2013-10-16
गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
पर क्या व्यापार और व्यापारिक शिक्षा समाजोन्मुखी होने को तैयार है ?
विगत गांघी जयन्ती पर विश्वविद्यालय में पद्र्म पुरुस्कार से सम्मानित सुविख्यात
पर्यावरणविद ड़ा अनिल पी. जोशी का व्याख्यान आयोजित किया गया । इससे पहले जोशी साहब
से मेरा परिचय दैनिक हिन्दुस्तान के op-ed page पर प्रकाशित होने वाले उनके
लेखों के माध्यम से था । विश्वविद्यालय को जोशी का अभारी होना चाहिए कि उन्होनें उसी
दिन लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी, मसूरी (आई.ए.एस. आकादमी)
में अपने प्रस्तावित कार्यक्रम के ऊपर विश्वविद्यालय के आमंत्रण को रखा । साथ ही छात्रों और शिक्षकों से बात के लिये समय
दिया ।
उनके व्याख्यान से ठीक पहले एक स्थानीय कालेज के पूर्व प्राचार्य रहे दर्शनशास्त्री
गांघी के महातम पर बोल के चुके थे । और जोशी जी ने यह बात बखूबी पकड़ी की लगभग 500 क्षमता
वाले उस संगोष्ठी भवन में लोगों की गांधी का दर्शन सुनने की कोई खासा इच्छा नहीं थी
। सिर्फ रस्म अदायगी के लिये लोग बाग अपनी उपस्थिति दिखा रहे थे ।
सो उन्होनें एक बहुत बुनियाद बात से शुरू किया कि जिसे भी पानी, हवा और भोजन की जरूरत न हो वो बाहर जा सकता था । उनकी बातें बुनियादी थी, जमीन से जुड़ी और बिना लाग लपेट के । कान के रास्ते दिल में उतरने वाली । जल, जंगल, जमीन के विमर्श में
जोशी ने पहाड़ के पहलू (डाईमेन्शन) को न सिर्फ जोड़ा बल्कि उसे पहचान दिलाने के लिये
सतत संघर्षरत रहे । उनके काम की बानगी http://www.hesco.in/abouthesco.php
पर देखी और
समझी जा सकती है ।
जोशी सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित विकास के प्रचलित माडल को खारिज करते
हैं । उनकी दलील है कि जी.डी.पी. बढ़ाने में जितने प्राकृतिक संसाधन लगते हैं उनकी कीमत
बढ़े हुये उत्पादों की कुल वसूलयाबी कीमत से कहीं ज्यादा हैगी । क्योंकि विकास के नाम
पर इन संसाधनों का जो दोहन हो रहा है उसकी भरपाई नहीं होती है इसलिये हम सस्ते विकास
के चक्कर में पड़कर अमूल्य प्राकृतिक संपदा खोते जा रहे हैं । सीधे शब्दों में बढ़ता
हुआ जी.डी.पी., बढ़ते विकास का और समृद्धि
का द्द्योतक नहीं है । इसलिए विकास को मापने के नये पैमाने खोजने और स्वीकारने होंगे
। और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी और निजी कब्जेदारी रोकनी होगी ।
वास्तव में यह कोई ऐसी बात नहीं है जो पहले न कही गयी हो । बहुत से संस्थान और संगठन इन बातों को उठाते रहे
हैं । सबसे पहले जो उदाहरण मेरे ज़हन में आता है वो मेधा पाटकर का है । नर्मदा नदी
पर बन रहे बांध से होने वाले प्रभावों को पढ़ने के लिये गयी टाटा सामाजिक अध्ययन संस्थान
(Tata Institute of Social Sciences, Mumbai) की यह छात्रा कैसे पढ़ाई के
बीच बांध से प्रभावित जिन्दगियों की आवाज बनी और देश की नामचीन आन्दोलनकारी । मेधा
पर भी विकास - विरोधी होने के आरोप लगे । लम्बी अदालती लड़ाई से भी हारने के बाद भी
जो बात मेधा कहना चाहती थी वो होते हवाते, हिचकोले खाते बढ़ती रही और
बढ़ रही है । जोशी भी शायद उन्ही विचारों के प्रवर्तक हैं । रास्ते जुदा पर मजिंल एक
।
इस परिपेक्ष्य में कहना चाहूँगा कि अपने स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों
में जिस प्रकार की रटंत आधारित शिक्षा हम परोस रहें है उससे तो जोशी-पाटकर स्कूल आफ
थाट्स का भला होता नहीं दिखता । इसका रास्ता भी शायद गांधी की ओर देखने से मिल सकता
है । गांघी ने समग्र विकास (Sutainable Development) का विचार दिया था । इसके
साथ ही अगर समाजिक सम्पदा का 'न्यासी-हित सिद्धान्त' को मिला दिया जाये तो बात बन सकती है । कई आन्दोलनों एवं आन्दोलनकारियों के साथ
काम करने का जो कुछ भी अनुभव मुझे मिला उसमे मैंने सदैव एक सवाल पूछा । वह यह की प्रबंध
शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा (जिससे मैं भी जीविकोपार्जन करता हूँ ) में ऐसा क्या किया
जाय कि जो पाठ आन्दोलनों के माध्यम से कार्पोरेट को जबरिया पढ़ाया जाता है उसे क्यों
न भविष्य के कार्पोरेट को क्लास रूम में ही पढ़ा दिया जाये कि भविष्य में वे सामाजिक
मसलों पर ज्यादा संवेदनशील हों । पर ऐसा कोई संस्थान मिला नहीं । सभी को यह चिन्ता
है कि बाजार की जरूरतों में उनका पाठयक्रम कहीं पिछड़ न जाये ।
किसी दिन अगर मेरा कोई अपना शिक्षण संस्थान हुआ तो उसमें MBA (Sustainable Development) और MBA (Corporate Social
Responsibility) जरूर पढ़ाया जायेगा । और हो सका तो B.Tech.
(Sustainable Development) भी ।
जेम्स बांड की एक फिल्म देखी थी Quantum of Solace. उसकी कहानी भी यही थी कि
दो माफिया गुटों और देशों के बीच संघर्ष चल रहा है । पूरी फिल्म भर जिसे हम समझते रहे
की संघर्ष पेट्रोल को लेकर है वो अन्त में जेम्स बांड ने खोजा की साफ - पीने योग्य
पानी को लेकर था । बताने की जरूरत नहीं की व्यापारिक हित प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा
करने की राह में अग्रसर हैं । खुश तो आज तुम बहुत हो्गे कि अभी पीने को पानी सिर्फ
पानी ही 15 - 20 रुपये लीटर मिल जाता है । और अगर आक्सीजन (प्राण वायु) भी किसी सिलेन्डर
में नाप कर बेची जाये तो ?
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Labels: गांधी, बुनियादी बात, समाज
2013-10-15
राम, रावण एवं रावण तत्व । एक विमर्श !
बुराई पर अच्छाई की प्रतीकात्मक जीत, धुंवाधार आतिशबाजी के साथ आज एक भर
फिर मुक्कमल हो गयी । आज भी दशहरा है । रावण
फिर जला और राम की सत्ता पर लोगों ने फिर आस्था जताई । यहाँ मैं इस बात से आज आगे बढ़ना चाहता हूँ कि हर
बरस इस आयोजन की क्या सार्थकता है ?
