्ची कर रहे हैं । पर इस प्रश्नवाचिका पर कोई उत्तर समाज के मंथन से ही निकलेगा ।

सही मायनों में कानून और व्यवस्था को लिंग भेदी नहीं होना चाहिये । जैसा कि किसी भी सभ्य समाज की आवश्यकता भी है और संविधान की अवधारणा भी । जो हर कानून के साथ हो वही बलात्कार के कानून के साथ भी क्यों नहीं हो सकता ? इसे gender - neutral अपराघ बनाने पर विरोध समझ से परे है । विश्व के तमाम देशों में ऐसी व्यवस्था है । यह वही देश हैं जिनकी ओर उत्थान और विकास के सफलतम माडल के लिये देखा जाता है ।

साहित्य समाज का दर्पण है । इस बात पर मेरा बहुत यकीन है । फिल्में भी साहित्य हैं - इस बात में किसी मनीषी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । एक फिल्म आयी थी - ऐतराज । मुख्य पात्र थे अक्षय कुमार, करिश्मा कपूर, प्रियंका चोपड़ा । कथानक का सारांश यह रहा कि फिल्म में प्रियंका चोपड़ा पर अक्षय कुमार पर यौन हिंसा / आक्रमण / बलात्कार का आरोप बाकायदा न्यायालय में सिद्ध हो जाता है । जिसके बाद अक्षय कुमार को उसकी नौकरी वापस मिल जाती है । मेरा ऐतराज इस बात पर है कि प्रियंका चोपड़ा को कोई सजा क्यों नहीं सुनाई गयी ? जो अपराध पुरुषों के लिये सजा का प्रावधान रखता है उसमें महिला के लिप्त पाये जाने पर न्यायालय उसे सिर्फ चेतावनी देकर क्यों छोड़ देता है ?  यौन स्वछंदता और लिव-इन सम्बन्धों के इस युग में भी सिर्फ पुरुषों पर ही ऐसे अपराघों का ठीकरा फोड़ना भी निष्पक्ष न्याय की अवधारण से विचरण है ।  और इस बाबत कानून में प्राविधान का विरोध एक बार फिर अठाहरवीं सदी के कानूनों को ही जन्म देगा ।

बहुत विरोध प्रदर्शन होता है कि मुन्नी, शीला, चमेली ब्राण्ड के आईटम नम्बर महिलाओं को गलत अर्थों में पेश करते हैं । पर रील लाइफ में मुन्नी, शीला, चमेली आदि का किरदार निभाने वाली उन अभिनेत्रियों का कोई विरोध कभी रीयल लाइफ में सुनने में नहीं आया । इन अभिनेत्रियों ने करोड़ो रुपये कमाये, यह मुद्दा किसी ने नहीं उठाया । अगर वास्तव में इन अभिनेत्रियों का सामाजिक बहिष्कार हो जाता तो शायद ऐसे आईटम नम्बर आने बन्द हो जाते । या कोई अभिनेत्री इन आईटम नम्बरों से हुयी अपनी करोड़ो रुपये की कमाई किसी महिला उत्थान के संगठन को दान करके, समाज के सामने प्रण करती कि आईन्दा ऐसा कोई गाना नहीं शूट करूंगी । इन गानों का विरोध का सही तरीका यही होगा । और इन अभिनेत्रियों को किसी भी टी.वी. कार्यक्रम में नहीं बुलाने का ऐलान होता । साथ ही स्कूल - कालेज की लड़कियाँ इन करोड़ो रुपये की स्वामिनि और महान मुन्नीयों, शीलाओं, और चमेली देवियों के आटोग्राफ लेने के लिये एक - दूसरों को कुचलने के लिये तैयार न रहती । तब शायद विरोध प्रतीकात्मक न होकर वास्तविक होता । कोई सिनेमा घर तोड़ने से, इसके मालिक का तो नुकसान हुआ पर समाज का कोई फायदा नहीं हुआ । याद रहे, मुन्नी देवी, शीला देवी और चमेली देवी को उनको करोड़ों रुपये फिल्म के जारी होने से पहले ही मिल चुके होते हैं । और यह अभिनेत्रियाँ स्वयं भी महिलाएं ही हैं । शायद । इतने प्रतीकात्मक विरोध के बाद भी अगर यह धनकुबेर अभिनेत्रियाँ आईटम नम्बर करने से परहेज नहीं कर रही हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि विरोध करने वालों का महिला उत्थान का मन्त्र अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक के सामने सस्ता एवं कमजोर पड़ता जा रहा है ।

जब इस लाइन पर बात होने लगे तो व्यक्तिगत आजादी और चुनने के अधिकार का प्रश्न भी खड़ा होता है । यह तर्क इस पूरी बहस को एक नये आयाम की ओर मोड़ता है । जिसका की तार्किक पहलू भी यही है कि चुनने का अधिकार जितना महिलाओं को है उतना ही पुरुषों को भी है । विराम ।  

जो विशेषाधिकार कानून मौजूद हैं उनके दुरुपयोग और विचरण को देश में बहुधा महसूस किया गया और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इसके बारे में खुलकर बेबाक टिप्पणी की । दहेज प्रतिषेध कानून इसका ज्वलंत उदाहरण है । क्या ऐसे कानूनो से हमें सबक नहीं लेना चाहिये ?  कितने बेगुनाहों को प्रताड़ित होना पड़ा ? इस पर भी एक सर्वे और अध्ययन होना चाहिये । समय की जरूरत है कि आज स्त्री को अबलाके स्टीरियो टाइप फ्रेम से बाहर निकाल कर देखा जाये । एक तरफा सोंच से काम करने का नुकसान ज्यादा होगा, फायदा कम ।

