2013-10-16
गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
पर क्या व्यापार और व्यापारिक शिक्षा समाजोन्मुखी होने को तैयार है ?
विगत गांघी जयन्ती पर विश्वविद्यालय में पद्र्म पुरुस्कार से सम्मानित सुविख्यात
पर्यावरणविद ड़ा अनिल पी. जोशी का व्याख्यान आयोजित किया गया । इससे पहले जोशी साहब
से मेरा परिचय दैनिक हिन्दुस्तान के op-ed page पर प्रकाशित होने वाले उनके
लेखों के माध्यम से था । विश्वविद्यालय को जोशी का अभारी होना चाहिए कि उन्होनें उसी
दिन लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी, मसूरी (आई.ए.एस. आकादमी)
में अपने प्रस्तावित कार्यक्रम के ऊपर विश्वविद्यालय के आमंत्रण को रखा । साथ ही छात्रों और शिक्षकों से बात के लिये समय
दिया ।
उनके व्याख्यान से ठीक पहले एक स्थानीय कालेज के पूर्व प्राचार्य रहे दर्शनशास्त्री
गांघी के महातम पर बोल के चुके थे । और जोशी जी ने यह बात बखूबी पकड़ी की लगभग 500 क्षमता
वाले उस संगोष्ठी भवन में लोगों की गांधी का दर्शन सुनने की कोई खासा इच्छा नहीं थी
। सिर्फ रस्म अदायगी के लिये लोग बाग अपनी उपस्थिति दिखा रहे थे ।
सो उन्होनें एक बहुत बुनियाद बात से शुरू किया कि जिसे भी पानी, हवा और भोजन की जरूरत न हो वो बाहर जा सकता था । उनकी बातें बुनियादी थी, जमीन से जुड़ी और बिना लाग लपेट के । कान के रास्ते दिल में उतरने वाली । जल, जंगल, जमीन के विमर्श में
जोशी ने पहाड़ के पहलू (डाईमेन्शन) को न सिर्फ जोड़ा बल्कि उसे पहचान दिलाने के लिये
सतत संघर्षरत रहे । उनके काम की बानगी http://www.hesco.in/abouthesco.php
पर देखी और
समझी जा सकती है ।
जोशी सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित विकास के प्रचलित माडल को खारिज करते
हैं । उनकी दलील है कि जी.डी.पी. बढ़ाने में जितने प्राकृतिक संसाधन लगते हैं उनकी कीमत
बढ़े हुये उत्पादों की कुल वसूलयाबी कीमत से कहीं ज्यादा हैगी । क्योंकि विकास के नाम
पर इन संसाधनों का जो दोहन हो रहा है उसकी भरपाई नहीं होती है इसलिये हम सस्ते विकास
के चक्कर में पड़कर अमूल्य प्राकृतिक संपदा खोते जा रहे हैं । सीधे शब्दों में बढ़ता
हुआ जी.डी.पी., बढ़ते विकास का और समृद्धि
का द्द्योतक नहीं है । इसलिए विकास को मापने के नये पैमाने खोजने और स्वीकारने होंगे
। और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी और निजी कब्जेदारी रोकनी होगी ।
वास्तव में यह कोई ऐसी बात नहीं है जो पहले न कही गयी हो । बहुत से संस्थान और संगठन इन बातों को उठाते रहे
हैं । सबसे पहले जो उदाहरण मेरे ज़हन में आता है वो मेधा पाटकर का है । नर्मदा नदी
पर बन रहे बांध से होने वाले प्रभावों को पढ़ने के लिये गयी टाटा सामाजिक अध्ययन संस्थान
(Tata Institute of Social Sciences, Mumbai) की यह छात्रा कैसे पढ़ाई के
बीच बांध से प्रभावित जिन्दगियों की आवाज बनी और देश की नामचीन आन्दोलनकारी । मेधा
पर भी विकास - विरोधी होने के आरोप लगे । लम्बी अदालती लड़ाई से भी हारने के बाद भी
जो बात मेधा कहना चाहती थी वो होते हवाते, हिचकोले खाते बढ़ती रही और
बढ़ रही है । जोशी भी शायद उन्ही विचारों के प्रवर्तक हैं । रास्ते जुदा पर मजिंल एक
।
इस परिपेक्ष्य में कहना चाहूँगा कि अपने स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों
में जिस प्रकार की रटंत आधारित शिक्षा हम परोस रहें है उससे तो जोशी-पाटकर स्कूल आफ
थाट्स का भला होता नहीं दिखता । इसका रास्ता भी शायद गांधी की ओर देखने से मिल सकता
है । गांघी ने समग्र विकास (Sutainable Development) का विचार दिया था । इसके
साथ ही अगर समाजिक सम्पदा का 'न्यासी-हित सिद्धान्त' को मिला दिया जाये तो बात बन सकती है । कई आन्दोलनों एवं आन्दोलनकारियों के साथ
काम करने का जो कुछ भी अनुभव मुझे मिला उसमे मैंने सदैव एक सवाल पूछा । वह यह की प्रबंध
शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा (जिससे मैं भी जीविकोपार्जन करता हूँ ) में ऐसा क्या किया
जाय कि जो पाठ आन्दोलनों के माध्यम से कार्पोरेट को जबरिया पढ़ाया जाता है उसे क्यों
न भविष्य के कार्पोरेट को क्लास रूम में ही पढ़ा दिया जाये कि भविष्य में वे सामाजिक
मसलों पर ज्यादा संवेदनशील हों । पर ऐसा कोई संस्थान मिला नहीं । सभी को यह चिन्ता
है कि बाजार की जरूरतों में उनका पाठयक्रम कहीं पिछड़ न जाये ।
किसी दिन अगर मेरा कोई अपना शिक्षण संस्थान हुआ तो उसमें MBA (Sustainable Development) और MBA (Corporate Social
Responsibility) जरूर पढ़ाया जायेगा । और हो सका तो B.Tech.