सिर्फ प्रतीकात्मक ही रह गया है । रावण को बुराई का होल
- सोल ठेकादार मानकर फूंक देना । क्योंकि वास्तव में तो न तो रावण मरता दिखता है और
न ही रावण तत्व का खात्मा होता हुआ । इन सब
रस्म अदायगी के बीच एक विचार यह भी आया कि रावण का एक बहुत बड़ा उद्देश्य राम को स्थापित
करना भी है । क्योंकि राम का महातम रावण के किरदार के बिना कैसे चमकता ? रावण की सिर्फ एक गलती उसे अर्श से
फर्श पर पहुँचा देती है ।
कुबेर को रावण का बड़ा भाई बताया गया है । यानि एक जिम्मेदार
पद पर । रावण की शिव - भक्ति पर स्वयं महादेव भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकते । और जो
काम पूरे विश्व में कोई नहीं कर पाया वो सिर्फ रावण ने कर दिखाया । शिव के नृत्य ’तांड़व’ को शब्द-बद्ध एवं लय-बद्ध करने का । उस जमाने में भी
ज्ञानी - महात्मा लोगों की कमी नहीं रही होगी । शिव तांड़व स्त्रोत वास्तव में रावण
स्त्रोत है । और शिव को दस बार आपना शीश काट कर अर्पित करने के कारण उसका नाम दशानन
पड़ा । स्वयं महादेव ने उसके दसों सिर वापस किये ।
लक्ष्मण को राजनीति शास्त्र के ज्ञाता रावण की मृत्यु
शय्या पर रावण के पास स्वयं मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने कुछ ज्ञान हासिल करने भेजा था
। राम ने जिस रामेश्वरम मन्दिर की स्थापना की उसमें पुरोहित का किरदार भी रावण के जिम्मे
रहा ।
रावण सामराज्यवादी था । वह अपना सामराज्य बढ़ा रहा था
। आज भी कौन सा शक्तिशाली देश यह काम नहीं कर रहा है । जबसे दुनिया एक ध्रुवीय हुई
है तबसे यह बात और भी प्रासंगिक हो चली है । सामराज्यवाद जो पहले ब्रिटेन का काम माना
जाता था । वह सोवियत संघ के टूटने के बाद अमेरिका का शगल हो चला है । जहाँ अमेरिका
आर्थिक सामराज्यवाद की दिशा में बढ़ रहा है वहीं ब्रिटेन उसके साथ राजनैतिक सामराज्यवाद
भी बढ़ाता था । तो रावण बुरा था इसलिये उसके
पुतले पूरे देश में फूंके जा रहे हैं - 5000 साल बाद भी । और अमेरिका के पुतले भी पूरे
विश्व में हर उस देश में फूंके जा रहे हैं जहाँ - जहाँ उसके सामराज्यवाद ने लोगों को
दु:ख पहुँचाया । यहाँ तक की स्वयं अमेरिका में भी । साथ ही बताने की जरूरत नहीं की
रानी का सामराज्य अब सिमट चुका है ।
यह रावण के किरदार की एक बानगी भर है । और आप में से
हर कोई इसकी मीमांसा अपने - अपने चश्में से ही करेगा । प्रदूषण बढ़ाने की दृष्टि से
शायद हम - सब भी रावण के ही रोल में हैं । इसलिये रावण का नहीं रावण-तत्व का दहन करें
और इस किरदार के उअले पक्ष को अंगीकृत करने में कोई हर्ज नहीं दिखता ।
शायद, शायर निदा फाज़ली ने इसी लिये
कहा हो :
हर आदमी में होते हैं दस - बीस आदमी
जिसे भी देखिये
बार - बार देखिये ।
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2013-09-27
सत्य के आग्रह से कतई परे, सत्याग्रह !
प्रकाश झा कैम्प से गंगाजल और अपहरन जैसी जीवान्त फिल्में देखने के बाद सत्याग्रह देखकर बहुत प्रसन्नता नहीं हुयी । इस बात को शायद इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म देखने के कई दिन बाद उस पर कुछ लिखने का मन बना पाया हूँ । एक बिखरे हुये से कथानक की झलक, जिसमें सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कई घटनाओं की चटनी परोसने का प्रयास ज्यादा दिखा। सत्येद्र दुबे हत्याकाड़ं, अन्ना का अन्दोलन, केजरीवाल का आन्दोलन से विरचन कर राजनैतिक दल बनाना और गांधी के अन्तिम दिनों की झलक, सबकुछ एक साथ ।
एक बात इस फिल्म में जोरदार तरीके से कह दी, कि अगर आप व्यापार में हैं और तो समाज सेवा और आन्दोलन का ख्वाब मत देखिये क्योंकि राजनीति आपको जीने नहीं देगी । पर राजनीति के उच्चतम शिखर पर भी आपका बड़ा और महा-भ्रष्ट व्यापारी होना काफी मददगार सिद्ध हो सकता है । क्योंकि मानव (अजय देवगन) को अपना 5000 करोड़ का बिजनेस (जो कि वास्तविकता में 6250 करोड़ का था ) छोड़कर ही सत्याग्रह में उतरना पड़ा । । इसके पलट सभी मन्त्री सरकारी बैठकों में अपने - अपने कारोबारी हित साधते नजर आये । यहाँ तक कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का नेता भी अपने कारोबारी हितों के चलते आन्दोलन से अचानक अलग हो गया ।
फिल्म के कुछ पहलुओं पर फिल्म से मेरा प्रश्न है । मध्य प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में बिहारी / भोजपुरी बोलने वाले विलेन टाइप नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) की क्या जरूरत थी ? क्या बुन्देलखण्डी बोलने वाला कोई किरदार बेहतर नहीं होता ? शायद ’गठबंधन की राजनीति ’ की मजबूरी रही होगी ?
मध्य प्रदेश में ’ हिन्दुस्तान ’ अखबार नहीं चलता है । वहाँ ’ नव भारत ’ की धूम है । पर पूरी फिल्म में प्रकाश झा हिन्दुस्तान अखबार दिखाने से बाज नहीं आये । मेरे विचार में यह रियालटी सिनेमा के सिद्धान्तों के विपरीत है । इसे हिन्दुस्तान अखबार के विज्ञापन के रूप में देखा जा सकता है । वैसे हिन्दुस्तान अखबार के अलवा फिल्म में ’ अल्ट्राटेक सीमेन्ट ’, हीरो की पैशन मोटर साईकिल, और किसी चावल के ब्राण्ड तो मुझे याद आ रहा है, जिनके की विज्ञापन दिखाये गये । इसके अलावा और ब्राण्ड भी हो सकते हैं ।
ए.बी.पी. न्यूज की प्रतिनिधि बनी करीना कपूर खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गयी और अम्बिकापुर में ही बस गयी । पत्रकारिता की निश्पक्षता पर यह सवाल खड़ा करता है । क्या वास्तव में ए.बी.पी. न्यूज अपने किसी संवाददाता को ऐसा करने देगा ? कि जब चाहे आन्दोलनकारी बन जाओ और जब चाहे रिपोर्टर ? साथ ही अजय देवगन और करीना का प्रेम प्रसंग (चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो) कथानक से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता । इस पहलू पर भारतीय फिल्म निर्माताओं को हालीवुड से सीखने की जरूरत है । कि काम से काम रखो, बिलावहज का रोमांस मत ठूसो ।
एक बात इस फिल्म में जोरदार तरीके से कह दी, कि अगर आप व्यापार में हैं और तो समाज सेवा और आन्दोलन का ख्वाब मत देखिये क्योंकि राजनीति आपको जीने नहीं देगी । पर राजनीति के उच्चतम शिखर पर भी आपका बड़ा और महा-भ्रष्ट व्यापारी होना काफी मददगार सिद्ध हो सकता है । क्योंकि मानव (अजय देवगन) को अपना 5000 करोड़ का बिजनेस (जो कि वास्तविकता में 6250 करोड़ का था ) छोड़कर ही सत्याग्रह में उतरना पड़ा । । इसके पलट सभी मन्त्री सरकारी बैठकों में अपने - अपने कारोबारी हित साधते नजर आये । यहाँ तक कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का नेता भी अपने कारोबारी हितों के चलते आन्दोलन से अचानक अलग हो गया ।
फिल्म के कुछ पहलुओं पर फिल्म से मेरा प्रश्न है । मध्य प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में बिहारी / भोजपुरी बोलने वाले विलेन टाइप नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) की क्या जरूरत थी ? क्या बुन्देलखण्डी बोलने वाला कोई किरदार बेहतर नहीं होता ? शायद ’गठबंधन की राजनीति ’ की मजबूरी रही होगी ?
मध्य प्रदेश में ’ हिन्दुस्तान ’ अखबार नहीं चलता है । वहाँ ’ नव भारत ’ की धूम है । पर पूरी फिल्म में प्रकाश झा हिन्दुस्तान अखबार दिखाने से बाज नहीं आये । मेरे विचार में यह रियालटी सिनेमा के सिद्धान्तों के विपरीत है । इसे हिन्दुस्तान अखबार के विज्ञापन के रूप में देखा जा सकता है । वैसे हिन्दुस्तान अखबार के अलवा फिल्म में ’ अल्ट्राटेक सीमेन्ट ’, हीरो की पैशन मोटर साईकिल, और किसी चावल के ब्राण्ड तो मुझे याद आ रहा है, जिनके की विज्ञापन दिखाये गये । इसके अलावा और ब्राण्ड भी हो सकते हैं ।
ए.बी.पी. न्यूज की प्रतिनिधि बनी करीना कपूर खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गयी और अम्बिकापुर में ही बस गयी । पत्रकारिता की निश्पक्षता पर यह सवाल खड़ा करता है । क्या वास्तव में ए.बी.पी. न्यूज अपने किसी संवाददाता को ऐसा करने देगा ? कि जब चाहे आन्दोलनकारी बन जाओ और जब चाहे रिपोर्टर ? साथ ही अजय देवगन और करीना का प्रेम प्रसंग (चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो) कथानक से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता । इस पहलू पर भारतीय फिल्म निर्माताओं को हालीवुड से सीखने की जरूरत है । कि काम से काम रखो, बिलावहज का रोमांस मत ठूसो ।
Posted by Sachin Agarwal at 00:03 0 comments
2013-07-21
पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !
पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !
भारत पाकिस्तान के बटवारे के दंश को दोनों मुल्कों के इतिहास, साहित्य, लोकगीतों और अब फिल्मों के माध्यम से संजो कर रखा जाता रहा है । जहाँ आक्रमण, बार्डर और लक्ष्य जैसी फिल्में सीधे तौर पर दोनों मुल्कों की सेनाओं के टकराव को दिखाती हैं वहीं अब फिल्मों की एक जमात ने उस टकराव को खेल के मैदानों तक ला खड़ा किया हैं ।
’चक दे इण्डिया’ में भारत के एक मुसलमान हाकी खिलाड़ी के पाकिस्तान के खिलाड़ी से मैच के बाद हाथ मिलाने पर देश-द्रोही करार दिया जाना दिखाया । इस खिलाड़ी का कैरियर लगभग तबाह हो गया था । जिसे फिर से महिलाओं की हाकी टीम के कोच के रूप में आने के लिये काफी मशक्क्त करनी पड़ी । और जब तक महिलाओं के हाकी का विश्व खिताब जीत नहीं लिया उसका "गद्दार" का तमगा हटा नहीं ।
फिल्म में मिल्खा की जो कहानी दिखायी गयी उससे मालूम हुआ कि उनको ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक ने दिया था । किसी भी कामयाबी के लिये कड़ी मेहनत, लगन और जज्बे की जरूरत के महत्व को यह फिल्म रेखांकित करती है ।
गुरू, उस्ताद और मौलवी के महातम को भी बखूबी दिखाया गया है । पर एक बात जो दिल को छू गयी वह थी कि सिर्फ ’एक मग दूध और दो कच्चे अण्डों’ पर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार किये जा रहे थे । सोनम कपूर की अदाकारी में दिल्ली 6 वाला खिलंदड़ी अन्दाज बरकरार दिखा । फरहान अख्तर एथलीट कम और बाडी बिल्डर टाइप ज्यादा लगे ।
पाकिस्तान से विभाजन के वक्त जान बचा कर ’भागने’ पर मिल्खा के उपर चुभने वाली टिप्पणी पाकिस्तान के कोच ने की । निश्च्य ही फिल्म के कुछ भाग को हटाकर इसे कुछ छोटा किया जा सकता था । यह भी एक पीरीयड फिल्म है और कुछ glitches रह जातें है । चूंकि मिल्खा सिंह आज भी स्वयं जीवित हैं इसलिये यह माना जा सकता है कि उनके ऊपर बनीं फिल्म "भाग मिल्खा भाग" पर उनकी स्वीकृति भी है ।
और हाँ भविष्य में मैं एक फिल्म भारत - पाकिस्तान के क्रिकेट वर्ल्ड कप फाईनल पर भी देखना चाहूँगा । कोई फिल्म अगर आई-पी-एल आदि में मैच फिक्सिंग पर भी बने तो क्या कहना । मधुर भण्डारकर खेमें से हो तो बेहतर ।
भारत पाकिस्तान के बटवारे के दंश को दोनों मुल्कों के इतिहास, साहित्य, लोकगीतों और अब फिल्मों के माध्यम से संजो कर रखा जाता रहा है । जहाँ आक्रमण, बार्डर और लक्ष्य जैसी फिल्में सीधे तौर पर दोनों मुल्कों की सेनाओं के टकराव को दिखाती हैं वहीं अब फिल्मों की एक जमात ने उस टकराव को खेल के मैदानों तक ला खड़ा किया हैं ।
’चक दे इण्डिया’ में भारत के एक मुसलमान हाकी खिलाड़ी के पाकिस्तान के खिलाड़ी से मैच के बाद हाथ मिलाने पर देश-द्रोही करार दिया जाना दिखाया । इस खिलाड़ी का कैरियर लगभग तबाह हो गया था । जिसे फिर से महिलाओं की हाकी टीम के कोच के रूप में आने के लिये काफी मशक्क्त करनी पड़ी । और जब तक महिलाओं के हाकी का विश्व खिताब जीत नहीं लिया उसका "गद्दार" का तमगा हटा नहीं ।
फिल्म में मिल्खा की जो कहानी दिखायी गयी उससे मालूम हुआ कि उनको ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक ने दिया था । किसी भी कामयाबी के लिये कड़ी मेहनत, लगन और जज्बे की जरूरत के महत्व को यह फिल्म रेखांकित करती है ।
गुरू, उस्ताद और मौलवी के महातम को भी बखूबी दिखाया गया है । पर एक बात जो दिल को छू गयी वह थी कि सिर्फ ’एक मग दूध और दो कच्चे अण्डों’ पर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार किये जा रहे थे । सोनम कपूर की अदाकारी में दिल्ली 6 वाला खिलंदड़ी अन्दाज बरकरार दिखा । फरहान अख्तर एथलीट कम और बाडी बिल्डर टाइप ज्यादा लगे ।
पाकिस्तान से विभाजन के वक्त जान बचा कर ’भागने’ पर मिल्खा के उपर चुभने वाली टिप्पणी पाकिस्तान के कोच ने की । निश्च्य ही फिल्म के कुछ भाग को हटाकर इसे कुछ छोटा किया जा सकता था । यह भी एक पीरीयड फिल्म है और कुछ glitches रह जातें है । चूंकि मिल्खा सिंह आज भी स्वयं जीवित हैं इसलिये यह माना जा सकता है कि उनके ऊपर बनीं फिल्म "भाग मिल्खा भाग" पर उनकी स्वीकृति भी है ।
और हाँ भविष्य में मैं एक फिल्म भारत - पाकिस्तान के क्रिकेट वर्ल्ड कप फाईनल पर भी देखना चाहूँगा । कोई फिल्म अगर आई-पी-एल आदि में मैच फिक्सिंग पर भी बने तो क्या कहना । मधुर भण्डारकर खेमें से हो तो बेहतर ।
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2013-03-28
उत्सवों के प्रतीक चिन्हों पर प्रश्नचिन्ह ?
होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के
प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को
होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की
प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित
सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही
तैयार हो रही होती हैं ।
होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है ।
इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों
के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।
ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील
तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है ।
या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को
फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा
कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का
प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने
का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।
मेरा प्रश्न इन प्रतीक
चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब
बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा
क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की
ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे
परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं
की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे
में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के
पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।
इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !
Posted by Sachin Agarwal at 01:35 0 comments
2013-03-27
मृत्यु से निकट लाते जन्मदिन की बधाइयों का नाद ?
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मार्च की 18 तारीख जन्मदिन के रूप में आयी ।
संचार तंत्र के कई - कई माध्यमों की मदद से अनेकों ईष्ट जनों, मित्रों आदि
ने इस दिन मुझे बधाईयाँ प्रेषित करीं । आप सभी को धन्यवाद !