इस लेख के शीर्षक में प्रलाप शब्द का प्रयोग है क्योंकि जिस प्रकार का समाजिक वातावरण महिला उत्थान एवं इससे जुड़े विषयों पर आज देश में बना हुआ है उसमें यह बातें अभी हाशिये पर हैं । इस कारण नारीवाद के झण्डाबदरों से इसे एक प्रलाप मात्र से ज्यादा की संज्ञा भी मिल पाना शायद मुमकिन हो । या यूँ कहे कि पुरुष की भी दुश्वारियाँ हो सकती है - इस बात को मानने के लिये समाज में बहुत से लोग तैयार नहीं होगें । मर्द को दर्द नहीं होता है - टाइप के विचार हमारे भीतर ठूंस - ठूंस कर भरे जाते हैं । पुरुषों को दर्द भी हो सकता है और वो व्यथित भी हो सकते हैं - यह बात अभी स्वीकार्यता की मुख्यधारा में नहीं है । इसलिये शायद अपने समय से पूर्व जारी हो रहे इन विचारों को प्रलाप मान कर भी स्थान मिले तो इनकी सार्थकता होगी ।

2013-02-16

शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर

शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर 
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी 2013

विश्वविद्यालय में आयोजित आज के षष्टम दसवें दीक्षान्त समारोह के बाद जो मनोविचार मेरे मन में उठ रहे हैं उन्हे अब साझा किये जाने का समय आ गया है । बेशक युवाओं के प्रति आशावादिता और देश की बेहतरी की आस समाज के लिये शुभ संकेत हैं । किसी भी राष्ट्र के लिये यह सुखद अहसास होना चहिये कि आगामी समय को लेकर समाज आशान्वित है । पर आज का प्रश्न है कि शिक्षा के समावर्तन पर जो शपथ दिलायी जाती है उसे बिसरा क्यों दिया जाता है ? जिसकी ओर इशारा जस्टिस वर्मा ने किया ।

इस बात को सिर्फ विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों के परिपेक्ष में न देखकर, बल्कि एक बड़े दायरे में देखे जाने की जरूरत है । यानि इसको अन्य सभी संस्थाओं से निकलने वाले अभ्यर्थियों के सम्बन्ध में भी देखा जाना चाहिये । उदारहण के लिये डाक्टरों की हिप्पोक्रेटिक शपथ के सम्बन्ध में । प्राय: वकीलों, पुलिस वालों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को भी किसी न किसी प्रकार शपथ दिलायी जाती है । इस प्रश्न को विद्या अर्जन के समय और उसके तुरन्त बाद समाज की बेहतरी के लिये काम करने के जस्बे के कुछ समय बाद कम होने के कारणों के मूल में जाकर हल करने की आवश्यकता है ।

यहां शेक्सपीयर का जूलियस सीज़र में यह कथन उद्वरित होता प्रतीत होता है कि "शपथ कमजोरों का हथियार है ।"  क्यों नहीं हम अभ्यर्थियों को बिना किसी शपथ के ही उनके जीवन में अग्रसर होने दें और उन्हे क्या करना है, क्या नहीं - उसका फैसला उन्हे स्वयं करने दें ।  तभी "या विद्या सा विमुक्तये" का भाव सच्चे अर्थों में सामने आ पायेगा । और साथ ही किसी शपथ को विस्मित कर देने के अपराध बोध से भी लोगों को मुक्ति मिलेगी । कोई भी शपथ, विद्या अर्जन के मूल उद्देश्य स्वयं के विवेक से एवं आत्मबल के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करती है । इस समरोह में छात्रों को जोर - शोर से इस बात की शपथ दिलायी जाती है कि वे उसी प्रकार का आचरण करेंगे जो कि समाज में पूर्व से ही निर्धारित कर दिया गया है । बताया गया है कि महाजनेन गत: सा पंथ: । यानि बनी - बनायी लकीर पर चलोगे - इसका वादा करके जाओ । यही आदेश है और यही उपदेश भी है । क्या इसका अर्थ यह निकला जाये कि जो हो चुके वही महापुरुष होंगे, अब तुम महापुरुष बनने के चक्कर में न पड़ना ? मेरा मन इस बात से अन्दर से कराह रहा है ?

गुस्ताखी माफ ! पर यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था पर है । क्या ऐसा वादा करने से मौलिकता का हनन और नवीन विचारों का संकुचन नहीं होता है ? यह अलग बात है कि अधिकांश विद्यार्थी इसे डिग्री लेने के लिये मात्र एक रस्म अदायगी ही मानते हैं । इस बात की इमानदारी से तस्दीक नहीं होती दिखती । असल जिन्दगी मंचों और समारोहों से अलाहिदा होती है या यूँ कहें कि हम असल जिंदगी का समारोहों और मंचो के साथ सामन्जस्य नहीं बैठा सके हैं । 

विचारों के उद्वेलन की बात तो सबको भाती है पर उस उद्वेलन के क्रियान्वन, यदा - कदा दिल्ली बलात्कार कांड जैसी किसी घटना के बाद ही दिख पाता है । भगत सिंह की जरूरत समाज को हमेशा से रही । पर सभ्य समाज का अभिजात्य वर्ग यह कह कर अपना दामन छुड़ाता रहा कि भगत सिंह किसी पड़ोसी के यहाँ पैदा हो तो अच्छा है । किसी को इस बारे कुछ करना चाहिये । पर हम कुछ नहीं करेंगें । व्यवस्था के साथ हमारे सुविधावादी संतुलन को कोई हानि न पहुँचे ।

भले ही सार्वजनिक मंचों से लोकतन्त्र और इसके मूल्यों के रहनुमायी की बातें की जाती रही हों पर सच्चाई थोड़ी कड़वी है । राज्य का रवैया भी लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी में खड़े होने वालों के प्रति सकारात्मक न होकर अपितु ऋणात्मक ही रहा है । जिसमें पहले इन पहरेदारों को अपने सुविधावादी संतुलन में शामिल करने के प्रयास किये जातें हैं ।  यदि इनमें सफलता नहीं मिली तो राज्य दमनात्मक रवैया अपनाने से भी नहीं चूकता है । क्या अंग्रेज, क्या हिन्दुस्तानी ? इस बात पर सभी एक ही नाँव में सवार दिखतें हैं । या तो सत्ता वर्ग की मानों या परिणाम भुगतो । शायद इसी कारण से बहुधा जन आन्दोलन एक समय के बाद या तो हताशा का शिकार हो ठप्प हो जातें हैं या फिर राज्य से विश्वास उठने के बाद हिंसक तक हो जाते हैं ।

