2009-12-21

दान की बछिया के दांत गिनने की कला, उत्कृष्ट तकनीक के रूप में

स्कूल और कालेज की कुछ किताबें बहुत समय से मेरे पास रखी थीं | पर मैंने उन्हें न तो किसी पुरानी किताबों की अदला - बदली करने वाली दुकान पर औरही किसी कबाड़ी वाले को बेचना उचित समझा | काफी समय से, इनके घर में रखे होने के कारण माँ से बहुत डांट भी पड़ती रही हैं, की घर में रहने की जगह कम पड़ रही हैं और यह की मेरा बिस्तर तक पुरानी किताबों से भर गया था | बहुत सोंच - विचार और दिमागी उठा - पटक के बाद मैंने ये निर्णय लिया की इन्हें किसी पुस्तकालय को दान दे दिया जाए तो कुछ लोगों का भला हो जाएगा |

लखनऊ में अशोक मार्ग पर चन्द्र भानु गुप्त भवन में आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय है | यह यहाँ का एक बड़ा पुस्तकालय है जिसमे किताबों का विशाल संग्रह है | कुछ वर्षों पहले तक मैं इस पुस्तकालय का सदस्य भी था | लगभग 10 वर्षों पूर्व, लखनऊ शहर से जब ब्रिटिश लाइब्रेरी की विदाई हुई तो वो भी अपनी किताबों का जखीरा इसी पुस्तकालय के हवाले कर गए थे | शायद लखनऊ शहर में ये सबसे सुपात्र संस्थान भी होगा |

मैंने भी अपनी पुरानी किताबें इसी पुस्तकालय को दान देने का मन बनाया | बड़े श्रद्धा भाव से किताबों का बंडल बना के और बाकायदा चिठ्ठी टाइप कर मैं पुस्तकालय पहुँच गया | दिन के करीब बारह बजे थे और उनके आगन्तुक रजिस्टर पर बमुश्किल मुठ्ठीभर नाम ही दर्ज थे | खैर, आगन्तुक रजिस्टर में अपनी एंट्री कर मैंने लाइब्रेरीयन से सम्पर्क साधा और अपनी मंशा बतायी | उन्होंने प्रसन्नता जताते ह्युए बाकायदा मेरी चिठ्ठी पर एक कर्मचारी को 'मार्क' कर दिया कि ये पुस्तकें दान में स्वीकार कर ली जाएँ | देख कर कुछ अटपटा लगा ! पर क्या कहता | दिल में जन - सेवा के 'महान' भाव उमड़ - घुमड़ रहे थे | पुस्तकें उस कर्मचारी को रिसीव करा के मैंने लाइब्रेरी का एक नजारा लिया तो पाया कि वह लगभग पूर्णतया: खाली ही पड़ी थी | इक्का - दुक्का लोग भी नहीं दिखे | शायाद लोगों को ज्ञान ज्यादा हो चुका था और अब उन्हें लाइब्रेरी की जरूरत नहीं रही | तुरंत ही, ब्रिटिश लाइब्रेरी के बंदी के समय ब्रिटिश कौंसिल का दिया तर्क याद गया कि वे लाइब्रेरी इसलिए बंद कर रहे थे कि उनके यहाँ पर्याप्त संख्या में लोग नहीं आते थे | मैंने उस कर्मचारी को बताया की मेरे पास और भी किताबें हैं जिसे मैं दान में देना चाहता हूँ पर स्कूटर पर कम जगह होने के कारण उन्हें नहीं ला सका और उन्हें फिर कभी लाउंगा |