इस
दिन के बहाने से कुछ उद्गगार जो विगत कई वर्षों से साझा करना चाहता था आज
उकेर रहा हूँ । जीना बेतक्ल्लुफ़ होता जा रहा है इसलिये यह ठान लिया था कि
जब तक कह नहीं दूंगा, मानूंगा नहीं । तो चलतें हैं अपने स्कूल के दिनों में
।
बात मेरे हाई स्कूल से पहले के किसी वर्ष की रही होगी । उन
दिनों स्प्रिंग ड़ेल स्कूल, लखनऊ में ड़ा. ए. के. मिश्रा प्रिंसिपल थे ।
मिश्रा जी कड़क किस्म के प्रिंसिपल थे । कम शब्दों में वे अंग्रेजी की कहावत
Spare the rod and spoil the child वाली विरादरी के मास्टर थे । कहने में
कोई शर्म नहीं कि, कई बार मेरे तत्कालीन बाल शरीर को भी उनके इस बिरादरी के
समर्थक होने का अहसास हो चुका था । आदतन मिश्रा जी कम बोलने वाले रिजर्व
टाइप के इन्सान थे । छात्रों की क्या कहना, स्कूल के मास्टरों ने भी शायद
उन्हे कभी कभार ही हंसते - मुस्कराते देखा हो तो उनका सौभाग्य रहा होगा ।
एक बार, मिश्रा जी का जन्मदिन आया और जाने कैसे यह बात कुछ शिक्षकों के
माध्यम से छात्रों तक पहुँच गयी । जैसा कि मैं इस प्रकरण को समझ पाया, कि
उन मास्टरों ने अपनी चापलूसी का प्रदर्शन कुछ छात्रों के माध्यम से करने के
लिये स्कूल की सुबह की प्रार्थना सभा को चुना । रूटीन प्रार्थना सभा के
बाद कुछ ’अति प्रेरित टाइप’ के छात्रों ने मिश्रा जी को भरी प्रार्थना सभा
में जन्म दिन की बधाईयाँ दे डाली और उनकी शान में कसीदे पढ़ डाले । आदतन
मिश्रा जी मंच से प्रार्थना सभा समाप्त होने से कुछ पहले ही नीचे उतर चुके
थे । पर इस अप्रत्याशित घटना क्रम के कारण वे बहुत ही सधे हुये कदमों से
पुन: मंच पर चढ़े । जो चापलूस टाइप मास्टर इस प्रकरण के पीछे थे उनके चेहरे
पर प्रफुल्लित होने के भाव साफ देखे जा सकते थे । और अबतक मिश्रा जी मंच पर
माईक थाम चुके थे । फिर जो हुया उस एक वाकिये का बयान बड़ा ही मौजूं है ।
अनेकों अल्पविरामों और पूर्णविरामों से लबरेज, अपने चिर परिचित और बड़े ही
सधे हुये अन्दाज में मिश्रा जी ने औपचारिक एवं सार्वजनिक रूप से उन
’चापलूसी की चाशनी में डूबी छ्द्म बधाईयों’ को स्वीकार किया । उसके बाद जो
कहा वह जीवन का दर्शन था । मिश्रा जी जो कहा वह उस बाल मन पर अमिट स्याही
से अंकित गया ।
उन्होनें बड़ी ही शालीनता और गंम्भीरता के साथ हमें
बताया कि जन्मदिन का मतलब अवश्यम-भावी मृत्यु से एक वर्ष और निकट होना ।
धरती पर हमारे आवंटित समय का एक साल और कम हो गया । यह दिन वर्ष पर्यन्त
किये अपने कामों की समीक्षा करने का है । और आने वाले दिनों लिये मापदण्ड
स्थापित करने का है । उनके अनुसार जन्म दिन भी वर्ष के अन्य दिनों के समान
ही है । क्या हम उस दिन कोई अलग तरीके से जीवन जीतें हैं ? सुबह उठने से
लेकर रात में सोने तक सब कुछ सामान्य ही तो होता है ! यानि सिर्फ रूटीन ।
इस प्रार्थना सभा के बहुत वर्षों बाद ड़ा@ shobha pandey ने जब राबर्ट
फ्रास्ट की कविता में and miles to go before I sleep, I have promises to
keep से परिचित कराया तो भी उसमें मुझे कहीं न कहीं मिश्रा जी का दर्शन
झलकता दिखायी दिया । और बड़ा हुआ तो विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों
में कुलपतियों को "सत्य में प्रमाद न करो" की दीक्षा देते देखा । भगवान
महावीर की इस शिक्षा में शायद "उत्सव में प्रमाद न करो" को भी जोड़ने के
इरादे का सूत्रपात ड़ा मिश्रा ने बहुत पहले ही मेरे मन में कर दिया था ।
त्योहारों, उत्सवों और जन्मदिवसों पर बहुत ज्यादा उल्लासित एवं प्रफुल्लित
नहीं हो पाने के पीछे शायद यह भी एक कारण हो ? पक्के तौर कह नहीं सकता पर
इस घटना के योगदान को विस्मित कदापि नहीं कर सकता ।
इस दर्शन के
बाद सुबह की प्रार्थना सभा विसरजित हो गयी । अपुष्ट खबरें आती रहीं की उन
चापलूस टाइप मास्टरों की एक क्लास मिश्रा जी ने अलग से ली । और क्लास में
क्या पढ़ाया गया होगा, आप स्वयं समझ सकते हैं । बताना जरूरी है कि इस स्कूल
से सेवा निवृत्त होने के बाद भी मिश्रा जी जीवन भर अपने काम में लगे रहे ।
मेरी जानकारी के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम समय तक वो फर्रूखा़बाद के किसी
उद्योगपति के आई.सी.एस.सी. माध्यम के स्कूल को संवारने में लगे रहे ।
हर वर्ष के भांति इस वर्ष भी अनेकों फोन काल, एस. एम. एस. और अब फेसबुक
सन्देशों का मैं आभारी हूँ । आपके स्नेह और आशीष को सर आखों पर रखता हूँ ।
सिर्फ Sharad Singh का एक सन्देश मिश्रा जी के दर्शन से मेल खाता हुआ सा दिखा । और अगर मुझे सही समरण है तो कुछ समय पूर्व भाई Mukul Srivastava ने भी इससे मिलते जुलते विचार व्यक्त किये थे । शायद Shamoli Sarkar इस घटना की तस्दीक कर सकें । और शायद Pooja Singh एवं Deepshikha Ghose
आदि छात्रों को उनके उस सवाल का जवाब भी मिल जाये, जो कि वे विगत कई
वर्षों से पूछते आये हैं कि मैं उल्लास एवं के उत्सव अवसरों पर बड़े ही सहज
तरीके से व्यवहार क्यों करता हूँ ।
निश्चय ही मिश्रा जी के इस
दर्शन को हर व्यक्ति ने अपने - अपने हिसाब से रिसीव किया होगा और अपने ही
अन्दाज में लागू किया होगा । मैंने इस दर्शन के शब्दों और आत्मा के साथ
आत्मसात का प्रयास जारी रखा है । अन्त में एक गीत जो, इस आलेख के भाव से
मेल खाता हुआ है ।
www.youtube.com/watch?v=ADHapMuxZik
Posted by Sachin Agarwal at 14:36 0 comments
2013-03-11
अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !
अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !
इसी अतिवाद की ओर मैं घ्यान आकृष्ट कराना चाहता हूँ । निरंजन कुमार मण्डल
भी एक बहुप्रचारित बलात्कार काण्ड में आरोपी थे । अब न्यायालय ने उन्हे बरी
कर दिया है । वे एक बार फिर न्यायालय की शरण में हैं कि उन्हे उनका खोया
हुआ सम्मान एवं अस्मिता वापस दिलाया जाये । जिस प्रकार यह काण्ड
बहुप्रचारित था वैसे ही आज दिल्ली बलात्कर (निर्भया) काण्ड भी है ।
सुबह - सुबह दिल्ली बलात्कार काण्ड के आरोपी राम सिंह की आत्महत्या की खबर
आयी और शाम को निरंजन मण्डल की "अस्मिता वापसी की गुहार" की गूंज सुनाई दी
। सही अर्थॊं में अस्मिता खुद लिंगभेद का शिकार हो गयी है । स्त्री की
अस्मिता और पुरुष की अस्मिता का भेद करना सीख गयी है ।
हा !
निरंजन बाकायदा कानूनी रुप से बरी हुआ पर समाजिक रूप से नहीं हो सका । अब
स्त्री की अस्मिता का सवाल उठाने कहाँ हैं ? क्या पुरुष की अस्मिता का कोई
मोल नहीं हैं । क्या निरंजन की पत्नी और उसकी लड़कियाँ कभी भी एक सामान्य
समाजिक जीवन जी पायेंगी ? शायद वह भी महिलायें ही हैं ? तो उनकी अस्मिता का
मूल्यांकन ही किया जाये ?
उस महिला को क्या सजा हुयी जिसने निरंजन पर यह आरोप लगाया होगा ? यह कोई सोच रहा है क्या ?
राम सिंह की आत्महत्या पर मै सुबह से आ रही प्रतिक्रियाएं देख रहा हूँ ।
निश्चय ही सबको अपने विवेक से प्रतिक्रिया देने का अधिकार है । पर अधिकांश
प्रतिक्रियाएं यह रही कि मर गया तो अच्छा हुया । न्यायालय का काम हल्का हुआ
। बाकी भी मर जायें तो और भी ठीक होगा ।
जिस देश में न्यायिक
प्रक्रिया से दण्डित किये गये अफजल गुरू की फांसी पर सवाल उठाये गये और
मानवाधिकारों की बातें निकली । उस देश में एक लिंग विशेष के लिये यह
असंवेदनशीलता चिंतनीय है ।
मीडिया और पुलिस की कहानी से कोई
अपराधी नहीं हो जाता । अगर सभी फैसले न्यायालय के बाहर "ब्रेकिंग न्यूज"
वालों के द्वारा और अतिवादी विचारधारा से किये जाने हैं तो फिर "वी वान्ट
जस्टिस" का क्रुन्दन बेमानी है ।
आपना फैसला आप खुद कीजिये ।
लिंगभेदी अतिवाद का नाश हो !
************************************************
संदर्भ :
Return my dignity, man absolved of rape asks SC
ByDhananjay Mahapatra, TNN | Mar 11, 2013, 12.18 AM IST
http://timesofindia.indiatimes.com/india/Return-my-dignity-man-absolved-of-rape-asks-SC/articleshow/18898781.cms
\NEW DELHI: In a heart rending plea, a person acquitted of rape charges has moved the Supreme Court seeking restoration of his lost dignity and honour.