पूरे विश्व के साथही भारत में भी एक नये युग का आगमन हो रहा है । इस युग में लोग सूचना क्रान्ति के दम पर एक दूसरे लगातार जुड़े हुये हैं । यह वही युवा वर्ग है जो दिल्ली में जन्तर मन्तर पर और इण्डिया गेट पर नजर आया । यहाँ भले ही लोग एक दूसरे को व्यक्तिगत रुप से न जानते हों पर उद्देश्यों की समानता के आधार पर इस आभासी दुनिया में बड़ी तेजी से परिचय होता है । जोकि जरूरत पड़ने पर असल दुनिया में अवतरित भी होता है । और पुन: अपनी आभासी दुनिया में विलुप्त हो जाता है । इसलिये यह कहना कि वे लोग एक दूसरे को जानते नहीं थे, शायद सही नहीं होगा । उनकी पहचान अपने उद्देशयों की समानता के आधार पर सदा बनी रह सकती है ।

आगामी समय में सत्ता वर्ग को इस प्रकार के अन्य आंदोलनों के लिये भी अपनी कमर कसनी पड़ सकती है । यही नये भारत की उम्मीद है । यही देश की आशा है । और हाँ, इन सब के लिये किसी शपथ की जरूरत नहीं पड़ती दिखती है । और न ही किसी विश्वविद्यालय के किसी पाठ्यक्रम में आन्दोलन करना सिखाया जाता है ।

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2013-02-15

पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !

  
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी, 2013.

वसन्त आगमन पर हर्ष, प्रेम और उल्लास का पर्व वसन्त पंचमी, ज्ञान के उत्सव का पर्व भी है । आज के ही दिन माँ सरस्वती के अनुष्ठान का भी विधान है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर स्थित वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय का दीक्षान्त समारोह माँ सरस्वती के इसी पावन पर्व पर ही मनाया जाता रहा है । विश्वविद्यालय का सोलहवाँ दीक्षान्त समारोह 15 फरवरी 2013 दिन शुक्रवार को विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुया ।

सामान्य रूप से दीक्षान्त समारोह किसी भी विश्वविद्यालय के लिये एक वार्षिक उत्सव के समान होता है । आज के दीक्षान्त समारोह पर कुछ कहने से पहले @ sashi kant tripathi के शब्द, जो मुझे स्मरण हो रहे हैं, आपसे साझा करना चाहूँगा ।  कुछ वर्षों पहले एक दीक्षान्त समारोह के बाद विश्वविद्यालय की समीक्षा बैठक में इन्होने कहा था कि वास्तव में दीक्षा का कभी अंत नहीं होता । विश्वविधायल के दीक्षान्त समारोहों में भी कुलपति दीक्षा के लिये स्वीकार किये गये अभ्यर्थियों को यही आदेश और उपदेश देतें हैं कि वे आजीवन स्वयं को इस दीक्षा के योग्य प्रमाणित करते रहें । त्रिपाठी के अनुसार वेदों आदि में इस संस्कार के लिये समावर्तन संस्कार आयोजित कराने की व्यवस्था है । इसलिये उनका सुझाव था कि विश्वविद्यालय भी अपने कार्यक्रम का नाम आगे से समावर्तन संस्कार समारोहकर ले तो बेहतर होगा । पर चूंकि मूलत: हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो कि बनी बनायी लकीरों का अनुसरण करने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है इसलिये त्रिपाठी का यह सुझाव भी उस समीक्षा बैठक से आगे न बढ़ सका । बताते चलें कि अंग्रेजो द्वारा लादी हुयी गाउन (वह वेषभूषा जो कि इस समरोह में शोभा यात्रा के लोग धारण करते हैं।) को भी हम तब तक नहीं हटा सके जब तक की पूर्व राष्ट्रपति प्रो. कलाम ने इसकी शुरुआत नहीं की । और उसके बाद मानों हर तरफ से अंगेजियत के इस चिन्ह को उखाड़ फेंकने की होड़ सी मच गयी । वैसे मैं अपनी जानकारी बढ़ाने के लिये मैं यह जरूर जानना चाहूँगा कि इस अवसर पर शोभा यात्रा क्यों निकाली जाती है और इसकी शुरूआत कैसे हुयी ? गाउन आदि का क्या महत्व है ? अगर आप में से कोई बता सके तो उसका आभारी रहूँगा ।

अब आज के दीक्षान्त समारोह पर आते हैं ।

समारोह विश्वविद्यालय के सर्वेसर्वा कुलाधिपति महोदय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । जिसमें की ख्यातिलब्ध न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा  ने मुख्य अथिति के रूप में शिरकत की । हाल ही में दिल्ली बलात्कार कांड (16 दिसम्बर, 2012) के बाद कानून में संशोधन के लिये बनी कमेटी के अध्यक्ष की मौजूदगी से, बिना शक विश्वविद्यालय आह्र्लादित दिखा । मैं यह कहने से बच नहीं पा रहा हूँ कि स्वयं वर्मा साहब भी इस घटना को अपने
जीवन की एक महत्व पूर्ण घटना मानतें हैं । उनके दीक्षान्त भाषण में भी इस घटना से जुड़े अनुभवों की भरमार रही ।


इस समारोह के सम्बन्ध में विगत कुछ वर्षों में एक परिवर्तन जो देखने को मिला वह है कि विश्वविद्यलय में अब यह समारोह पहले के मुकाबले कुछ संकुचित स्तर पर मनाया जाता है । संकुचन के कारण आर्थिक हों या सुरक्षा से जुड़े हो सकते हैं । पक्के तौर पर कह नहीं सकता । पर हाँ इतना जरूर है कि प्रबन्धन की दृष्टि से यह ज्यादा सुगम हुया है ।  सैकड़ों की तादात में पी.एच.ड़ी., परास्नातक, स्नातक आदि के अभ्यर्थियों को दीक्षा एवं उपाधि के लिये स्वीकार करने के  आदेशोंऔर उपदेशोंबाद दीक्षान्त भाषण हुया ।