(Sustainable Development) भी ।
जेम्स बांड की एक फिल्म देखी थी Quantum of Solace. उसकी कहानी भी यही थी कि
दो माफिया गुटों और देशों के बीच संघर्ष चल रहा है । पूरी फिल्म भर जिसे हम समझते रहे
की संघर्ष पेट्रोल को लेकर है वो अन्त में जेम्स बांड ने खोजा की साफ - पीने योग्य
पानी को लेकर था । बताने की जरूरत नहीं की व्यापारिक हित प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा
करने की राह में अग्रसर हैं । खुश तो आज तुम बहुत हो्गे कि अभी पीने को पानी सिर्फ
पानी ही 15 - 20 रुपये लीटर मिल जाता है । और अगर आक्सीजन (प्राण वायु) भी किसी सिलेन्डर
में नाप कर बेची जाये तो ?
Posted by Sachin Agarwal at 01:10 0 comments
Labels: गांधी, बुनियादी बात, समाज
2010-05-10
स्त्री - पुरूष का विभेद सिखाता हमारा सामाजिक ढाँचा और हमारी परवरिश भी
"का मेहारूर हो?" (क्या तुम औरत हो?)
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिला मुख्यालय पर वर्ष 1991 - 1992 में अपने चाचा की शादी में सुना ये जुमला आज लगभग 19 साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है। तब मैं नवीं क्लास में पढ़ता रहा हूँगा। इसका प्रयोग भी एक 16 - 17 साल के लड़के की ’मर्दानागी’ पर कुठाराघात करके उसे शराब पिलाने के लिये उकसाने के लिये तब गया था जबकि इसके पूर्व शराब पिलाने वालों के प्रयास और सारी मान - मनव्व्ल, जो कि लगभग पाँच घण्टे की मेहनत थी, बेकार जा चुकी थी । बरात अपने शबाब पर थी और ’पीछे की पंक्ति’ में कुछ ’मर्द’ लोग बाकी दुनिया से छुप - छुपा के जाम से जाम टकराकर आपस में एक दूसरे को अपनी मर्दानगी का सबूत देते नहीं थक रहे थे । जाहिर है, तब शराब के सार्वजनिक प्रयोग को लेकर समाज आज जितना खुला नहीं था । खैर, कन्या पक्ष में मुझे लेकर या यूँ कहूँ कि मेरी ’मर्दानगी’ को लेकर ये प्रमाण पत्र इस लिये भी माँगा गया होगा कि वर के भतीजे का शराब न पीना कहीं इस बात को द्योतक तो नहीं कि वो नाराज़ हो ? और सारा खेल बिगड़ जाये । या यूँ कहे कि शायद वहाँ ये परशेप्शन रहा होगा कि चूंकि बरात लखनऊ से आयी है इसलिये शराब का सेवन करा कर ही ’मर्द’ बारातियों का स्वागत पूरा माना जायेगा । या जो भी रहा हो वे ही बेहतर समझ सकतें होंगे। मैं सिद्धान्त: शराब न जब पीता था और न अब।
