2013-03-10
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
जौनपुर | 07 मार्च 2013
वर्ष 2006 के नवम्बर माह में लखनऊ विश्वविद्यालय के अकादमिक
स्टाफ कालेज में एक ओरियन्टेशन प्रोग्राम में मैंने सहभागिता की थी । इसके एक सत्र
का व्याख्यान करना यहाँ वस्तुसंगत है । महिला मुद्दों पर संवेदनशीलता बढ़ाने के लिये
आयोजित उस सत्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में कार्यरत महिला अध्ययन के मनीषी प्रो. राकेश
चन्द्रा ने एक प्रयोग कराया । कक्षा में मौजूद सहभागियों में से एक पुरुष और एक महिला
को मंच पर बुलाकर उन्होने महिला के दुपट्टे से उसकी आंखो पर कसकर पट्टी बांध दी और
पुरुष को उसके दुपट्टे का दूसरा सिरा पकड़ा कर उन दोनों को कक्षा में घूमने के लिये
कहा । शर्त यह भी थी कि महिला का हाथ पकड़ कर नहीं घूमना था, परन्तु बोल कर रास्ते के बारे में
बताया जा सकता था । अब पुरुष सहभागी ने बार - बार महिला की ओर देखते हुये घूमने का
प्रयास किया ।
चूंकि महिला इस समय देख नहीं सकती थी इस कारण पुरुष सहभागी
का ध्यान इस ओर ज्यादा था कि कहीं घूमने के दौरान महिला को कोई चोट न लग जाये । वह
उसे लगातार रास्ते में आने वाली रुकावटों (जैसे सीट, बेन्च, मेज, मंच आदि) के बारे में बताता जा रहा था । उसका स्वयं का ध्यान
अपने घूमने के काम को पूरा करने पर कम और महिला सहभागी की सुरक्षा आदि पर ज्यादा था
। यह बात प्रयोग की समाप्ति पर स्वयं उस पुरूष सहभागी ने पू्री कक्षा से साझा की ।
इस प्रयोग की समाप्ति पर प्रो. चन्द्रा के व्याख्यान
का सारांश भी कुछ इसी प्रकार था । उनके अनुसार जब महिला की देखभाल की जिम्मेदारी (प्रयोग
में महिला की आखें बन्द कर दुपट्टे का दूसरा सिरा पुरुष को पकड़ाना इसका प्रतीक था ।)
किसी और पर थी तो एक पक्ष यह रहा कि उसकी किसी और पर निर्भरता बढ़ी थी परन्तु साथ ही
दूसरा पहलू यह भी रहा कि पुरुष भी अपनी जिम्मेदारी के बोध से दबा हुया था । साथ ही
वह अपने काम (कमरे के चक्कर लगाना) को करने में अपना पूरा ध्यान नहीं केन्द्रित कर
पा रहा था । इस प्रयोग के निहीतार्थ कहीं न कहीं यह थे कि अगर महिला और पुरुष अपने
- अपने कामों को स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्भरता के साथ अंजाम देते हैं तो दोनों को सफलता
अलग - अलग मिलेगी । एक दूसरे पर अनावश्यक निर्भरता नहीं रहेगी । इसके साथ ही इस प्रयोग ने एक बहुत बड़े मिथक पर प्रहार
भी किया कि महिला की बागडोर अपने हाथ में आने पर पुरुष सिर्फ इसे अपनी जागीर मान कर
प्रयोग करता है । दायित्व बोध के जिस तत्व की ओर यह प्रयोग इशारा कर गया उसे हम सामाजिक
जीवन में भी विस्मित नहीं कर सकते । इस कक्षा में @mukul
srivastava और @ isht vibhu भी मौजूद थे । अगर इस प्रयोग के व्याख्यान
और आत्मा को समझने में मुझसे कोई त्रुटी रह गयी हो तो वे कृपया मुझे सही करेंगे ।
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे मन में जो द्वन्द है
उसे सामने लाने के लिये इस प्रमाणिक घटना को साझा करने के साथ ही प्रलाप शुरू हो जाता
है । वर्तमान देश - काल में महिला के हितों और उत्थान की बातें चारों ओर से उठती दिखती
