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हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मार्च की 18 तारीख जन्मदिन के रूप में आयी ।
संचार तंत्र के कई - कई माध्यमों की मदद से अनेकों ईष्ट जनों, मित्रों आदि
ने इस दिन मुझे बधाईयाँ प्रेषित करीं । आप सभी को धन्यवाद !
इस
दिन के बहाने से कुछ उद्गगार जो विगत कई वर्षों से साझा करना चाहता था आज
उकेर रहा हूँ । जीना बेतक्ल्लुफ़ होता जा रहा है इसलिये यह ठान लिया था कि
जब तक कह नहीं दूंगा, मानूंगा नहीं । तो चलतें हैं अपने स्कूल के दिनों में
।
बात मेरे हाई स्कूल से पहले के किसी वर्ष की रही होगी । उन
दिनों स्प्रिंग ड़ेल स्कूल, लखनऊ में ड़ा. ए. के. मिश्रा प्रिंसिपल थे ।
मिश्रा जी कड़क किस्म के प्रिंसिपल थे । कम शब्दों में वे अंग्रेजी की कहावत
Spare the rod and spoil the child वाली विरादरी के मास्टर थे । कहने में
कोई शर्म नहीं कि, कई बार मेरे तत्कालीन बाल शरीर को भी उनके इस बिरादरी के
समर्थक होने का अहसास हो चुका था । आदतन मिश्रा जी कम बोलने वाले रिजर्व
टाइप के इन्सान थे । छात्रों की क्या कहना, स्कूल के मास्टरों ने भी शायद
उन्हे कभी कभार ही हंसते - मुस्कराते देखा हो तो उनका सौभाग्य रहा होगा ।
एक बार, मिश्रा जी का जन्मदिन आया और जाने कैसे यह बात कुछ शिक्षकों के
माध्यम से छात्रों तक पहुँच गयी । जैसा कि मैं इस प्रकरण को समझ पाया, कि
उन मास्टरों ने अपनी चापलूसी का प्रदर्शन कुछ छात्रों के माध्यम से करने के
लिये स्कूल की सुबह की प्रार्थना सभा को चुना । रूटीन प्रार्थना सभा के
बाद कुछ ’अति प्रेरित टाइप’ के छात्रों ने मिश्रा जी को भरी प्रार्थना सभा
में जन्म दिन की बधाईयाँ दे डाली और उनकी शान में कसीदे पढ़ डाले । आदतन
मिश्रा जी मंच से प्रार्थना सभा समाप्त होने से कुछ पहले ही नीचे उतर चुके
थे । पर इस अप्रत्याशित घटना क्रम के कारण वे बहुत ही सधे हुये कदमों से
पुन: मंच पर चढ़े । जो चापलूस टाइप मास्टर इस प्रकरण के पीछे थे उनके चेहरे
पर प्रफुल्लित होने के भाव साफ देखे जा सकते थे । और अबतक मिश्रा जी मंच पर
माईक थाम चुके थे । फिर जो हुया उस एक वाकिये का बयान बड़ा ही मौजूं है ।
अनेकों अल्पविरामों और पूर्णविरामों से लबरेज, अपने चिर परिचित और बड़े ही
सधे हुये अन्दाज में मिश्रा जी ने औपचारिक एवं सार्वजनिक रूप से उन
’चापलूसी की चाशनी में डूबी छ्द्म बधाईयों’ को स्वीकार किया । उसके बाद जो
कहा वह जीवन का दर्शन था । मिश्रा जी जो कहा वह उस बाल मन पर अमिट स्याही
से अंकित गया ।
उन्होनें बड़ी ही शालीनता और गंम्भीरता के साथ हमें
बताया कि जन्मदिन का मतलब अवश्यम-भावी मृत्यु से एक वर्ष और निकट होना ।
धरती पर हमारे आवंटित समय का एक साल और कम हो गया । यह दिन वर्ष पर्यन्त
किये अपने कामों की समीक्षा करने का है । और आने वाले दिनों लिये मापदण्ड
स्थापित करने का है । उनके अनुसार जन्म दिन भी वर्ष के अन्य दिनों के समान
ही है । क्या हम उस दिन कोई अलग तरीके से जीवन जीतें हैं ? सुबह उठने से
लेकर रात में सोने तक सब कुछ सामान्य ही तो होता है ! यानि सिर्फ रूटीन ।
इस प्रार्थना सभा के बहुत वर्षों बाद ड़ा@ shobha pandey ने जब राबर्ट
फ्रास्ट की कविता में and miles to go before I sleep, I have promises to
keep से परिचित कराया तो भी उसमें मुझे कहीं न कहीं मिश्रा जी का दर्शन
झलकता दिखायी दिया । और बड़ा हुआ तो विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों
में कुलपतियों को "सत्य में प्रमाद न करो" की दीक्षा देते देखा । भगवान
महावीर की इस शिक्षा में शायद "उत्सव में प्रमाद न करो" को भी जोड़ने के
इरादे का सूत्रपात ड़ा मिश्रा ने बहुत पहले ही मेरे मन में कर दिया था ।
त्योहारों, उत्सवों और जन्मदिवसों पर बहुत ज्यादा उल्लासित एवं प्रफुल्लित
नहीं हो पाने के पीछे शायद यह भी एक कारण हो ? पक्के तौर कह नहीं सकता पर
इस घटना के योगदान को विस्मित कदापि नहीं कर सकता ।
इस दर्शन के
बाद सुबह की प्रार्थना सभा विसरजित हो गयी । अपुष्ट खबरें आती रहीं की उन
चापलूस टाइप मास्टरों की एक क्लास मिश्रा जी ने अलग से ली । और क्लास में
क्या पढ़ाया गया होगा, आप स्वयं समझ सकते हैं । बताना जरूरी है कि इस स्कूल
से सेवा निवृत्त होने के बाद भी मिश्रा जी जीवन भर अपने काम में लगे रहे ।
मेरी जानकारी के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम समय तक वो फर्रूखा़बाद के किसी
उद्योगपति के आई.सी.एस.सी. माध्यम के स्कूल को संवारने में लगे रहे ।
हर वर्ष के भांति इस वर्ष भी अनेकों फोन काल, एस. एम. एस. और अब फेसबुक
सन्देशों का मैं आभारी हूँ । आपके स्नेह और आशीष को सर आखों पर रखता हूँ ।
सिर्फ Sharad Singh का एक सन्देश मिश्रा जी के दर्शन से मेल खाता हुआ सा दिखा । और अगर मुझे सही समरण है तो कुछ समय पूर्व भाई Mukul Srivastava ने भी इससे मिलते जुलते विचार व्यक्त किये थे । शायद Shamoli Sarkar इस घटना की तस्दीक कर सकें । और शायद Pooja Singh एवं Deepshikha Ghose
आदि छात्रों को उनके उस सवाल का जवाब भी मिल जाये, जो कि वे विगत कई
वर्षों से पूछते आये हैं कि मैं उल्लास एवं के उत्सव अवसरों पर बड़े ही सहज
तरीके से व्यवहार क्यों करता हूँ ।
निश्चय ही मिश्रा जी के इस
दर्शन को हर व्यक्ति ने अपने - अपने हिसाब से रिसीव किया होगा और अपने ही
अन्दाज में लागू किया होगा । मैंने इस दर्शन के शब्दों और आत्मा के साथ
आत्मसात का प्रयास जारी रखा है । अन्त में एक गीत जो, इस आलेख के भाव से
मेल खाता हुआ है ।
www.youtube.com/watch?v=ADHapMuxZik
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