2013-02-16

शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर

शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर 
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी 2013

विश्वविद्यालय में आयोजित आज के षष्टम दसवें दीक्षान्त समारोह के बाद जो मनोविचार मेरे मन में उठ रहे हैं उन्हे अब साझा किये जाने का समय आ गया है । बेशक युवाओं के प्रति आशावादिता और देश की बेहतरी की आस समाज के लिये शुभ संकेत हैं । किसी भी राष्ट्र के लिये यह सुखद अहसास होना चहिये कि आगामी समय को लेकर समाज आशान्वित है । पर आज का प्रश्न है कि शिक्षा के समावर्तन पर जो शपथ दिलायी जाती है उसे बिसरा क्यों दिया जाता है ? जिसकी ओर इशारा जस्टिस वर्मा ने किया ।

इस बात को सिर्फ विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों के परिपेक्ष में न देखकर, बल्कि एक बड़े दायरे में देखे जाने की जरूरत है । यानि इसको अन्य सभी संस्थाओं से निकलने वाले अभ्यर्थियों के सम्बन्ध में भी देखा जाना चाहिये । उदारहण के लिये डाक्टरों की हिप्पोक्रेटिक शपथ के सम्बन्ध में । प्राय: वकीलों, पुलिस वालों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को भी किसी न किसी प्रकार शपथ दिलायी जाती है । इस प्रश्न को विद्या अर्जन के समय और उसके तुरन्त बाद समाज की बेहतरी के लिये काम करने के जस्बे के कुछ समय बाद कम होने के कारणों के मूल में जाकर हल करने की आवश्यकता है ।

यहां शेक्सपीयर का जूलियस सीज़र में यह कथन उद्वरित होता प्रतीत होता है कि "शपथ कमजोरों का हथियार है ।"  क्यों नहीं हम अभ्यर्थियों को बिना किसी शपथ के ही उनके जीवन में अग्रसर होने दें और उन्हे क्या करना है, क्या नहीं - उसका फैसला उन्हे स्वयं करने दें ।  तभी "या विद्या सा विमुक्तये" का भाव सच्चे अर्थों में सामने आ पायेगा । और साथ ही किसी शपथ को विस्मित कर देने के अपराध बोध से भी लोगों को मुक्ति मिलेगी । कोई भी शपथ, विद्या अर्जन के मूल उद्देश्य स्वयं के विवेक से एवं आत्मबल के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करती है । इस समरोह में छात्रों को जोर - शोर से इस बात की शपथ दिलायी जाती है कि वे उसी प्रकार का आचरण करेंगे जो कि समाज में पूर्व से ही निर्धारित कर दिया गया है । बताया गया है कि महाजनेन गत: सा पंथ: । यानि बनी - बनायी लकीर पर चलोगे - इसका वादा करके जाओ । यही आदेश है और यही उपदेश भी है । क्या इसका अर्थ यह निकला जाये कि जो हो चुके वही महापुरुष होंगे, अब तुम महापुरुष बनने के चक्कर में न पड़ना ? मेरा मन इस बात से अन्दर से कराह रहा है ?

गुस्ताखी माफ ! पर यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था पर है । क्या ऐसा वादा करने से मौलिकता का हनन और नवीन विचारों का संकुचन नहीं होता है ? यह अलग बात है कि अधिकांश विद्यार्थी इसे डिग्री लेने के लिये मात्र एक रस्म अदायगी ही मानते हैं । इस बात की इमानदारी से तस्दीक नहीं होती दिखती । असल जिन्दगी मंचों और समारोहों से अलाहिदा होती है या यूँ कहें कि हम असल जिंदगी का समारोहों और मंचो के साथ सामन्जस्य नहीं बैठा सके हैं । 

विचारों के उद्वेलन की बात तो सबको भाती है पर उस उद्वेलन के क्रियान्वन, यदा - कदा दिल्ली बलात्कार कांड जैसी किसी घटना के बाद ही दिख पाता है । भगत सिंह की जरूरत समाज को हमेशा से रही । पर सभ्य समाज का अभिजात्य वर्ग यह कह कर अपना दामन छुड़ाता रहा कि भगत सिंह किसी पड़ोसी के यहाँ पैदा हो तो अच्छा है । किसी को इस बारे कुछ करना चाहिये । पर हम कुछ नहीं करेंगें । व्यवस्था के साथ हमारे सुविधावादी संतुलन को कोई हानि न पहुँचे ।

भले ही सार्वजनिक मंचों से लोकतन्त्र और इसके मूल्यों के रहनुमायी की बातें की जाती रही हों पर सच्चाई थोड़ी कड़वी है । राज्य का रवैया भी लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी में खड़े होने वालों के प्रति सकारात्मक न होकर अपितु ऋणात्मक ही रहा है । जिसमें पहले इन पहरेदारों को अपने सुविधावादी संतुलन में शामिल करने के प्रयास किये जातें हैं ।  यदि इनमें सफलता नहीं मिली तो राज्य दमनात्मक रवैया अपनाने से भी नहीं चूकता है । क्या अंग्रेज, क्या हिन्दुस्तानी ? इस बात पर सभी एक ही नाँव में सवार दिखतें हैं । या तो सत्ता वर्ग की मानों या परिणाम भुगतो । शायद इसी कारण से बहुधा जन आन्दोलन एक समय के बाद या तो हताशा का शिकार हो ठप्प हो जातें हैं या फिर राज्य से विश्वास उठने के बाद हिंसक तक हो जाते हैं ।

पूरे विश्व के साथही भारत में भी एक नये युग का आगमन हो रहा है । इस युग में लोग सूचना क्रान्ति के दम पर एक दूसरे लगातार जुड़े हुये हैं । यह वही युवा वर्ग है जो दिल्ली में जन्तर मन्तर पर और इण्डिया गेट पर नजर आया । यहाँ भले ही लोग एक दूसरे को व्यक्तिगत रुप से न जानते हों पर उद्देश्यों की समानता के आधार पर इस आभासी दुनिया में बड़ी तेजी से परिचय होता है । जोकि जरूरत पड़ने पर असल दुनिया में अवतरित भी होता है । और पुन: अपनी आभासी दुनिया में विलुप्त हो जाता है । इसलिये यह कहना कि वे लोग एक दूसरे को जानते नहीं थे, शायद सही नहीं होगा । उनकी पहचान अपने उद्देशयों की समानता के आधार पर सदा बनी रह सकती है ।

आगामी समय में सत्ता वर्ग को इस प्रकार के अन्य आंदोलनों के लिये भी अपनी कमर कसनी पड़ सकती है । यही नये भारत की उम्मीद है । यही देश की आशा है । और हाँ, इन सब के लिये किसी शपथ की जरूरत नहीं पड़ती दिखती है । और न ही किसी विश्वविद्यालय के किसी पाठ्यक्रम में आन्दोलन करना सिखाया जाता है ।

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