2013-03-28

उत्सवों के प्रतीक चिन्हों पर प्रश्नचिन्ह ?

होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही तैयार हो रही होती हैं ।

होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है । इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।

ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है । या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।

मेरा प्रश्न इन प्रतीक चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।

इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !

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