होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के
प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को
होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की
प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित
सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही
तैयार हो रही होती हैं ।
होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है ।
इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों
के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।
ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील
तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है ।
या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को
फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा
कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का
प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने
का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।
मेरा प्रश्न इन प्रतीक
चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब
बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा
क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की
ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे
परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं
की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे
में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के
पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।
इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !
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