जस्टिस वर्मा के इस भाषण को युवाओं पर उनके भरोसे की अभिव्यक्ति के रूप में देखता हूँ । उनका यह भरोसा हाल ही में प्राप्त उनके अनुभवों पर आधिरित था । कुछ लोगों के लिये यह एक आंखे खोलने वाला तथ्य हो सकता है, क्योंकि आम तौर पर भारत में युवाओं को कम तरजीह दी जाती है । उन्हे नौसिखिया, कम जानकारी वाला, उदंड आदि जुमलों से नवाज़ा जाता रहा है । पर बकौल जस्टिस वर्मा उनके लिये 30 दिन के रिकार्ड समय में कानून संशोधन की रिपोर्ट तैयार करना संभव नहीं होता अगर उन सैकड़ों लड़के - लड़कियों ने उन्हे अपनी बिन मांगी सहायता न उपलब्ध कराई होती । वे सभी अपने संसाधनों का प्रयोग कर इस कमेटी की मदद में अनवरत लगे रहे ।

यह एक ऐसा समूह था जिसमें कोई नेता नहीं था । जिसे किसी नेता ने बुलाया नहीं था । शायद, कोई अपने बगल में खड़े शख्स को जानता नहीं था पर फिर भी गजब की तारतम्यता थी उनके बीच । उद्देश्यों की तारतम्यता और देश के लिये विषम मौके पर कुछ कर दिखाने की तारतम्यता । इसी कारण, वर्मा साहब देश की बेहतरी के प्रति आश्वस्त दिखे । क्योंकि अब कमान इन्ही युवाओं के हाथों में आयेगी ।

आपके भाषण में दिल्ली के आन्दोलन पर भी अपनी राय रखी गयी । न्यायमूर्ति के शब्दों की आत्मा के साथ अन्याय न हो जाये इसलिये अंग्रजी में ही कुछ सूत्र वाक्य आपसे साझा करना बेहतर होगा ।

1. Youth coming forward is an encouraging sign.
2. The pressure of civil society on the government machinery is expedient from the December 16 incident and the incidents following it.
3. Anger was channalised to revitalise the democratic institutions and it was different from the one seen in earleir ones. (Possibly an oblique reference to the Anna / Kejriwal show where the demand for a particular law making was not taken that seriously by the governement and eventually did not yield the desired results)
4. Civil Society palys a role to eradicate gender bias.

इन सूत्र वक्यों के साथ - साथ वे नव दीक्षीत छात्र - छात्राओं को हिदायत भी दे गये कि आज जो शपथ उन लोगों ने ली हैं वो मात्र एक रस्म अदायगी न बन के रह जाये ।

इसके बाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति महाहिम श्री बी. एल. जोशी जी का अध्यक्षीय उद्धबोधन हुया । आपने जस्टिस वर्मा की बातों को उद्वेलित करने वाला बताया । कार्यक्रम के दौरान छात्र - छात्राओं को स्वर्ण पदक प्रदान करते समय उन्होनें देश के युवाओं से जो बातें की उसे साझा करते हुये उन्होनें कहा कि मेडल प्राप्त करने वाला प्रत्येक छात्र उन्हे भविष्य के प्रति आशावान दिखा । उनका छात्रों के लिये जो सन्देश रहा उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की अलख जगाये रखना भी शामिल था । प्रधानमन्त्री और राष्ट्र्पति ने जो बात हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी सत्र में कहीं थी, उसकी टीस, महामहिम के भाषण में यहाँ भी झलकी । यह कि विश्व के नामचीन 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं है । शोध का स्तर गिरा है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर टक्कर नहीं ले सकता है । यह बात आज इस कार्यक्रम में स्वीकृत की गयीं 387 पी.एच.डी. डिग्रियों पर भी लागू होती है । पर सब कुछ के बाद वे भी भविष्य के प्रति आशावान दिखे कि शायद आगामी किसी दीक्षान्त समारोह में ऐसा सम्भव हो, जो की वस्तुत: उनके इस विश्वविद्यालय के उन तीन दीक्षान्त समारोहों में सम्भव नहीं हो सका जिसमें उन्होनें सिरकत की ।

इस कार्यक्रम के प्रारम्भ में विश्वविद्यालय का कुलगीत गाया गया जिसके बोल कुछ इस प्रकार से हैं :

वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल
विश्वविद्यालय का हरितांचल
जय - जय - जय पूरब की आत्मा
जय - जय - जय पूर्वांचल ॥ ....
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फोटो क्रेडिट : www.16convocationvbspu.blogspot.in
 



स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !

स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !

बजट 2013 से लगायी जा रही बहुत सी आशाओं में से एक यह भी है कि सरकार काले धन को बाहर लाने के लिये किसी क्षमादान योजना की घोषणा कर सकती है । ऐसी एक योजना 1997 में वी.डी.आई.एस. (Voluntary Disclosure of Income Scheme - 1997) के नाम से आयी थी । इस बात को अगर फिल्म स्पेशल - 26 की रिलीज की टाइमिंग के साथ जोड़कर देखा जाये तो इसकी टाइमिंग बहुत ही सटीक है ।

फिल्म की टाईमलाइन 1987 की है । समाजिक परिपेक्ष में कहें तो काले धन के आगे सरकारें जितनी बेबस 1987 में थी उतनी ही 1997 में और उतनी ही 2013 में । अगर कहूँ कि सरकारों की बेबसता इतनी बढ़ती नजर आती है कि वे इसके सामने घुटने टेकने में ही समझदारी मानती हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात को फिल्म एक रोचक अन्दाज में प्रस्तुत करती है । काला धन आशातीत रफतार से बढ़ा वही उसकी निगरानी करने वाली सी.बी.आई. (CBI) नामक एक संस्था की असलियत उसके अधिकारी के रूप में मनोज बाजपेयी के किरदार वसीम खान खोलते दिखे । वसीम खान अपनी तन्खवाह में इजाफे और प्रमोशन के लिये अपने उच्च अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते दिखतें हैं और ऐसा न होने पर रिश्वत लेना शुरू करने की धमकी देते हैं । किसी प्रकार उच्च अधिकारी उनको टालता है । और फिर वही काम । जबकि नकली सी.बी.आई. से मिलकर दिल्ली का इन्सपेक्टर और शान्ती जी ’असली काम’ कर गये जबकि बाकि तो अपनी नौकरी .. ...