कुछ दिनों बाद दुबारा उसी 'महान' कार्य के लिए पुस्तकालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | पर इस बार के अनुभव पिछले बार से ज्यादा स्मरणीय हैं | पहले तो मैंने सीधे उसी कर्मचारी से सम्पर्क साधने की सोंची जिसने पहले मेरी लायी किताबों को रिसीव किया था | पर वह उस दिन नहीं आया था | एक अन्य व्यक्ति को उसकी सीट पर बैठे देख मैंने उसे ही अपने आने का कारण बताया | वह तो कुछ बोला नहीं अलबत्ता एक अन्य महिला बोली की पहले 'आर्डर' करा लाइए | आर्डर भी इस बात का कि दान में किताबें स्वीकार कर ली जाए | आर्डर लाइब्रेरियन करते हैं जो उस समय आफिस में नहीं थे | मुझसे पहली अपेक्षा यही थी कि मैं उस समय आऊं जब लाइब्रेरियन आफिस में हों | खुदा कसम, उन 28 किताबों को पुस्तकालय की छठी मंजिल से नीचे लाकर वापस घर लाने और फिर किसी मुफीद समय दुबारा पुस्तकालय ले जाने के ख्याल से ही मेरी रूह फना हो गयी |

थोड़ी मान - मनव्वल के बाद एक कर्मचारी को शायाद मेरे ऊपर दया आ गयी और वह मेरी चिठ्ठी को किसी को 'दिखा' लाया | उस 'देखने वाले' देवता को तो मैंने नहीं देखा पर मेरा मन उसके प्रति अनन्त श्रद्धा से भर गया की एक बहुत बड़ी तात्कालिक समस्या से बचा लिया | तभी एक महिला कर्मचारी ने टिप्पणी करी की ये किताबें तो पुरानी हैं और अब 'कोर्स' से बाहर हो चुकीं हैं | इस प्रश्न के लिए में बिलकुल भी तैयार नहीं था | पर फिर भी मैंने खुद को संभालते हुए कहा की अधिकतम किताबें अकाउंट्स, कामर्स और इकोनामिक्स की हैं जो की मूल रूप से वैसी ही रहती हैं |

तब तक एक भला माणूस मेरी लायी किताबों को गिनने लगा | उसने घोषणा की, कि एक किताब कम है | मैंने पूरी इमानदारी के साथ दान देने का निर्णय लिया था सो तर्क दे दिया की साहब मैं तो दान दे रहा हूँ | वो भी स्वयम आकार | मैं कम क्यों दूंगा ? खैर, मैंने भी गिना तो वाकई एक किताब कम थी | अब डर गया की कहीं मुझसे दुबारा चिठ्ठी टाइप करवाने को न कह दें | पर रास्ता भी उन लोगों ने खुद ही सुझाया, की जो किताब नहीं हो, लिस्ट में उसके नामे पर क्रास मारकर साइन कर दें |

अंत में मैंने अपनी चिठ्ठी पर किताबें रिसीव करके वाले सज्जन से पुस्तकालय की मोहर लगाने को कहा तो उन्होंने बाहर, इश्यु काउन्टर पर बैठीं एक महिला के पास भेज दिया | उनसे भी एक मोहर लगवाना आसान कैसे होता और क्यों ? पहला जवाब आया की जिसने रिसीव लिया है मोहर भी वही लगाएगा | पर फिर न जाने क्या सोंच कर वो मेरे ऊपर मेहरबान हो गयीं और फाइनली इस सवाल के साथ मोहर लगा ही दी की क्या किताबें रिसीव करने वालों ने मुझे धन्यवाद पत्र नहीं दिया ? मन से आवाज आई की धन्यवाद तो मुझे आप सभी को देना चाहिए की आप लोगों ने मेरी द्वारा दान में दी गयी किताबों को ले लिया और मुझे कृतज्ञ किया |

सारी जद्दोजहद के बाद जब मैं बाहर रहा था तो दिल के किसी कोने में एक ख़याल ही गया की जब दान की बछिया के दांत गिनने की कला, इतनी उत्कृष्ट तकनीक के रूप में विकसित कर ली गयी हो तो क्या इन किताबों के बदले मैटनी शो के दो टिकट बुरे थे ? मां की डांट भी बहुत समय पहले पड़ना बंद हो जाती !

 

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