2020-05-19

दुवाओं की गठरी जो अचानक कबूल हुयी, पर गरीब कर गयी !

समाधि – सारांश :

प्रभु से खुल के मांगिये,
मांगिये छप्पर फ़ाड़ ।
जो मांगन में कमतर रहे,
रहे पछतावे का भार ।
जब वो देना शुरु करे,
सब कम पड़े भंडार ॥

इसी बात को हमारे चाचा मरहूम, कुछ ऐसे समझाया करते थे कि उपर वाले से जब मांगो तो ’किलोमीटरों’ में मांगना । जो मिलना है, वो उसी से मिलना है इसलिये उससे मांगने में कमी न रखना । चाचा का अपना लाजिक था कि उसके पास तुम्हारे जैसे मांगने वालों की लाइन लगी है । उसको सबको कुछ देना है । इसलिये वो तुम्हारे किलोमीटरों की मांग को ’मीटरों’ में सुनेगा और कृपा हुई तो कुछ ’फ़ुटों’ में दे देगा । तो क्या होगा अगर तुम अपनी मांग ही कुछ फ़ुटों में रखगो ? वो मिलते – मिलते शायद कुछ मिलीमीटरों में रह जायेगा । इसलिये जब उससे मांगने का मौका मिले तो चूकना मत । वो कहते थे कि बेटा उससे जब मांगो तो ’खुल के मांगो, खींच के मांगो’ ।

जिदंगी चलती रही और हर रोज अपनी ख्वाहिशों की चादर हम उसके सामने फ़ैलाते रहे । चाचा का दिया सबक याद रहा इसलिये जब भी मांगा, अपनी दमभर, खुल के किलोमीटरों में ही मांगते रहे । मेरी चादर में दुआओं की बहुत से पोटलियां पड़ी थी और कुछ गठरियां भी । कुछ दुआएं कुबुल होती रहीं और वक्त के साथ कुछ दुआएं, तस्व्वुर में तब्दील हो गयीं ।

लाकडाउन अब खात्में की ओर है । लाकडाउन के शुरुआत में एक नुस्खा आजमाना शुरु किया था । जिंदगी में लोगों से जाने – अनजाने बाकी रह गये अपने रुहानी हिसाब निबटाने का । पिछले एक – ड़ेढ़ महीने में जो कुछ अनुभव किया वो तो नितांत निजी है, निजि ही रहेगा । और जो आज लिख भी रहा हूं उसे भी कई बार लिखते – लिखते रुक गया । अन्दर से कुछ रोक रहा था । पर फ़िर उसी ने शब्दों का दान और मान दिया, तो कलम चल सकी । इस समाधि – सारांश को साझा करने की प्रेरणा मिली ।

बहुत से अनुभवों में से एक यह भी रहा कि तस्व्वुर में तब्दील हो चुकी  पुरानी दुआओं की एक गठरी उसने खोल दी । अजी गठरी क्या, बस यूं कहिये कि पोटली ही थी, जो वक्त की धूल के साथ गठरी बन चुकी थी । इससे पहले की कुछ समझ पाता, एक तेज, बहुत तेज रफ़्तार बारिश थम चुकी थी । कृपा बरस चुकी थी । मेरी दुआओं की भारी गठरी भी बारिश में बह चुकी थी । एक अर्से बाद उसकी नैमतों से आज चादर भी आज साफ़ है, चमक रही है । तेज रफ़्तार बारिश में धुल जो गयी है । एहसास हुआ कि, उसने अपना काम कर दिया - वो तो दे चुका है । जो कुछ भी मैनें मांगा था, अपनी पूरी होशियारी से साथ - ’किलोमीटर’ समझ के !

पर अगले ही पल, मैं खुद को गरीब, पहले से बहुत ज्यादा गरीब महसूस कर रहा हूं । ठगा सा महसूस कर रहा हूं ।

बारिश अब थम चुकी है और मन अब पूरी तरह शांत है । अन्दर और बाहर, कोई शोर नहीं है । पूरी तसल्ली और इत्मिनान के साथ वक्त में पीछे झांकता हूं, तो पाया कि जो बह गयी, उस गठरी की एको - एक दुआ कबूल हुई है । धूल के मुलम्मे भी झाड़ दें तो शायद उससे कुछ ज्यादा ही मिला है । शब्दों मे न कह सकूं, एक ऐसा अनजाना सकून अब साथ हो चुका है। कुछ धागे, जो दशकों से मन से आगे, अंतरात्मा तक उलझे हुए थे, एक झटके में सुलझ गये थे । न कुछ बोलने की हिम्मत ही बची थी और न कुछ सुनने की इच्छा । अब तो उससे शिकायत करने के लिये भी कुछ नहीं बचा । यकीन जानिये जिसे ’किलोमीटर’ समझ के मांगाता रहा, उससे बहुत ज्यादा मिल चुका है ।

पर यह क्या ? किसी कोने में, चुपचाप बैठे हुए, मैं और मेरा अक्स, एक दूसरे को ताक रहे हैं । एक तरफ़ तो उसकी नैमतों का शुक्राना अदा करते नहीं अघा रहे, और दूसरी तरफ़ एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि इतना कम क्यों मांगा था ?

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(दिनांक 02.05.2020 को फ़ेसबुक पर प्रकाशित)

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