पर यह पूरा प्रकरण मेरे दिमाग तबसे ही समाजिक सोंच को लेकर एक घण्टी सी बजती रही है कि शराब न पीने से मेरे पुरूष होने पर क्या अन्तर पड़ता होगा ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब पीना क्यों पुरूषों के ही एकाधिकार क्षेत्र वाला मामला समझा जाये ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब न पीने वाले क्यों कमतर पुरूष माने जायें? या यूँ भी कह ही डालें कि मुझे (उस वक्त की उम्र को भी ध्यान में रखते हुये) शराब पीकर क्यों यह सिद्ध करने के लिये बाध्य किया जा रहा था कि मैं स्त्री नहीं हूँ? वगैरह - वगैरह ! और न जाने लिंग भेद के इस क्रूर विभेद से जाने कितने ही सवाल मन में उमड़ - घुमड़ कर उस बारात के धूम धड़ाके में कुचल दिये गये और वह किशोर मन मसोस कर "का मेहारुर हो?" कह कर चिढ़ाने वाले उस ’मर्द’ को सिर्फ देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका ।
इस जुमले को कहने वाले ने शायद यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इससे उस लड़्के के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । वे तो बस शादी एवं बारात में व्यस्त और इसके दीर्ध कालीन प्रभावों की विवेचना, मिमांसा करने का उनके पास समय नहीं था ।
इस सोंच की पीछे का सच शायद हमें अपनी परवरिश पर एक नजर डालने से मिल जायेगा। घरों में छोटे बच्चे यदि खेलते हुये अगर चोटिल हो जायें तो उन्हे जिस प्रकार से सांतवना दी जाती है जरा उस पर भी गौर फरमाइये । लड़्कों को सांतवना देते समय मैंने यह जुमला अक्सर कहते हुये सुना है कि, "क्या लड़्कियों की तरह रो रहे हो।" जब बहुत बचपन से ही ’मर्द को दर्द नहीं होता’ वाला विचार हमारे अंतर मन में उतार दिया जाता है तो आखिर हम व्यसकों से लिंग भेदी न होने की कैसे उम्मीद कर सकतें है? अब यहाँ पर भी यह सवाल कम से कम मेरे मन तो उठता ही है कि पीड़ा होने पर रोकर उसे अभिव्यक्त करने का एकाधिकार लड़्कियों या स्त्रियों को ही क्यों मिले? मैं अपने असहनीय दर्द को रोकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकता और यदि ऐसा करूँ तो पुनः घुमा फिरा के वही ताना कि "का मेहारुर हो?" (जो रो रहे हो) ।
आप इस सब पर कैसे रिएक्ट करेगें मैं नहीं जानता पर मेरी मानना है कि यह सब कुछ इतने सहज भाव हो रहा होता है और सामाजिक रूप से इतना ज्यादा स्वीकार्य है कि शायद हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता हो ? ये सिर्फ दो उदाहरण हैं और ऐसे न जाने ऐसे कितने ही अवांछित भेदभाव के बीज हम रोज अपने घरों और समाज में छोटे बच्चों के दिलों -दिमाग में बो रहें हैं। हमही उन्हे सिखा रहें हैं लिंग के आधार भेद भाव करना और फिर ये उम्मीद भी कर रहें हैं कि वे व्यस्क जीवन में ऐसा नहीं करेंगें ।
’जब बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाये?’ वाली कहावत को हम चरितार्थ कर रहें है? क्या हम नहीं सिखा रहें है कि शारब पीकर मर्द बनतें हैं और रो कर, आसूँ बहा कर - औरतें !