If the Nirbhaya case sensitized politicians, police, judiciary and media on security of women as well as not revealing the identity of a rape victim, the man who was acquitted in the similarly sensational
Mayapuri rape presented to the court how a person framed in a sexual
assault case faced ignominy and was treated with suspicion by society
and police.
Niranjan Kumar Mandal, who spent four years in jail before being set free, told the court that he was treated as an outcast even after his acquittal.
The 2006 Mayapuri rape
had shocked the capital as a hearing and speech impaired pregnant woman
was sexually assaulted in a moving car. The petitioner, who was running
a diagnostic centre, was in jail for more than four years before a
trial court acquitted him.
Appearing for the petitioner,
advocate Wills Mathews argued before a bench of Justices Aftab Alam and
Ranjana P Desai on Friday that his client was not against media
publishing news about his arrest as they were discharging their
professional duty on the basis of information provided by the police.
"However, the petitioner is impleading some of the most reputed
newspapers and the Press Council of India to explore the possibilities
of helping/assisting the petitioner to put his life back on track,"
Mathews said. The bench issued notice to several newspapers and TV
channels.
Mandal said no newspaper or TV channel reported his
acquittal. This resulted in a situation where residents of his locality
still believed he was guilty and no one spoke to him or his family
members.
He said his children were bright students but since
his arrest, they were treated differently by society and neighbours
prevented their children from mixing with his kids. "My wife and
children suffered a lot of humiliation and suffering, seriously
affecting their life and education," he added.
"Everyone is
looking down upon the petitioner taking him to be the one who brought
disgrace to the locality. The residents of the locality still believe
that the petitioner had committed the heinous crime and that he was
released after completing the jail term awarded to him as punishment,"
the petition said.
Mandal said after acquittal, he felt as if
he was pushed into a bigger jail. "After the acquittal, I had great hope
of getting back to the mainstream. But I gradually found that there was
nothing to be happy about. All the machinery and equipment of my
diagnostic centre had rusted. Neighbours looked with suspicion and never
allowed their children to mix with my children," he said.
The
petitioner requested the court to find a way out to restore his lost
dignity and respect in society. "The action of the media in telecasting
or publishing the news connected with the petitioner's arrest in
Mayapuri rape case was based on the police version and was neither
willful nor deliberate. But the poor petitioner seeks to live with
dignity and honour," Mandal's petition said.
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2013-03-10
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
जौनपुर | 07 मार्च 2013
वर्ष 2006 के नवम्बर माह में लखनऊ विश्वविद्यालय के अकादमिक
स्टाफ कालेज में एक ओरियन्टेशन प्रोग्राम में मैंने सहभागिता की थी । इसके एक सत्र
का व्याख्यान करना यहाँ वस्तुसंगत है । महिला मुद्दों पर संवेदनशीलता बढ़ाने के लिये
आयोजित उस सत्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में कार्यरत महिला अध्ययन के मनीषी प्रो. राकेश
चन्द्रा ने एक प्रयोग कराया । कक्षा में मौजूद सहभागियों में से एक पुरुष और एक महिला
को मंच पर बुलाकर उन्होने महिला के दुपट्टे से उसकी आंखो पर कसकर पट्टी बांध दी और
पुरुष को उसके दुपट्टे का दूसरा सिरा पकड़ा कर उन दोनों को कक्षा में घूमने के लिये
कहा । शर्त यह भी थी कि महिला का हाथ पकड़ कर नहीं घूमना था, परन्तु बोल कर रास्ते के बारे में
बताया जा सकता था । अब पुरुष सहभागी ने बार - बार महिला की ओर देखते हुये घूमने का
प्रयास किया ।
चूंकि महिला इस समय देख नहीं सकती थी इस कारण पुरुष सहभागी
का ध्यान इस ओर ज्यादा था कि कहीं घूमने के दौरान महिला को कोई चोट न लग जाये । वह
उसे लगातार रास्ते में आने वाली रुकावटों (जैसे सीट, बेन्च, मेज, मंच आदि) के बारे में बताता जा रहा था । उसका स्वयं का ध्यान
अपने घूमने के काम को पूरा करने पर कम और महिला सहभागी की सुरक्षा आदि पर ज्यादा था
। यह बात प्रयोग की समाप्ति पर स्वयं उस पुरूष सहभागी ने पू्री कक्षा से साझा की ।
इस प्रयोग की समाप्ति पर प्रो. चन्द्रा के व्याख्यान
का सारांश भी कुछ इसी प्रकार था । उनके अनुसार जब महिला की देखभाल की जिम्मेदारी (प्रयोग
में महिला की आखें बन्द कर दुपट्टे का दूसरा सिरा पुरुष को पकड़ाना इसका प्रतीक था ।)
किसी और पर थी तो एक पक्ष यह रहा कि उसकी किसी और पर निर्भरता बढ़ी थी परन्तु साथ ही
दूसरा पहलू यह भी रहा कि पुरुष भी अपनी जिम्मेदारी के बोध से दबा हुया था । साथ ही
वह अपने काम (कमरे के चक्कर लगाना) को करने में अपना पूरा ध्यान नहीं केन्द्रित कर
पा रहा था । इस प्रयोग के निहीतार्थ कहीं न कहीं यह थे कि अगर महिला और पुरुष अपने
- अपने कामों को स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्भरता के साथ अंजाम देते हैं तो दोनों को सफलता
अलग - अलग मिलेगी । एक दूसरे पर अनावश्यक निर्भरता नहीं रहेगी । इसके साथ ही इस प्रयोग ने एक बहुत बड़े मिथक पर प्रहार
भी किया कि महिला की बागडोर अपने हाथ में आने पर पुरुष सिर्फ इसे अपनी जागीर मान कर
प्रयोग करता है । दायित्व बोध के जिस तत्व की ओर यह प्रयोग इशारा कर गया उसे हम सामाजिक
जीवन में भी विस्मित नहीं कर सकते । इस कक्षा में @mukul
srivastava और @ isht vibhu भी मौजूद थे । अगर इस प्रयोग के व्याख्यान
और आत्मा को समझने में मुझसे कोई त्रुटी रह गयी हो तो वे कृपया मुझे सही करेंगे ।
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे मन में जो द्वन्द है
उसे सामने लाने के लिये इस प्रमाणिक घटना को साझा करने के साथ ही प्रलाप शुरू हो जाता
है । वर्तमान देश - काल में महिला के हितों और उत्थान की बातें चारों ओर से उठती दिखती
है । क्या देशी और क्या अन्तराष्ट्रीय ? सभी ओर से चिर काल से ’अबला’ रही नारी को सबला बना कर ’आगे बढ़ने’ की बात की गूंज है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि यह आलेख किसी के उत्थान
के विरोध में नहीं है अपितु इस उत्थान के मिशन में पनप रहे अतिवाद को उजागर करने के
लिये एक प्रयास जरूर है ।
प्रो. चन्द्रा के उसी व्याख्यान में जो सीखा उसके सहारे
आगे बढ़ने का प्रयास करता हूँ । एक विचार बहुधा व्याप्त है कि पुरुषों ने महिलाओं पर
बहुत अत्याचार किये हैं और नारी उसे युगों - युगों तक चुपचाप मुहँ दबाए सहती रही ।
और अब पुरुषों से बदला लेने का समय आ गया है । सभ्य समाज में, जिसके अन्य तौर तरीकों के साथ - साथ सबसे ज्यादा जोर, एकतरफा कानून बना कर उस युग
पीड़ित "बेचारी नारी" को सशक्त करने के प्रयास पर रहता है । कमोवेश मैं इन
दोनों से ही इत्तेफाक नहीं रहता ।
यह बिलकुल वैसे ही है, कि दलितों पर सवर्णों ने
जाति प्रथा के अंतर्गत अत्याचार किये । एकतरफा कानून के सहारे दलितों का उत्थान करने
के प्रयास बहुत ज्यादा सफल होते नहीं दिखते । इससे एक वर्ग विशेष के मन में भय का वातावरण
तो बनाया जा सकता है पर वृहद स्तर पर समाज को कोई नयी दिशा या मानसिकता में अन्तर शायद
ही आया हो ? समाज में इस प्रकार के भय
का व्याप्त होना भी किसी सुसुप्त ज्वालामुखी से कम नहीं है । एक वर्ग को summarily convict मान कर किया गया कोई भी affirmative
action समाज
में और ज्यादा विभेद और कटुता पैदा करेगा । इस प्रकार के कानूनी उपायों के सफल होने
में मुझे सन्देह है । ठीक यही बात महिलाओं को केन्द्र में रखकर बनाये गये एकतरफा कानूनों
के सन्दर्भ में भी लागू होती है । Affirmative Action का यह तरीका समाज को, जो लाभ देगा उससे ज्यादा
समाजिक विचलन पैदा करने की सम्भावना रखता है । यह सोंच ही त्रुटिपूर्ण है कि यदि एक
का भला करना है तो दूसरे का बुरा करना ही पड़ेगा । यह विचार किसी समाज के समग्र उत्थान
और विकास की अवधारणा के विरुद्ध है ।
नेशनल क्राईम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि
विवाह के संस्था में आत्महत्या कर
मरने वाले पुरुषों की संख्या लगातार महिलाओं से ज्यादा
रही है । और इसका अन्तर भी काफी है । वर्ष 2010 के दौरान 61,453 विवाहित पुरुषों ने
आत्महत्या की जबकि 31,754 विवाहित महिलाओं ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निर्णय
लिया ।
विस्तृत आकड़े और टिप्पणियाँ इस वेबसाइट पर देखें जा सकते
हैं ।
http://www.rediff.com/news/report/ncrb-stats-show-more-married-men-committing-suicide/20111028.htm
कारण अनेक हो सकते हैं पर समाज में फैलती यह सोच घातक
होती जा रही है कि प्रत्येक पुरुष, महिलाओं के प्रति एक सम्भावित (potential) अपराधी है । और इस अपराघी से निपटने के लिये विशेष, कड़े और एकतरफा कानूनों की आवश्यकता है । ऐसे कानून जिसमें, बिना सुनवाई के, किसी महिला के कह देने मात्र से ही
पुरुष को अपराधी मान लिया जाये । समाज और उसकी सोंच पर ऐसे कानून दीर्धकालीन प्रभाव
डालेगें । सिर्फ एक उदाहरण से इस बिन्दु को समाप्त करना चाहूँगा कि हत्या पर कानून
जग व्याप्त है । पर क्या इस कानून के होने मात्र से ही देश में हत्याएं होना बन्द हो
गयी ?