तो इस प्रकार की समाजिक सेटिंग में अगर कोई फर्जी सी.बी.आई. अधिकारी बन कर किसी भ्रष्ट राजनेता या व्यापारी को लूट ले तो उन्हे समाजवाद का पहरुआ कहना भी गलत नहीं होगा । जहाँ फिल्म ’पान सिंह तोमर’ में फर्जी पुलिस बनकर अपहरण किया जाना दिखाया गया, वहीं स्पेशल 26 कुछ आगे बढ़ते हुये फर्जी इनकम टैक्स और सी.बी.आई. की रेड (छापा) दिखाकर अकूत संपदा की लूट दिखाने में कामयाब रही । इस फिल्म से देश के युवाओं को सन्देश मिलाता है कि ज्यादा पैसा कमाने के लिये ’डान’ बनकर खून- खराबा करने की जरूरत नहीं हैं । वरन बकौल मुख्य किरदार अजय बने अक्षय खन्ना, पैसा दिमाग से कमाया जा सकता है ।

इस फिल्म के कुछ दृश्यों में लूय्टयन की दिल्ली, खासकर सफेद पुति कनाट प्लेस, उसकी खाली - खाली सड़कों और उन पर दौड़ती इक्का - दुक्का मारुती - 800 कारें भी इस अहसास को गहराती है कि अब भारत तरक्की कर चुका है । आज सड़कों पर हमर, मर्सडीज और फोक्स वैगन की भरमार के साथ ही पार्किंग को रत्ती भर भी जगह नहीं मिलेगी ।

फिल्म की टाइमलाइन के अनुसार कुछ बातें जो खटकी वो हैं कि दिल्ली के आटो में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटील की किसी फिल्म का एक पोस्टर चिपका था वो प्लास्टिक (फैल्क्स) पर छपा था । कलकत्ता से एक दृश्य में सी.पी.ई. - एम की झण्डियाँ भी प्लास्टिक की दिखीं । उस समय तक फैल्क्स एवं प्लास्टिक की झडियों का चलन नहीं आया था । दिल्ली से चण्डीगढ़ वाली ट्रेन का ईन्जन (प्रबल) भी 1987 बाद ही सेवा में लिया गया था । बम्बई के ज्वेलरी शोरूम में सी.सी.टी.वी. कैमरे का प्रयोग दिखायी गया है जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 1987 में इसका प्रयोग होना शुरू हो गया था कि नहीं । पर यह मेरे सन्देह के घेरे में है ।

कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा दर्जन भर जबरदस्ती ठूंसे गये गानों के युग से बाहर आ चुका है । स्पेशल 26 भी एक थीम में चली जहाँ एक गाना फिल्म के लिये वाजिब होता है । इसके प्रोमों में दिखाया जाना वाला गाना (धर पकड़) कास्टिंग के समय प्रयोग किया गया है । काजल अग्रवाल हिन्दी फिल्मों के लिये लम्बी रेस की घोड़ी साबित हो सकती हैं पर उन्हे अपने बोलने के तमिल अन्दाज को बदलना चाहिये ।

वसीम खान को फिल्म में परिचित कराने के लिये, गुप्ता नामक किसी किरदार को पकड़ने के लिये एक उबाऊ भागा - दौड़ी का सीन जबरदस्ती डाला गया सा लगता है । इसकी कोई जरूरत कथानक के साथ मेल खाते हुये नहीं दिखी । दर्शक बिना इसके भी वसीम खान को असली सी.बी.आई. अफसर मान लेते । मेरे विचार में फिल्म ज्यादा कम्पलीट सी दिखती अगर राजनेता और व्यापारी के साथ - साथ किसी सरकारी अफसर के घर भी रेड डालते दिखाया जाता ।

असली सी.बी.आई. अफसर वसीम को जब अहसास होता है कि खुद उसे और उसकी पूरी टीम को ही स्पेशल 26 की तरह इस्तेमाल किया जा चुका है और वे फर्जी सी.बी.आई के हाथों काले धन की चोरी को पकड़ पाने में असफल रहे तो उनका चुल्लू भर पानी (डूबने के लिये) मंगाना भी छू गया । पर जल्द ही असली और फर्जी सी.बी.आई. की और मुठभेड़ों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि फिल्म इस नोट पर खत्म होती है कि इसका सीक्वेल भी आ सकता है ।

2013-02-01

गणतंत्र के लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !

गणतंत्र के  लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !
जौनपुर, 26 जनवरी 2013

विगत 65 वर्षों की तरह ही आज सुबह सवेरे भी " ए मेरे वतन के लोगों .. याद करो कुर्बानी " मार्का गीतों के स्वर कान में पड़े । पर आज के परिवेश में यह एक रस्म अदायगी मात्र ही लगती है ।

महारानी का राज्य समाप्त होने के बाद एवं आजा़द भारत के अपने सविंधान लागू होने के 65 वर्षों बाद भी हम आजादी और उसके मायनो का वही रिकार्ड बजा रहे हैं जो शायद 1950 या 1960 के दशक में बज रहा था । राष्ट्रीय ध्वज को सलामी के समय मेरे मन में जो विचार आये वो काफी अलग थे । यहां आप से साझा कर रहा हूँ ।  जन - गण के लिये आजादी और स्वराज की जो परिभाषा 1947 में गढ़ी गयी थी वो उसे आज भी रटाई जा रही है । देश की बहुधा आबादी के लिये आजादी की सीमा आज भी, देश की राजनैतिक आजादी पर आकर रुक जाती है । परन्तु, देश पर न्योछावर होने की शिक्षा देते समय यह कभी भी नहीं सोचा जाता कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति  के स्तर पर आजादी नहीं पहुँचती, तब तक देश की आजादी का जश्न केवल केवल रस्मी तौर पर ही मनाया जाता रहेगा ।

