सरकारी सेवाओं में कार्यरत लोगों के लिये वेतन वृद्धि के सीमित अवसर होतें हैं । वर्ष में एक बार समयमान एवं वेतनमान के अनुसार निश्चित वेतन वृद्धि एवं प्रत्येक दस वर्षों में एक बार वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार तनख्वाह बढ़ने की उम्मीद । यह वेतन आयोग मूलत: केन्द्र सरकार द्वारा नियत किया जाता है । केन्द्र सरकार इसकी अधिकांशत: सिफारिशों को मान लिया करती है । इसकी सिफारिशों को राज्य सरकारें अपनी प्रशासनिक एवं वित्तीय सहूलियतों के अनुसार लागू करते हैं । यह सिफारिशें राज्यों पर बाध्यकारी नहीं होती परन्तु परम्परा रही है कि राज्य भी इन्ही सिफारिशों को आधार मान कर अपने वेतनभोगियों को भी लाभान्वित करती रही हैं ।
छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशें 01 जनवरी 2006 से लागू हुयी थी । यानि छ: वर्ष पहले । तकनीकी रूप से इसके मतलब है कि छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों से लाभ मिलने का लगभग 60 प्रतिशत समय बीत चुका है । परन्तु उच्च शिक्षा में कार्यरत शिक्षकों को छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लाभ देने के मामले में केन्द्र एवं अधिकांशत: प्रदेश सरकारों की नीति एवं नीयत शक के दायरे में है । पंजाब, हिमाचल एवं उड़ीशा जैसे अपवाद राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे भारत में ही अभी तक शिक्षकों को छ:ठे वेतन अयोग की सिफारिशों के अनुसार उनका पूरा बकाया वेतन नहीं मिला है । कई राज्यों ने इस आयोग की सिफारिशों को उच्च शिक्षा के शिक्षकों के हक में लागू करने में काफी हीला-हवाली की । इन राज्यों में शिक्षकों को लम्बी कानूनी लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी । उन्हे अपने मूलभूत अधिकार यानि वेतन प्राप्ति के लिये न्यायालयों की शरण में जाना पड़ा ।
शिक्षकों के इस संघर्ष में मध्य प्रदेश के शिक्षकों ने भोपाल उच्च न्यायालय के आदेशों एवं दस दिनों की हड़ताल के बाद इस दिशा में सफलता पाई तो महाराष्ट्र के शिक्षकों को इसे अपने हक में लागू कराने के लिये दबाव बनाने के लिये लगभग 40 दिन तक हड़ताल पर रहना पड़ा । लगभग पूरे भारत में ही शिक्षकों को अपने हक में इसे लागू कराने में तीन साल का समय लगा । अन्य राज्यों में स्थिति कमोवेश यही रही ।
जहाँ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) ने अपनी सिफारिशों में स्पष्ट कहा है कि उन्हे पूरी तौर पर लागू किया जाना आवश्यक है । वहीं राज्य सरकारें अपने हिसाब से इन सिफारिशों की व्याख्या करते हुये शिक्षकों को जो दे रहीं हैं वो इन सिफारिशों का अधा - अधूरा और टूटा - फूटा स्वरूप है । जिसे की राज्यों की सरकारें उससे भी ज्यादा नीरसता के साथ रो - रो कर लागू कर रहीं हैं ।
यू.जी.सी. के बताये पूरे लाभ शायद ही किसी राज्य ने अपने शिक्षकों को दिये हों तो उन्हे अत्यन्त खुशनसीब समझा जायेगा । किसी राज्य ने शिक्षकों की सेवा - निवृत्ति की आयु 65 वर्ष नहीं स्वीकार की तो किसी राज्य ने शिक्षकों के महंगाई भत्ते में अपने राज्य की माली हालत के मद्देनजर कटौती कर दी, किसी ने महिलाओं के लिये शिशु पालन अवकाश, पितृत्व अवकाश और मातृत्व अवकाश पर अपना रुख अभी तक स्पष्ट नहीं किया है । और शिक्षकों को शायद बीमार पड़ने का हक नहीं है इसलिये यू.जी.सी. की सिफारिशों के अनुसार उन्हे चिकित्सा लाभ भी नहीं मिल रहे हैं । मनोरंजन एवं परिवार के साथ वक्त बिताने के लिये मिलने वाली एल.टी.सी. से तो शिक्षकों को सभी ने महरूम ही रखा ।
उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा के अध्यापकों के लिये राज्य सरकार ने अनमने ढ़ंग से छ:ठा वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया । 01 जनवरी 2006 से लागू होने वाली इन सिफारिशों को कुत्सित एवं शिक्षक विरोधी मानसिकता के चलते इसे 01 दिसम्बर 2008 से लागू किया । और यह मान लिया कि 01 जनवरी 2006 से शिक्षकों से इसका सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देकर उनके दायित्वों की इतिश्री हो गयी । बतातें चलें कि इस प्रकार के आदेशों को पास करने वालों में वे लोग प्रमुखता से शामिल थे जो स्वयं को जनता का भाग्य विधाता मानतें है । उन्हे अपने वेतन एवं सेवा सम्बन्धी लाभ केन्द्र सरकार के घोषणा मात्र के बाद ही स्वत: मिल जाया करतें हैं । या यूँ कहे कि वो अपने वेतन सम्बन्धी लाभ स्वयं ही झटक लिया करतें हैं । इनके संगठनों ने राज्यों के साथ स्वयमं के लिये सुविधावादी सामंजस्य बना रखा है कि इधर केन्द्र सरकार ने घोषणा करी उधर अखिल भारतीय सेवा का झण्डा उठाये इस वर्ग की झोली में सारे लाभ स्वत: आ गिरे ।
हमारी चुनी हुयी सरकारें भी उच्च शिक्षा के शिक्षकों के साथ होते ऐसे दमनकारी कृत्यों को रोकने में असक्षम नजर आती हैं । क्योकिं उनकी निगाहें वोट बैंक पर होती हैं । लोकतंत्र में वोटों के गुणा भाग में हमारी बिरादरी कमजोर बैठती है । जहाँ पूरे उत्तर प्रदेश में हमारी संख्या लगभग चौदर हजार के करीब है वही एक सभासद को चुनने में औसतन बीस से बाईस हजार मतदाता होते हैं । यह तथ्य लोकतांत्रिक वोट व्यवस्था में हमारी हैसियत बताने के लिये काफी है ।
उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा के शिक्षक लगभग तीन वर्षों के कठोर संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार को इस बात का एहसास करा पाने में सफल हुये कि उन्हे भी नियत तिथि यानि कि 01 जनवरी 2006 से ही छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों का लाभ मिलना चाहिये । एक लम्बे संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार ने माना कि सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देने से आम शिक्षक के घर का चुल्हा नहीं जलेगा । हमें भी आटे की वही रोटी खानी होती है जोकि मन्त्रियों और नौकरशाहों को खानी होती है । और बाजार अपने ग्राहकों के पद और वेतन के अनुसार वस्तुओं की दामों में फर्क नहीं करता । वर्ष 2010 के मई माह में जाकर उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बात को सिर्फ सिद्धांत: स्वीकार किया । शासनादेश जारी हो गये कि केन्द्र सरकार से धन मिलने पर शिक्षकों को 01 जनवरी 2006 से उनके बकाया वेतन का भुगतान कर दिया जायेगा ।