एक तरफ तो बराबरी का हक और समता की बातें और दूसरी तरफ
विशेषाधिकार की ! मामला पेचीदा है | मौजूदा कानूनों में क्या कमी है जो और नये कानून बना कर पूरी
कर ली जायेगी ? विषेशाधिकारों की यह चाहत
अन्य जगहों पर भी परिलक्षित होती है । जैसे कि, जब पचास आदमी लाईन में लगे
हों और एक महिला सबको धता बताते हुये सीधे आगे पहँच कर अपना टिकट लेने में कामयाब हो
जाये - तो कैसा अनुभव होता है ? इस विशेषाधिकार का आधार भी लिंगभेद
ही है । क्या पुरुषों का समय कीमती नहीं है ? इस बारे में और ऐसे अनको
प्रकरणों पर किसी नारी वादी संगठन ने कभी आवाज बुलन्द क्यों नहीं की ? समता और विशेषाधिकार एक साथ कैसे समाहित हो सकते हैं ?
इस पर कानूनविद
अभी माथा-पच्ची
कर रहे हैं । पर इस प्रश्नवाचिका पर कोई उत्तर समाज के मंथन से ही निकलेगा ।
सही मायनों में कानून और व्यवस्था को लिंग भेदी नहीं
होना चाहिये । जैसा कि किसी भी सभ्य समाज की आवश्यकता भी है और संविधान की अवधारणा
भी । जो हर कानून के साथ हो वही बलात्कार के कानून के साथ भी क्यों नहीं हो सकता ? इसे gender - neutral अपराघ बनाने पर विरोध समझ से परे
है । विश्व के तमाम देशों में ऐसी व्यवस्था है । यह वही देश हैं जिनकी ओर उत्थान और
विकास के सफलतम माडल के लिये देखा जाता है ।
साहित्य समाज का दर्पण है । इस बात पर मेरा बहुत यकीन
है । फिल्में भी साहित्य हैं - इस बात में किसी मनीषी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये
। एक फिल्म आयी थी - ऐतराज । मुख्य पात्र थे अक्षय कुमार,
करिश्मा कपूर, प्रियंका चोपड़ा । कथानक का सारांश यह रहा कि फिल्म में प्रियंका चोपड़ा पर अक्षय
कुमार पर यौन हिंसा / आक्रमण / बलात्कार का आरोप बाकायदा न्यायालय में सिद्ध हो जाता
है । जिसके बाद अक्षय कुमार को उसकी नौकरी वापस मिल जाती है । मेरा ऐतराज इस बात पर
है कि प्रियंका चोपड़ा को कोई सजा क्यों नहीं सुनाई गयी ? जो अपराध पुरुषों के लिये
सजा का प्रावधान रखता है उसमें महिला के लिप्त पाये जाने पर न्यायालय उसे सिर्फ चेतावनी
देकर क्यों छोड़ देता है ? यौन स्वछंदता और लिव-इन सम्बन्धों के इस युग में भी सिर्फ पुरुषों
पर ही ऐसे अपराघों का ठीकरा फोड़ना भी निष्पक्ष न्याय की अवधारण से विचरण है । और इस बाबत कानून में प्राविधान का विरोध एक बार
फिर अठाहरवीं सदी के कानूनों को ही जन्म देगा ।
बहुत विरोध प्रदर्शन होता है कि मुन्नी, शीला, चमेली ब्राण्ड के आईटम नम्बर महिलाओं को गलत अर्थों में पेश
करते हैं । पर रील लाइफ में मुन्नी, शीला, चमेली आदि का किरदार निभाने वाली उन अभिनेत्रियों का कोई विरोध कभी रीयल लाइफ में
सुनने में नहीं आया । इन अभिनेत्रियों ने करोड़ो रुपये कमाये, यह मुद्दा किसी ने नहीं उठाया
। अगर वास्तव में इन अभिनेत्रियों का सामाजिक बहिष्कार हो जाता तो शायद ऐसे आईटम नम्बर
आने बन्द हो जाते । या कोई अभिनेत्री इन आईटम नम्बरों से हुयी अपनी करोड़ो रुपये की कमाई किसी महिला उत्थान के संगठन
को दान करके, समाज के सामने प्रण करती कि आईन्दा ऐसा कोई गाना नहीं
शूट करूंगी । इन गानों का विरोध का सही तरीका यही होगा । और इन अभिनेत्रियों को किसी
भी टी.वी. कार्यक्रम में नहीं बुलाने का ऐलान होता । साथ ही स्कूल - कालेज की लड़कियाँ
इन करोड़ो रुपये की स्वामिनि और महान मुन्नीयों, शीलाओं, और चमेली देवियों के आटोग्राफ लेने के लिये एक - दूसरों
को कुचलने के लिये तैयार न रहती । तब शायद विरोध प्रतीकात्मक न होकर वास्तविक होता
। कोई सिनेमा घर तोड़ने से, इसके मालिक का तो नुकसान हुआ पर समाज
का कोई फायदा नहीं हुआ । याद रहे, मुन्नी देवी, शीला देवी और चमेली देवी को उनको करोड़ों रुपये फिल्म के जारी होने से पहले ही मिल
चुके होते हैं । और यह अभिनेत्रियाँ स्वयं भी महिलाएं ही हैं । शायद । इतने प्रतीकात्मक
विरोध के बाद भी अगर यह धनकुबेर अभिनेत्रियाँ आईटम नम्बर करने से परहेज नहीं कर रही
हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि विरोध करने वालों का महिला उत्थान का मन्त्र अभिनेत्रियों
के पारिश्रमिक के सामने सस्ता एवं कमजोर पड़ता जा रहा है ।
जब इस लाइन पर बात होने लगे तो व्यक्तिगत आजादी और चुनने
के अधिकार का प्रश्न भी खड़ा होता है । यह तर्क इस पूरी बहस को एक नये आयाम की ओर मोड़ता
है । जिसका की तार्किक पहलू भी यही है कि चुनने का अधिकार जितना महिलाओं को है उतना
ही पुरुषों को भी है । विराम ।
जो विशेषाधिकार कानून मौजूद हैं उनके दुरुपयोग और विचरण को देश में बहुधा महसूस किया
गया और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इसके बारे में खुलकर बेबाक टिप्पणी की । दहेज प्रतिषेध
कानून इसका ज्वलंत उदाहरण है । क्या ऐसे कानूनो से हमें सबक नहीं लेना चाहिये ? कितने बेगुनाहों को प्रताड़ित होना पड़ा ? इस पर भी एक सर्वे और अध्ययन होना चाहिये । समय की जरूरत है कि आज स्त्री को ’अबला’ के स्टीरियो टाइप फ्रेम से बाहर निकाल कर देखा जाये । एक तरफा
सोंच से काम करने का नुकसान ज्यादा होगा, फायदा कम ।
इस लेख के शीर्षक में प्रलाप शब्द का प्रयोग है क्योंकि
जिस प्रकार का समाजिक वातावरण महिला उत्थान एवं इससे जुड़े विषयों पर आज देश में बना
हुआ है उसमें यह बातें अभी हाशिये पर हैं । इस कारण नारीवाद के झण्डाबदरों से इसे एक
प्रलाप मात्र से ज्यादा की संज्ञा भी मिल पाना शायद मुमकिन हो । या यूँ कहे कि पुरुष
की भी दुश्वारियाँ हो सकती है - इस बात को मानने के लिये समाज में बहुत से लोग तैयार
नहीं होगें । मर्द को दर्द नहीं होता है - टाइप के विचार हमारे भीतर ठूंस - ठूंस कर
भरे जाते हैं । पुरुषों को दर्द भी हो सकता है और वो व्यथित भी हो सकते हैं - यह बात
अभी स्वीकार्यता की मुख्यधारा में नहीं है । इसलिये शायद अपने समय से पूर्व जारी हो