सही मायनों में प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक अजादी  के बिना राजनैतिक आजादी का जश्न बेमानी होगा । आजाद भारत को विरासत में मिली सोंच के अनुसार आर्थिक आजादी के लिये आय के परम्परागत साधन के रूप में,  सेवा (नौकरी) का बड़ा योगदान रहा है । सेवा  अगर सरकारी हो तो उसे सोने पर सुहागा माना जाता रहा है ।
1990 के दशक में शुरू हुये आर्थिक सुधारों से इस ट्रेंड में कुछ बदलाव आया । परन्तु सरकारी मशीनरी की सोंच और गुलाम मानसिकता के चलते व्यक्तिगत सम्पदा अभी भी सरकारों और इनके खेवनहारों की वक्रदृष्टि के निशाने पर हैं ।

इस मानसिकता के कुछ ताजा उदाहरण देखिये ।

पूर्व वित्त मन्त्री एवं मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वोडाफोन पर उसके अधिग्रहण सौदे हुये पूंजीगत लाभ पर पिछली तारीखों से कर लगाने कि जिद पकड़ी तो देश के कारोबारी घरानों का भारत में नियमन के स्थायित्व पर शक का माहौल बना । साथ ही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की कारोबारी मंशा पर सवालिया निशान लगे । पूरे प्रकरण से भारत की सरकारों की व्यवसाय के प्रति नजरिये पर जो माहौल बना उसे, विदेश में रहने वाले एक रिश्तेदार ने इन शब्दों में बयान किया । Indians don't have respect for contractual obligations. यानि भारतियों में अनुबन्धात्मक दायित्वों के प्रति सम्मान नहीं है ।

अब मौजूदा वित्त मंत्री पी. चिदाम्बरम अमीरों पर अधिक कर लगाने की वकालत कर रहे हैं  । देश में अजादी के बाद से ही समाजवाद  की घुट्टी पिलायी जाती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति काल के नीति नियन्ताओं की उस समय के महाशक्ति रूस से निकटता के कारण हमारी आर्थिक नीतियों में साम्यवाद की झलक भी देखी जा सकती है । साम्यवाद, राज्य को सर्व-शक्तिमान मान कर उसके सभी क्रिया कलापों को सर आखों बिठाने की अवधारण भी है । इस अवधारणा के चलते उद्योगों एवं व्यापार को हमेशा से कड़े सरकारी निगरानी में रखा गया ।  सरकारी मशीनरी और नियामक प्राधिकारियों पर यह विचार आज भी हावी रहता है कि वह जो करेंगे, सब सही होगा और उद्योगों को छूट देने से देश का अहित ही होगा ।

उदारीकरण की बयार ने थोड़ा सा, परन्तु नकाफी स बदलाव लाया है ।

देश की आज की आवश्यकता में सबसे ऊपर अद्यमिता का स्थान है । इसे आजादी और गणतंत्र की नई परिभाषा में शामिल कर बड़े दायरे में समझने की जरूरत है । मौजूदा दौर में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिये आवश्यक क्षमता एवं शैक्षणिक दक्षता देश की बहुधा आबादी के पास अभी भी नहीं है । तो उद्यमिता एक सशक्त माध्यम हो सकता है ।

परन्तु सरकारी महकमों के कार्य करने के तरीके और उसके पीछे की मानसिकता से उद्यमिता पनपने की उम्मीद तक दम तोड़ती नजर आ रही है ।

जितना खतरा देश को एफ.डी.आई. (FDI)  से नहीं है उससे ज्यादा नुकसान व्यवसाय से जुड़े सरकारी प्रवर्तन महकमों के DDI (Domestic Direct Invasion) है । जिसके चलते इन महकमों को व्यापार के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने का मौका मिलता है । यह दखलन्दाजी व्यवसाय की जमीनी और वास्तविक सच्चाईयों को बिल्कुल नजरंदाज़ करती है ।

छोटे से लेकर मंझोले और बड़े व्यवसाय तक - सभी इससे पीड़ित हैं । रतन टाटा सरीखे नामचीन व्यवसायियों ने मंच से कई बार इस बात को उद्धवरित किया कि व्यवसायिक कार्यों के चलते उनसे कई बार रिश्वत की मांग की गयी है । युवा को अगर उद्यमिता की ओर अग्रसर करना हो तो सरकारी व्यवस्था को व्यवसाय एवं व्यवसायी के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है ।

वित्त मंत्री के साथ - साथ देश को भी यह समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति, व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिक प्रयास करता है । इस पर अमीरों पर उनके अधिक टैक्स लगाने के प्रस्ताव से कारोबारी माहौल कमजोर होगा । इन्ही सब खबरों के बीच अर्थव्यवस्था में काले धन को बाहर लाने के लिये सरकार के द्वारा पुन: कोई योजना लाने की तैयारी बजट 2013 में की जा रही है । काले धन को देश की मुख्य धारा में लानें की यह पहली कोशिश नहीं है । अन्तिम बार ऐसी योजना Voluntary Disclosure of Income Scheme, 1997 में आयी थी । इस योजना में जिन लोगों ने काले धन का स्वत: प्रकटीकरण किया उन्हे बाद में आयकर विभाग द्वारा नोटिस एवं स्पष्टीकरण आदि से परेशान किया गया । ऐसी किसी भी योजना पर समय से अपना कर आदि अदा करने वाले करदाता सवाल उठाते हुये आलोचना करते हैं कि ऐसी योजना से कर अपवंचन करने वालों को शय मिलती है और यह कर कानूनों का पालन न करने वलों के लिये एक प्रोत्साहन योजना की तरह काम करती है ।                                            आवश्यकता है कि टैक्स अदा करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो, न की मौजूदा समय में टैक्स अदा करने वालों पर जबरिया अधिक टैक्स लादा जाये ।  ज्यादा टैक्स से छुपाने के लिये किये गये लेन-देनों से ही काले धन का निर्माण होता है । आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की जिसमें जनता को किसी प्रकार के व्यक्तिगत और कारोबारी सौदों को छिपाने की जरूरत न पड़े ।

तभी लड्डू सिर्फ गण-दिवस पर नहीं पर वर्ष के हर दिन और गण-गण को मिल सकेंगे । मेरे विचार में यह आज के भारत के जन-गण के मन की आवाज है । शायद आज से पचास साल बाद गाने के बोल कुछ इस प्रकार से हों :

ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो आर्थिक आजादी के लिये शहीद हुये हैं
उनकी याद करो कुर्बानी !!