है । क्या देशी और क्या अन्तराष्ट्रीय ? सभी ओर से चिर काल से ’अबला’ रही नारी को सबला बना कर ’आगे बढ़ने’ की बात की गूंज है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि यह आलेख किसी के उत्थान
के विरोध में नहीं है अपितु इस उत्थान के मिशन में पनप रहे अतिवाद को उजागर करने के
लिये एक प्रयास जरूर है ।
प्रो. चन्द्रा के उसी व्याख्यान में जो सीखा उसके सहारे
आगे बढ़ने का प्रयास करता हूँ । एक विचार बहुधा व्याप्त है कि पुरुषों ने महिलाओं पर
बहुत अत्याचार किये हैं और नारी उसे युगों - युगों तक चुपचाप मुहँ दबाए सहती रही ।
और अब पुरुषों से बदला लेने का समय आ गया है । सभ्य समाज में, जिसके अन्य तौर तरीकों के साथ - साथ सबसे ज्यादा जोर, एकतरफा कानून बना कर उस युग
पीड़ित "बेचारी नारी" को सशक्त करने के प्रयास पर रहता है । कमोवेश मैं इन
दोनों से ही इत्तेफाक नहीं रहता ।
यह बिलकुल वैसे ही है, कि दलितों पर सवर्णों ने
जाति प्रथा के अंतर्गत अत्याचार किये । एकतरफा कानून के सहारे दलितों का उत्थान करने
के प्रयास बहुत ज्यादा सफल होते नहीं दिखते । इससे एक वर्ग विशेष के मन में भय का वातावरण
तो बनाया जा सकता है पर वृहद स्तर पर समाज को कोई नयी दिशा या मानसिकता में अन्तर शायद
ही आया हो ? समाज में इस प्रकार के भय
का व्याप्त होना भी किसी सुसुप्त ज्वालामुखी से कम नहीं है । एक वर्ग को summarily convict मान कर किया गया कोई भी affirmative
action समाज
में और ज्यादा विभेद और कटुता पैदा करेगा । इस प्रकार के कानूनी उपायों के सफल होने
में मुझे सन्देह है । ठीक यही बात महिलाओं को केन्द्र में रखकर बनाये गये एकतरफा कानूनों
के सन्दर्भ में भी लागू होती है । Affirmative Action का यह तरीका समाज को, जो लाभ देगा उससे ज्यादा
समाजिक विचलन पैदा करने की सम्भावना रखता है । यह सोंच ही त्रुटिपूर्ण है कि यदि एक
का भला करना है तो दूसरे का बुरा करना ही पड़ेगा । यह विचार किसी समाज के समग्र उत्थान
और विकास की अवधारणा के विरुद्ध है ।
नेशनल क्राईम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि
विवाह के संस्था में आत्महत्या कर
मरने वाले पुरुषों की संख्या लगातार महिलाओं से ज्यादा
रही है । और इसका अन्तर भी काफी है । वर्ष 2010 के दौरान 61,453 विवाहित पुरुषों ने
आत्महत्या की जबकि 31,754 विवाहित महिलाओं ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निर्णय
लिया ।
विस्तृत आकड़े और टिप्पणियाँ इस वेबसाइट पर देखें जा सकते
हैं ।
http://www.rediff.com/news/report/ncrb-stats-show-more-married-men-committing-suicide/20111028.htm
कारण अनेक हो सकते हैं पर समाज में फैलती यह सोच घातक
होती जा रही है कि प्रत्येक पुरुष, महिलाओं के प्रति एक सम्भावित (potential) अपराधी है । और इस अपराघी से निपटने के लिये विशेष, कड़े और एकतरफा कानूनों की आवश्यकता है । ऐसे कानून जिसमें, बिना सुनवाई के, किसी महिला के कह देने मात्र से ही
पुरुष को अपराधी मान लिया जाये । समाज और उसकी सोंच पर ऐसे कानून दीर्धकालीन प्रभाव
डालेगें । सिर्फ एक उदाहरण से इस बिन्दु को समाप्त करना चाहूँगा कि हत्या पर कानून
जग व्याप्त है । पर क्या इस कानून के होने मात्र से ही देश में हत्याएं होना बन्द हो
गयी ?