रहे इन विचारों को प्रलाप मान कर भी स्थान मिले तो इनकी सार्थकता होगी ।
Posted by Sachin Agarwal at 01:06 0 comments
2013-02-16
शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर
शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी 2013
विश्वविद्यालय में आयोजित आज के षष्टम दसवें दीक्षान्त
समारोह के बाद जो मनोविचार मेरे मन में उठ रहे हैं उन्हे अब साझा किये जाने
का समय आ गया है । बेशक युवाओं के प्रति आशावादिता और देश की बेहतरी की आस समाज के
लिये शुभ संकेत हैं । किसी भी राष्ट्र के लिये यह सुखद अहसास होना चहिये कि आगामी समय
को लेकर समाज आशान्वित है । पर आज का प्रश्न है कि शिक्षा के समावर्तन पर जो शपथ दिलायी
जाती है उसे बिसरा क्यों दिया जाता है ? जिसकी ओर इशारा जस्टिस वर्मा
ने किया ।
इस बात को सिर्फ विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों
के परिपेक्ष में न देखकर, बल्कि एक बड़े दायरे में देखे जाने
की जरूरत है । यानि इसको अन्य सभी संस्थाओं से निकलने वाले अभ्यर्थियों के सम्बन्ध
में भी देखा जाना चाहिये । उदारहण के लिये डाक्टरों की हिप्पोक्रेटिक शपथ के सम्बन्ध
में । प्राय: वकीलों, पुलिस वालों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को भी किसी न किसी प्रकार शपथ दिलायी जाती है । इस प्रश्न
को विद्या अर्जन के समय और उसके तुरन्त बाद समाज की बेहतरी के लिये काम करने के जस्बे
के कुछ समय बाद कम होने के कारणों के मूल में जाकर हल करने की आवश्यकता है ।
यहां शेक्सपीयर का जूलियस सीज़र में यह कथन उद्वरित होता
प्रतीत होता है कि "शपथ कमजोरों का हथियार है ।" क्यों नहीं हम अभ्यर्थियों को बिना किसी शपथ के
ही उनके जीवन में अग्रसर होने दें और उन्हे क्या करना है,
क्या नहीं
- उसका फैसला उन्हे स्वयं करने दें । तभी
"या विद्या सा विमुक्तये" का भाव सच्चे अर्थों में सामने आ पायेगा । और साथ
ही किसी शपथ को विस्मित कर देने के अपराध बोध से भी लोगों को मुक्ति मिलेगी । कोई भी
शपथ, विद्या अर्जन के मूल उद्देश्य स्वयं के विवेक से एवं आत्मबल
के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करती है । इस समरोह में छात्रों को जोर
- शोर से इस बात की शपथ दिलायी जाती है कि वे उसी प्रकार का आचरण करेंगे जो कि समाज
में पूर्व से ही निर्धारित कर दिया गया है । बताया गया है कि “महाजनेन गत: सा पंथ:” । यानि बनी - बनायी लकीर
पर चलोगे - इसका वादा करके जाओ । यही आदेश है और यही उपदेश भी है । क्या इसका अर्थ
यह निकला जाये कि जो हो चुके वही महापुरुष होंगे, अब तुम महापुरुष बनने के चक्कर में न पड़ना ? मेरा मन इस बात से अन्दर से कराह
रहा है ?
गुस्ताखी माफ ! पर यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं
बल्कि पूरी व्यवस्था पर है । क्या ऐसा वादा करने से मौलिकता का हनन और नवीन विचारों
का संकुचन नहीं होता है ? यह अलग बात है कि अधिकांश विद्यार्थी
इसे डिग्री लेने के लिये मात्र एक रस्म अदायगी ही मानते हैं । इस बात की इमानदारी से
तस्दीक नहीं होती दिखती । असल जिन्दगी मंचों और समारोहों से अलाहिदा होती है या यूँ
कहें कि हम असल जिंदगी का समारोहों और मंचो के साथ सामन्जस्य नहीं बैठा सके हैं ।
विचारों के उद्वेलन की बात तो सबको भाती है पर उस उद्वेलन
के क्रियान्वन, यदा - कदा दिल्ली बलात्कार कांड जैसी किसी घटना के बाद
ही दिख पाता है । भगत सिंह की जरूरत समाज को हमेशा से रही । पर सभ्य समाज का अभिजात्य
वर्ग यह कह कर अपना दामन छुड़ाता रहा कि भगत सिंह किसी पड़ोसी के यहाँ पैदा हो तो अच्छा
है । किसी को इस बारे कुछ करना चाहिये । पर हम कुछ नहीं करेंगें । व्यवस्था के साथ
हमारे सुविधावादी संतुलन को कोई हानि न पहुँचे ।
भले ही सार्वजनिक मंचों से लोकतन्त्र और इसके मूल्यों
के रहनुमायी की बातें की जाती रही हों पर सच्चाई थोड़ी कड़वी है । राज्य का रवैया भी
लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी में खड़े होने वालों के प्रति सकारात्मक न होकर अपितु
ऋणात्मक ही रहा है । जिसमें पहले इन पहरेदारों को अपने सुविधावादी संतुलन में शामिल
करने के प्रयास किये जातें हैं । यदि इनमें
सफलता नहीं मिली तो राज्य दमनात्मक रवैया अपनाने से भी नहीं चूकता है । क्या अंग्रेज, क्या हिन्दुस्तानी ? इस बात पर सभी एक ही नाँव में सवार
दिखतें हैं । या तो सत्ता वर्ग की मानों या परिणाम भुगतो । शायद इसी कारण से बहुधा
जन आन्दोलन एक समय के बाद या तो हताशा का शिकार हो ठप्प हो जातें हैं या फिर राज्य
से विश्वास उठने के बाद हिंसक तक हो जाते हैं ।
पूरे विश्व के साथही भारत में भी एक नये युग का आगमन
हो रहा है । इस युग में लोग सूचना क्रान्ति के दम पर एक दूसरे लगातार जुड़े हुये हैं
। यह वही युवा वर्ग है जो दिल्ली में जन्तर मन्तर पर और इण्डिया गेट पर नजर आया । यहाँ
भले ही लोग एक दूसरे को व्यक्तिगत रुप से न जानते हों पर उद्देश्यों की समानता के आधार
पर इस आभासी दुनिया में बड़ी तेजी से परिचय होता है । जोकि जरूरत पड़ने पर असल दुनिया
में अवतरित भी होता है । और पुन: अपनी आभासी दुनिया में विलुप्त हो जाता है । इसलिये
यह कहना कि वे लोग एक दूसरे को जानते नहीं थे, शायद सही नहीं होगा । उनकी
पहचान अपने उद्देशयों की समानता के आधार पर सदा बनी रह सकती है ।
आगामी समय में सत्ता वर्ग को इस प्रकार के अन्य आंदोलनों
के लिये भी अपनी कमर कसनी पड़ सकती है । यही नये भारत की उम्मीद है । यही देश की आशा
है । और हाँ, इन सब के लिये किसी शपथ की जरूरत नहीं पड़ती दिखती है
। और न ही किसी विश्वविद्यालय के किसी पाठ्यक्रम में आन्दोलन करना सिखाया जाता है ।
*****
Posted by Sachin Agarwal at 00:09 0 comments
2013-02-15
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी,
2013.