****
गुस्ताखी माफ़ !
(मौजूदा दौर में एक हास्यास्पद बात यह दिखती है की कई बार जो लोग इस प्रकार के गीतों के रिकार्ड बजाने में बहुत आगे रहते हैं उनकीअपनी जिंदगी इस गीत से दूर - दूर तक कहीं भी सुर  - ताल मिलाती नहीं दिखती । और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी न माना जाये ।)

2012-10-24

भूखे भजन जपो गोपाला, पीते रहो विष का प्याला !!

सरकारी सेवाओं में कार्यरत लोगों के लिये वेतन वृद्धि के सीमित अवसर होतें हैं । वर्ष में एक बार समयमान एवं वेतनमान के अनुसार निश्चित वेतन वृद्धि एवं प्रत्येक दस वर्षों में एक बार वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार तनख्वाह बढ़ने की उम्मीद । यह वेतन आयोग मूलत: केन्द्र सरकार द्वारा नियत किया जाता है । केन्द्र सरकार इसकी अधिकांशत: सिफारिशों को मान लिया करती है । इसकी सिफारिशों को राज्य सरकारें अपनी प्रशासनिक एवं वित्तीय सहूलियतों के अनुसार लागू करते हैं । यह सिफारिशें राज्यों पर बाध्यकारी नहीं होती परन्तु परम्परा रही है कि राज्य भी इन्ही सिफारिशों को आधार मान कर अपने वेतनभोगियों को भी लाभान्वित करती रही हैं । 

छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशें 01 जनवरी 2006 से लागू हुयी थी । यानि छ: वर्ष पहले । तकनीकी रूप से इसके मतलब है कि छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों से लाभ मिलने का लगभग 60 प्रतिशत समय बीत चुका है । परन्तु उच्च शिक्षा में कार्यरत शिक्षकों को छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लाभ देने के मामले में केन्द्र एवं अधिकांशत: प्रदेश सरकारों की नीति एवं नीयत शक के दायरे में है । पंजाब, हिमाचल एवं उड़ीशा जैसे अपवाद राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे भारत में ही अभी तक शिक्षकों को छ:ठे वेतन अयोग की सिफारिशों के अनुसार उनका पूरा बकाया वेतन नहीं मिला है । कई राज्यों ने इस आयोग की सिफारिशों को उच्च शिक्षा के शिक्षकों के हक में लागू करने में काफी हीला-हवाली की । इन राज्यों में शिक्षकों को लम्बी कानूनी लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी । उन्हे अपने मूलभूत अधिकार यानि वेतन प्राप्ति के लिये न्यायालयों की शरण में जाना पड़ा । 

शिक्षकों के इस संघर्ष में मध्य प्रदेश के शिक्षकों ने भोपाल उच्च न्यायालय के आदेशों एवं दस दिनों की हड़ताल के बाद इस दिशा में सफलता पाई तो महाराष्ट्र के शिक्षकों को इसे अपने हक में लागू कराने के लिये दबाव बनाने के लिये लगभग 40 दिन तक हड़ताल पर रहना पड़ा । लगभग पूरे भारत में ही शिक्षकों को अपने हक में इसे लागू कराने में तीन साल का समय लगा । अन्य राज्यों में स्थिति कमोवेश यही रही । जहाँ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) ने अपनी सिफारिशों में स्पष्ट कहा है कि उन्हे पूरी तौर पर लागू किया जाना आवश्यक है । वहीं राज्य सरकारें अपने हिसाब से इन सिफारिशों की व्याख्या करते हुये शिक्षकों को जो दे रहीं हैं वो इन सिफारिशों का अधा - अधूरा और टूटा - फूटा स्वरूप है । जिसे की राज्यों की सरकारें उससे भी ज्यादा नीरसता के साथ रो - रो कर लागू कर रहीं हैं । 

यू.जी.सी. के बताये पूरे लाभ शायद ही किसी राज्य ने अपने शिक्षकों को दिये हों तो उन्हे अत्यन्त खुशनसीब समझा जायेगा । किसी राज्य ने शिक्षकों की सेवा - निवृत्ति की आयु 65 वर्ष नहीं स्वीकार की तो किसी राज्य ने शिक्षकों के महंगाई भत्ते में अपने राज्य की माली हालत के मद्देनजर कटौती कर दी, किसी ने महिलाओं के लिये शिशु पालन अवकाश, पितृत्व अवकाश और मातृत्व अवकाश पर अपना रुख अभी तक स्पष्ट नहीं किया है । और शिक्षकों को शायद बीमार पड़ने का हक नहीं है इसलिये यू.जी.सी. की सिफारिशों के अनुसार उन्हे चिकित्सा लाभ भी नहीं मिल रहे हैं । मनोरंजन एवं परिवार के साथ वक्त बिताने के लिये मिलने वाली एल.टी.सी. से तो शिक्षकों को सभी ने महरूम ही रखा । 

उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा के अध्यापकों के लिये राज्य सरकार ने अनमने ढ़ंग से छ:ठा वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया । 01 जनवरी 2006 से लागू होने वाली इन सिफारिशों को कुत्सित एवं शिक्षक विरोधी मानसिकता के चलते इसे 01 दिसम्बर 2008 से लागू किया । और यह मान लिया कि 01 जनवरी 2006 से शिक्षकों से इसका सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देकर उनके दायित्वों की इतिश्री हो गयी । बतातें चलें कि इस प्रकार के आदेशों को पास करने वालों में वे लोग प्रमुखता से शामिल थे जो स्वयं को जनता का भाग्य विधाता मानतें है । उन्हे अपने वेतन एवं सेवा सम्बन्धी लाभ केन्द्र सरकार के घोषणा मात्र के बाद ही स्वत: मिल जाया करतें हैं । या यूँ कहे कि वो अपने वेतन सम्बन्धी लाभ स्वयं ही झटक लिया करतें हैं । इनके संगठनों ने राज्यों के साथ स्वयमं के लिये सुविधावादी सामंजस्य बना रखा है कि इधर केन्द्र सरकार ने घोषणा करी उधर अखिल भारतीय सेवा का झण्डा उठाये इस वर्ग की झोली में सारे लाभ स्वत: आ गिरे । 