एक तरफ तो बराबरी का हक और समता की बातें और दूसरी तरफ
विशेषाधिकार की ! मामला पेचीदा है | मौजूदा कानूनों में क्या कमी है जो और नये कानून बना कर पूरी
कर ली जायेगी ? विषेशाधिकारों की यह चाहत
अन्य जगहों पर भी परिलक्षित होती है । जैसे कि, जब पचास आदमी लाईन में लगे
हों और एक महिला सबको धता बताते हुये सीधे आगे पहँच कर अपना टिकट लेने में कामयाब हो
जाये - तो कैसा अनुभव होता है ? इस विशेषाधिकार का आधार भी लिंगभेद
ही है । क्या पुरुषों का समय कीमती नहीं है ? इस बारे में और ऐसे अनको
प्रकरणों पर किसी नारी वादी संगठन ने कभी आवाज बुलन्द क्यों नहीं की ? समता और विशेषाधिकार एक साथ कैसे समाहित हो सकते हैं ?
इस पर कानूनविद
अभी माथा-पच्ची
कर रहे हैं । पर इस प्रश्नवाचिका पर कोई उत्तर समाज के मंथन से ही निकलेगा ।
सही मायनों में कानून और व्यवस्था को लिंग भेदी नहीं
होना चाहिये । जैसा कि किसी भी सभ्य समाज की आवश्यकता भी है और संविधान की अवधारणा
भी । जो हर कानून के साथ हो वही बलात्कार के कानून के साथ भी क्यों नहीं हो सकता ? इसे gender - neutral अपराघ बनाने पर विरोध समझ से परे
है । विश्व के तमाम देशों में ऐसी व्यवस्था है । यह वही देश हैं जिनकी ओर उत्थान और
विकास के सफलतम माडल के लिये देखा जाता है ।
साहित्य समाज का दर्पण है । इस बात पर मेरा बहुत यकीन
है । फिल्में भी साहित्य हैं - इस बात में किसी मनीषी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये
। एक फिल्म आयी थी - ऐतराज । मुख्य पात्र थे अक्षय कुमार,
करिश्मा कपूर, प्रियंका चोपड़ा । कथानक का सारांश यह रहा कि फिल्म में प्रियंका चोपड़ा पर अक्षय
कुमार पर यौन हिंसा / आक्रमण / बलात्कार का आरोप बाकायदा न्यायालय में सिद्ध हो जाता
है । जिसके बाद अक्षय कुमार को उसकी नौकरी वापस मिल जाती है । मेरा ऐतराज इस बात पर
है कि प्रियंका चोपड़ा को कोई सजा क्यों नहीं सुनाई गयी ? जो अपराध पुरुषों के लिये
सजा का प्रावधान रखता है उसमें महिला के लिप्त पाये जाने पर न्यायालय उसे सिर्फ चेतावनी
देकर क्यों छोड़ देता है ? यौन स्वछंदता और लिव-इन सम्बन्धों के इस युग में भी सिर्फ पुरुषों
पर ही ऐसे अपराघों का ठीकरा फोड़ना भी निष्पक्ष न्याय की अवधारण से विचरण है । और इस बाबत कानून में प्राविधान का विरोध एक बार
फिर अठाहरवीं सदी के कानूनों को ही जन्म देगा ।
बहुत विरोध प्रदर्शन होता है कि मुन्नी, शीला, चमेली ब्राण्ड के आईटम नम्बर महिलाओं को गलत अर्थों में पेश
करते हैं । पर रील लाइफ में मुन्नी, शीला, चमेली आदि का किरदार निभाने वाली उन अभिनेत्रियों का कोई विरोध कभी रीयल लाइफ में
सुनने में नहीं आया । इन अभिनेत्रियों ने करोड़ो रुपये कमाये, यह मुद्दा किसी ने नहीं उठाया
। अगर वास्तव में इन अभिनेत्रियों का सामाजिक बहिष्कार हो जाता तो शायद ऐसे आईटम नम्बर
आने बन्द हो जाते । या कोई अभिनेत्री इन आईटम नम्बरों से हुयी अपनी करोड़ो रुपये की कमाई किसी महिला उत्थान के संगठन
को दान करके, समाज के सामने प्रण करती कि आईन्दा ऐसा कोई गाना नहीं
शूट करूंगी । इन गानों का विरोध का सही तरीका यही होगा । और इन अभिनेत्रियों को किसी
भी टी.वी. कार्यक्रम में नहीं बुलाने का ऐलान होता । साथ ही स्कूल - कालेज की लड़कियाँ