जमीनी स्तर पर एक शिक्षक के लिये आज भी हकीकत वित्तीय एवं अन्य लाभों की सिर्फ कल्पना से आगे नहीं बढ़ी है । शिक्षकों को सिर्फ आश्वावसनों का झुनझुना पकड़ा दिया कि केन्द्र सरकार (यू.जी.सी.) से धनराशि मिलने पर तुम लोगों का वेतन बकाया मिल जायेगा । मई 2010 से आज दो वर्षों से ऊपर का समय बीत चुका है पर हमारा पैसा कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं ? किसी के पास कोई जवाब नहीं है । अन्दरखाने से मिलने वाली खबरें बताती हैं कि केन्द्र और राज्य की सरकार की इस मामले में रस्साकशी जारी है । दोनों अपनें दायित्वों को एक दूसरे पर ठेल कर अपना दामन साफ बता रहें हैं । कारण चाहे जो भी हो पर प्रदेश का शिक्षक अभी तक अपने 35 महीनों के बकाया वेतन के लिये सिर्फ बाट जोह रहा है ।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि पूरे उत्तर प्रदेश में सिर्फ जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था जिसके शिक्षकों के बकाया वेतन के लिये प्रदेश सरकार ने यू.जी.सी. से एक रुपया भी नहीं माँगा था । ऐसा इस विश्वविद्यालय के जिम्मेदार अधिकारियों की हठधर्मिता और ऊल जलूल अड़ंगेबाजी के चलते हुया जिसे कि राज्य सरकार आखें मूंदे देखती रही । इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों के सतत संघर्ष ने विश्वविद्यालय एवं राज्य सरकार को अंतत: जगाया । इस बाबत अपनी बात से सहमत कराने में विश्वविद्यालय के ’स्टील फ्रेम’ से काफी टकराहट भी हुयी । तब जाकर पूर्वांचल विश्वविद्यालय एवं प्रदेश सरकार विश्वविद्यालय अनुदान (यू.जी.सी.) आयोग से नियत तिथि से वेतनमान देने पर आने वाले वित्तीय बोझ का 80 प्रतिशत माँगने कि लिये तैयार हुयी ।
उच्च शिक्षा के इस पूरे परिदृष्य से जो तस्वीर सामने लाने का प्रयास किया गया है वह वास्तविकता में पूरी सच्चाई की एक बानगी मात्र है ।
एक ओर तो यह यक्ष प्रश्न है कि जब पूरी नौकरशाही, जिसमें कि अखिल भारतीय सेवा, राज्य स्तरीय सेवा एवं अधीनस्त सेवाओं के अधिकारी एवं कर्मचारी शामिल हैं, को अपना सारा बकाया वेतन मिल चुका है तो सिर्फ उच्च शिक्षा के शिक्षकों को ही उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने का क्या उद्देश्य है ? यहाँ तक की राज्य के प्राथमिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के शिक्षकों भी उनके सारे लाभ मिल चुकें हैं तो हमारे साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों ? ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि हमें आर्थिक संवर्धन की कोई जरूरत नहीं है । और जितने समय तक चाहे व्यवस्था बिना किसी जवाबदेही लिये हमें वंचित रख सकती है ।
जब मंच पर बैठकर आदर्श बघारनें की बात हो तो शिक्षकों को ऊँचे आदर्शों के साथ बाँध दिया जाता है । उन्हे समाज निर्माता एवं पथ प्रदर्शक जैसी अनेकों उपमाओं से नवाज़ा जाता है । पर यह विमर्श क्यों नहीं उठाया जाता कि एक वंचित शिक्षक कैसे समाज का निर्माण करेगा और समाज उससे यह अपेक्षा कर भी कैसे सकता है ?
जिन अभिभावकों अपना पूरा बकाया वेतन मिल चुका हो उनके नौनिहालों को पढ़ाने की और उनके भविष्य निर्माण की जिम्मेदारी वेतन-वंचित शिक्षकों पर डाली जा रही है । इस परिदृष्य में यह उच्च शिक्षा का हास्यास्पद चेहरा है कि इसके नीति - निर्माता इस क्षेत्र में योग्य अभ्यर्थियों के न आने से शिक्षा की घटती गुणवत्ता पर घड़ियाली आँसू बहाते रहते है । अपने जीवन को संघर्ष में रखकर दूसरों के चिरागों को रौशन करने का माद्दा सिर्फ शिक्षक में है ।
यानि, भूखे भजन जपो गोपाला, पीते रहो विष का प्याला !
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