हमारी चुनी हुयी सरकारें भी उच्च शिक्षा के शिक्षकों के साथ होते ऐसे दमनकारी कृत्यों को रोकने में असक्षम नजर आती हैं । क्योकिं उनकी निगाहें वोट बैंक पर होती हैं । लोकतंत्र में वोटों के गुणा भाग में हमारी बिरादरी कमजोर बैठती है । जहाँ पूरे उत्तर प्रदेश में हमारी संख्या लगभग चौदर हजार के करीब है वही एक सभासद को चुनने में औसतन बीस से बाईस हजार मतदाता होते हैं । यह तथ्य लोकतांत्रिक वोट व्यवस्था में हमारी हैसियत बताने के लिये काफी है । उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा के शिक्षक लगभग तीन वर्षों के कठोर संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार को इस बात का एहसास करा पाने में सफल हुये कि उन्हे भी नियत तिथि यानि कि 01 जनवरी 2006 से ही छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों का लाभ मिलना चाहिये । एक लम्बे संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार ने माना कि सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देने से आम शिक्षक के घर का चुल्हा नहीं जलेगा । हमें भी आटे की वही रोटी खानी होती है जोकि मन्त्रियों और नौकरशाहों को खानी होती है । और बाजार अपने ग्राहकों के पद और वेतन के अनुसार वस्तुओं की दामों में फर्क नहीं करता । वर्ष 2010 के मई माह में जाकर उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बात को सिर्फ सिद्धांत: स्वीकार किया । शासनादेश जारी हो गये कि केन्द्र सरकार से धन मिलने पर शिक्षकों को 01 जनवरी 2006 से उनके बकाया वेतन का भुगतान कर दिया जायेगा । 

जमीनी स्तर पर एक शिक्षक के लिये आज भी हकीकत वित्तीय एवं अन्य लाभों की सिर्फ कल्पना से आगे नहीं बढ़ी है । शिक्षकों को सिर्फ आश्वावसनों का झुनझुना पकड़ा दिया कि केन्द्र सरकार (यू.जी.सी.) से धनराशि मिलने पर तुम लोगों का वेतन बकाया मिल जायेगा । मई 2010 से आज दो वर्षों से ऊपर का समय बीत चुका है पर हमारा पैसा कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं ? किसी के पास कोई जवाब नहीं है । अन्दरखाने से मिलने वाली खबरें बताती हैं कि केन्द्र और राज्य की सरकार की इस मामले में रस्साकशी जारी है । दोनों अपनें दायित्वों को एक दूसरे पर ठेल कर अपना दामन साफ बता रहें हैं । कारण चाहे जो भी हो पर प्रदेश का शिक्षक अभी तक अपने 35 महीनों के बकाया वेतन के लिये सिर्फ बाट जोह रहा है । 

एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि पूरे उत्तर प्रदेश में सिर्फ जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था जिसके शिक्षकों के बकाया वेतन के लिये प्रदेश सरकार ने यू.जी.सी. से एक रुपया भी नहीं माँगा था । ऐसा इस विश्वविद्यालय के जिम्मेदार अधिकारियों की हठधर्मिता और ऊल जलूल अड़ंगेबाजी के चलते हुया जिसे कि राज्य सरकार आखें मूंदे देखती रही । इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों के सतत संघर्ष ने विश्वविद्यालय एवं राज्य सरकार को अंतत: जगाया । इस बाबत अपनी बात से सहमत कराने में विश्वविद्यालय के ’स्टील फ्रेम’ से काफी टकराहट भी हुयी । तब जाकर पूर्वांचल विश्वविद्यालय एवं प्रदेश सरकार विश्वविद्यालय अनुदान (यू.जी.सी.) आयोग से नियत तिथि से वेतनमान देने पर आने वाले वित्तीय बोझ का 80 प्रतिशत माँगने कि लिये तैयार हुयी । उच्च शिक्षा के इस पूरे परिदृष्य से जो तस्वीर सामने लाने का प्रयास किया गया है वह वास्तविकता में पूरी सच्चाई की एक बानगी मात्र है ।

 एक ओर तो यह यक्ष प्रश्न है कि जब पूरी नौकरशाही, जिसमें कि अखिल भारतीय सेवा, राज्य स्तरीय सेवा एवं अधीनस्त सेवाओं के अधिकारी एवं कर्मचारी शामिल हैं, को अपना सारा बकाया वेतन मिल चुका है तो सिर्फ उच्च शिक्षा के शिक्षकों को ही उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने का क्या उद्देश्य है ? यहाँ तक की राज्य के प्राथमिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के शिक्षकों भी उनके सारे लाभ मिल चुकें हैं तो हमारे साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों ? ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि हमें आर्थिक संवर्धन की कोई जरूरत नहीं है । और जितने समय तक चाहे व्यवस्था बिना किसी जवाबदेही लिये हमें वंचित रख सकती है । जब मंच पर बैठकर आदर्श बघारनें की बात हो तो शिक्षकों को ऊँचे आदर्शों के साथ बाँध दिया जाता है । उन्हे समाज निर्माता एवं पथ प्रदर्शक जैसी अनेकों उपमाओं से नवाज़ा जाता है । पर यह विमर्श क्यों नहीं उठाया जाता कि एक वंचित शिक्षक कैसे समाज का निर्माण करेगा और समाज उससे यह अपेक्षा कर भी कैसे सकता है ? 

जिन अभिभावकों अपना पूरा बकाया वेतन मिल चुका हो उनके नौनिहालों को पढ़ाने की और उनके भविष्य निर्माण की जिम्मेदारी वेतन-वंचित शिक्षकों पर डाली जा रही है । इस परिदृष्य में यह उच्च शिक्षा का हास्यास्पद चेहरा है कि इसके नीति - निर्माता इस क्षेत्र में योग्य अभ्यर्थियों के न आने से शिक्षा की घटती गुणवत्ता पर घड़ियाली आँसू बहाते रहते है । अपने जीवन को संघर्ष में रखकर दूसरों के चिरागों को रौशन करने का माद्दा सिर्फ शिक्षक में है । 

यानि, भूखे भजन जपो गोपाला, पीते रहो विष का प्याला !

 

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