इन करोड़ो रुपये की स्वामिनि और महान मुन्नीयों, शीलाओं, और चमेली देवियों के आटोग्राफ लेने के लिये एक - दूसरों
को कुचलने के लिये तैयार न रहती । तब शायद विरोध प्रतीकात्मक न होकर वास्तविक होता
। कोई सिनेमा घर तोड़ने से, इसके मालिक का तो नुकसान हुआ पर समाज
का कोई फायदा नहीं हुआ । याद रहे, मुन्नी देवी, शीला देवी और चमेली देवी को उनको करोड़ों रुपये फिल्म के जारी होने से पहले ही मिल
चुके होते हैं । और यह अभिनेत्रियाँ स्वयं भी महिलाएं ही हैं । शायद । इतने प्रतीकात्मक
विरोध के बाद भी अगर यह धनकुबेर अभिनेत्रियाँ आईटम नम्बर करने से परहेज नहीं कर रही
हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि विरोध करने वालों का महिला उत्थान का मन्त्र अभिनेत्रियों
के पारिश्रमिक के सामने सस्ता एवं कमजोर पड़ता जा रहा है ।
जब इस लाइन पर बात होने लगे तो व्यक्तिगत आजादी और चुनने
के अधिकार का प्रश्न भी खड़ा होता है । यह तर्क इस पूरी बहस को एक नये आयाम की ओर मोड़ता
है । जिसका की तार्किक पहलू भी यही है कि चुनने का अधिकार जितना महिलाओं को है उतना
ही पुरुषों को भी है । विराम ।
जो विशेषाधिकार कानून मौजूद हैं उनके दुरुपयोग और विचरण को देश में बहुधा महसूस किया
गया और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इसके बारे में खुलकर बेबाक टिप्पणी की । दहेज प्रतिषेध
कानून इसका ज्वलंत उदाहरण है । क्या ऐसे कानूनो से हमें सबक नहीं लेना चाहिये ? कितने बेगुनाहों को प्रताड़ित होना पड़ा ? इस पर भी एक सर्वे और अध्ययन होना चाहिये । समय की जरूरत है कि आज स्त्री को ’अबला’ के स्टीरियो टाइप फ्रेम से बाहर निकाल कर देखा जाये । एक तरफा
सोंच से काम करने का नुकसान ज्यादा होगा, फायदा कम ।
इस लेख के शीर्षक में प्रलाप शब्द का प्रयोग है क्योंकि
जिस प्रकार का समाजिक वातावरण महिला उत्थान एवं इससे जुड़े विषयों पर आज देश में बना
हुआ है उसमें यह बातें अभी हाशिये पर हैं । इस कारण नारीवाद के झण्डाबदरों से इसे एक
प्रलाप मात्र से ज्यादा की संज्ञा भी मिल पाना शायद मुमकिन हो । या यूँ कहे कि पुरुष
की भी दुश्वारियाँ हो सकती है - इस बात को मानने के लिये समाज में बहुत से लोग तैयार
नहीं होगें । मर्द को दर्द नहीं होता है - टाइप के विचार हमारे भीतर ठूंस - ठूंस कर
भरे जाते हैं । पुरुषों को दर्द भी हो सकता है और वो व्यथित भी हो सकते हैं - यह बात
अभी स्वीकार्यता की मुख्यधारा में नहीं है । इसलिये शायद अपने समय से पूर्व जारी हो
रहे इन विचारों को प्रलाप मान कर भी स्थान मिले तो इनकी सार्थकता होगी ।
Comment (1)

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Shimla also come in wonderfull enjoyable place .After reaching their from where would our eye see we will see only big mountains on which a layer of snow our protected them.The views of these mountain look perfect in the early shunshine of sun it’s will completely fill us wth great joy.Several tour and travels agencies oraganised day and night pack to these hill station .
Comments by IntenseDebate
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Posted by Sachin Agarwal at 01:06
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