वसन्त आगमन पर हर्ष, प्रेम और उल्लास का पर्व
वसन्त पंचमी, ज्ञान के उत्सव का पर्व भी है । आज के ही दिन माँ सरस्वती
के अनुष्ठान का भी विधान है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर स्थित वीर बहादुर सिंह
पूर्वांचल विश्वविद्यालय का दीक्षान्त समारोह माँ सरस्वती के इसी पावन पर्व पर ही मनाया
जाता रहा है । विश्वविद्यालय का सोलहवाँ दीक्षान्त समारोह 15 फरवरी 2013 दिन शुक्रवार
को विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुया ।
सामान्य रूप से दीक्षान्त समारोह किसी भी विश्वविद्यालय
के लिये एक वार्षिक उत्सव के समान होता है । आज के दीक्षान्त समारोह पर कुछ कहने से
पहले @ sashi kant tripathi के शब्द,
जो मुझे स्मरण
हो रहे हैं, आपसे साझा करना चाहूँगा । कुछ वर्षों पहले एक दीक्षान्त समारोह के बाद विश्वविद्यालय
की समीक्षा बैठक में इन्होने कहा था कि वास्तव में दीक्षा का कभी अंत नहीं होता । विश्वविधायल
के दीक्षान्त समारोहों में भी कुलपति दीक्षा के लिये स्वीकार किये गये अभ्यर्थियों
को यही आदेश और उपदेश देतें हैं कि वे आजीवन स्वयं को इस दीक्षा के योग्य प्रमाणित
करते रहें । त्रिपाठी के अनुसार वेदों आदि में इस संस्कार के लिये समावर्तन संस्कार
आयोजित कराने की व्यवस्था है । इसलिये उनका सुझाव था कि विश्वविद्यालय भी अपने कार्यक्रम
का नाम आगे से ’समावर्तन संस्कार समारोह’ कर ले तो बेहतर होगा । पर
चूंकि मूलत: हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो कि बनी बनायी लकीरों का अनुसरण करने में
ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है इसलिये त्रिपाठी का यह सुझाव भी उस समीक्षा बैठक से
आगे न बढ़ सका । बताते चलें कि अंग्रेजो द्वारा लादी हुयी गाउन (वह वेषभूषा जो कि इस
समरोह में शोभा यात्रा के लोग धारण करते हैं।) को भी हम तब तक नहीं हटा सके जब तक की
पूर्व राष्ट्रपति प्रो. कलाम ने इसकी शुरुआत नहीं की । और उसके बाद मानों हर तरफ से
अंगेजियत के इस चिन्ह को उखाड़ फेंकने की होड़ सी मच गयी । वैसे मैं अपनी जानकारी बढ़ाने
के लिये मैं यह जरूर जानना चाहूँगा कि इस अवसर पर शोभा यात्रा क्यों निकाली जाती है
और इसकी शुरूआत कैसे हुयी ? गाउन आदि का क्या महत्व है ? अगर आप में से कोई बता सके तो उसका आभारी रहूँगा ।
अब आज के दीक्षान्त समारोह पर आते हैं ।
समारोह विश्वविद्यालय के सर्वेसर्वा कुलाधिपति महोदय
की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । जिसमें की ख्यातिलब्ध न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा ने मुख्य अथिति के रूप में शिरकत की । हाल ही में
दिल्ली बलात्कार कांड (16 दिसम्बर, 2012) के बाद कानून में संशोधन के
लिये बनी कमेटी के अध्यक्ष की मौजूदगी से, बिना शक विश्वविद्यालय आह्र्लादित
दिखा । मैं यह कहने से बच नहीं पा रहा हूँ कि स्वयं वर्मा साहब भी इस घटना को अपने
जीवन की एक महत्व पूर्ण घटना मानतें हैं । उनके दीक्षान्त
भाषण में भी इस घटना से जुड़े अनुभवों की भरमार रही ।
इस समारोह के सम्बन्ध में विगत कुछ वर्षों में एक परिवर्तन
जो देखने को मिला वह है कि विश्वविद्यलय में अब यह समारोह पहले के मुकाबले कुछ संकुचित
स्तर पर मनाया जाता है । संकुचन के कारण आर्थिक हों या सुरक्षा से जुड़े हो सकते हैं
। पक्के तौर पर कह नहीं सकता । पर हाँ इतना जरूर है कि प्रबन्धन की दृष्टि से यह ज्यादा
सुगम हुया है । सैकड़ों की तादात में पी.एच.ड़ी., परास्नातक, स्नातक आदि के अभ्यर्थियों को दीक्षा एवं उपाधि के लिये
स्वीकार करने के ’आदेशों’ और ’उपदेशों’ बाद दीक्षान्त भाषण हुया ।
जस्टिस वर्मा के इस भाषण को युवाओं पर उनके भरोसे की
अभिव्यक्ति के रूप में देखता हूँ । उनका यह भरोसा हाल ही में प्राप्त उनके अनुभवों
पर आधिरित था । कुछ लोगों के लिये यह एक आंखे खोलने वाला तथ्य हो सकता है, क्योंकि आम तौर पर भारत में युवाओं को कम तरजीह दी जाती है । उन्हे नौसिखिया, कम जानकारी वाला, उदंड आदि जुमलों से नवाज़ा जाता रहा
है । पर बकौल जस्टिस वर्मा उनके लिये 30 दिन के रिकार्ड समय में कानून संशोधन की रिपोर्ट
तैयार करना संभव नहीं होता अगर उन सैकड़ों लड़के - लड़कियों ने उन्हे अपनी बिन मांगी सहायता
न उपलब्ध कराई होती । वे सभी अपने संसाधनों का प्रयोग कर इस कमेटी की मदद में अनवरत
लगे रहे ।
यह एक ऐसा समूह था जिसमें कोई नेता नहीं था । जिसे किसी
नेता ने बुलाया नहीं था । शायद, कोई अपने बगल में खड़े शख्स को जानता
नहीं था पर फिर भी गजब की तारतम्यता थी उनके बीच । उद्देश्यों की तारतम्यता और देश
के लिये विषम मौके पर कुछ कर दिखाने की तारतम्यता । इसी कारण, वर्मा साहब देश की बेहतरी के प्रति आश्वस्त दिखे । क्योंकि अब कमान इन्ही युवाओं
के हाथों में आयेगी ।
आपके भाषण में दिल्ली के आन्दोलन पर भी अपनी राय रखी
गयी । न्यायमूर्ति के शब्दों की आत्मा के साथ अन्याय न हो जाये इसलिये अंग्रजी में
ही कुछ सूत्र वाक्य आपसे साझा करना बेहतर होगा ।
1. Youth coming forward is
an encouraging sign.
2. The pressure of civil
society on the government machinery is expedient from the December 16 incident and the incidents following it.
3. Anger was channalised
to revitalise the democratic institutions and it was different from the one
seen in earleir ones. (Possibly an oblique reference to the Anna / Kejriwal
show where the demand for a particular law making was not taken that seriously
by the governement and eventually did not yield the desired results)
4. Civil Society palys a
role to eradicate gender bias.
इन सूत्र वक्यों के साथ - साथ वे नव दीक्षीत छात्र -
छात्राओं को हिदायत भी दे गये कि आज जो शपथ उन लोगों ने ली हैं वो मात्र एक रस्म अदायगी
न बन के रह जाये ।
इसके बाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति महाहिम श्री बी.
एल. जोशी जी का अध्यक्षीय उद्धबोधन हुया । आपने जस्टिस वर्मा की बातों को उद्वेलित
करने वाला बताया । कार्यक्रम के दौरान छात्र - छात्राओं को स्वर्ण पदक प्रदान करते
समय उन्होनें देश के युवाओं से जो बातें की उसे साझा करते हुये उन्होनें कहा कि मेडल
प्राप्त करने वाला प्रत्येक छात्र उन्हे भविष्य के प्रति आशावान दिखा । उनका छात्रों
के लिये जो सन्देश रहा उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की अलख जगाये रखना भी शामिल था ।
प्रधानमन्त्री और राष्ट्र्पति ने जो बात हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी
सत्र में कहीं थी, उसकी टीस, महामहिम के भाषण में यहाँ भी झलकी । यह कि विश्व के नामचीन 200 विश्वविद्यालयों
में भारत का एक भी नहीं है । शोध का स्तर गिरा है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर टक्कर नहीं
ले सकता है । यह बात आज इस कार्यक्रम में स्वीकृत की गयीं 387 पी.एच.डी. डिग्रियों
पर भी लागू होती है । पर सब कुछ के बाद वे भी भविष्य के प्रति आशावान दिखे कि शायद
आगामी किसी दीक्षान्त समारोह में ऐसा सम्भव हो, जो की वस्तुत: उनके इस विश्वविद्यालय
के उन तीन दीक्षान्त समारोहों में सम्भव नहीं हो सका जिसमें उन्होनें सिरकत की ।
इस कार्यक्रम के प्रारम्भ में विश्वविद्यालय का कुलगीत
गाया गया जिसके बोल कुछ इस प्रकार से हैं :
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल
विश्वविद्यालय का हरितांचल
जय - जय - जय पूरब की आत्मा
जय - जय - जय पूर्वांचल ॥ ....
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Posted by Sachin Agarwal at 23:18 0 comments
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