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिला मुख्यालय पर वर्ष 1991 - 1992 में अपने चाचा की शादी में सुना ये जुमला आज लगभग 19 साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है। तब मैं नवीं क्लास में पढ़ता रहा हूँगा। इसका प्रयोग भी एक 16 - 17 साल के लड़के की ’मर्दानागी’ पर कुठाराघात करके उसे शराब पिलाने के लिये उकसाने के लिये तब गया था जबकि इसके पूर्व शराब पिलाने वालों के प्रयास और सारी मान - मनव्व्ल, जो कि लगभग पाँच घण्टे की मेहनत थी, बेकार जा चुकी थी । बरात अपने शबाब पर थी और ’पीछे की पंक्ति’ में कुछ ’मर्द’ लोग बाकी दुनिया से छुप - छुपा के जाम से जाम टकराकर आपस में एक दूसरे को अपनी मर्दानगी का सबूत देते नहीं थक रहे थे । जाहिर है, तब शराब के सार्वजनिक प्रयोग को लेकर समाज आज जितना खुला नहीं था । खैर, कन्या पक्ष में मुझे लेकर या यूँ कहूँ कि मेरी ’मर्दानगी’ को लेकर ये प्रमाण पत्र इस लिये भी माँगा गया होगा कि वर के भतीजे का शराब न पीना कहीं इस बात को द्योतक तो नहीं कि वो नाराज़ हो ? और सारा खेल बिगड़ जाये । या यूँ कहे कि शायद वहाँ ये परशेप्शन रहा होगा कि चूंकि बरात लखनऊ से आयी है इसलिये शराब का सेवन करा कर ही ’मर्द’ बारातियों का स्वागत पूरा माना जायेगा । या जो भी रहा हो वे ही बेहतर समझ सकतें होंगे। मैं सिद्धान्त: शराब न जब पीता था और न अब।
पर यह पूरा प्रकरण मेरे दिमाग तबसे ही समाजिक सोंच को लेकर एक घण्टी सी बजती रही है कि शराब न पीने से मेरे पुरूष होने पर क्या अन्तर पड़ता होगा ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब पीना क्यों पुरूषों के ही एकाधिकार क्षेत्र वाला मामला समझा जाये ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब न पीने वाले क्यों कमतर पुरूष माने जायें? या यूँ भी कह ही डालें कि मुझे (उस वक्त की उम्र को भी ध्यान में रखते हुये) शराब पीकर क्यों यह सिद्ध करने के लिये बाध्य किया जा रहा था कि मैं स्त्री नहीं हूँ? वगैरह - वगैरह ! और न जाने लिंग भेद के इस क्रूर विभेद से जाने कितने ही सवाल मन में उमड़ - घुमड़ कर उस बारात के धूम धड़ाके में कुचल दिये गये और वह किशोर मन मसोस कर "का मेहारुर हो?" कह कर चिढ़ाने वाले उस ’मर्द’ को सिर्फ देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका ।
इस जुमले को कहने वाले ने शायद यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इससे उस लड़्के के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । वे तो बस शादी एवं बारात में व्यस्त और इसके दीर्ध कालीन प्रभावों की विवेचना, मिमांसा करने का उनके पास समय नहीं था ।
इस सोंच की पीछे का सच शायद हमें अपनी परवरिश पर एक नजर डालने से मिल जायेगा। घरों में छोटे बच्चे यदि खेलते हुये अगर चोटिल हो जायें तो उन्हे जिस प्रकार से सांतवना दी जाती है जरा उस पर भी गौर फरमाइये । लड़्कों को सांतवना देते समय मैंने यह जुमला अक्सर कहते हुये सुना है कि, "क्या लड़्कियों की तरह रो रहे हो।" जब बहुत बचपन से ही ’मर्द को दर्द नहीं होता’ वाला विचार हमारे अंतर मन में उतार दिया जाता है तो आखिर हम व्यसकों से लिंग भेदी न होने की कैसे उम्मीद कर सकतें है? अब यहाँ पर भी यह सवाल कम से कम मेरे मन तो उठता ही है कि पीड़ा होने पर रोकर उसे अभिव्यक्त करने का एकाधिकार लड़्कियों या स्त्रियों को ही क्यों मिले? मैं अपने असहनीय दर्द को रोकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकता और यदि ऐसा करूँ तो पुनः घुमा फिरा के वही ताना कि "का मेहारुर हो?" (जो रो रहे हो) ।
आप इस सब पर कैसे रिएक्ट करेगें मैं नहीं जानता पर मेरी मानना है कि यह सब कुछ इतने सहज भाव हो रहा होता है और सामाजिक रूप से इतना ज्यादा स्वीकार्य है कि शायद हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता हो ? ये सिर्फ दो उदाहरण हैं और ऐसे न जाने ऐसे कितने ही अवांछित भेदभाव के बीज हम रोज अपने घरों और समाज में छोटे बच्चों के दिलों -दिमाग में बो रहें हैं। हमही उन्हे सिखा रहें हैं लिंग के आधार भेद भाव करना और फिर ये उम्मीद भी कर रहें हैं कि वे व्यस्क जीवन में ऐसा नहीं करेंगें ।
’जब बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाये?’ वाली कहावत को हम चरितार्थ कर रहें है? क्या हम नहीं सिखा रहें है कि शारब पीकर मर्द बनतें हैं और रो कर, आसूँ बहा कर - औरतें !
Posted by Sachin Agarwal at 00:16 0 comments
2010-01-30
भोजपुरी गानों के दो रूप
भोजपुरी भाषा की पहचान बढ़ाने में द्विअर्थी संवादों और गानों का अभूतपूर्व योगदान है | शायद और किसी माध्यम को इतना अधिक सौभाग्य प्राप्त न हो | भोजपुरी भाषा के ऐसे 'संकलन' किसी भी गानों की दुकान में सुलभता से मिल जायेंगे | अभी, हाल ही में सड़क मार्ग से कार द्वारा की गई एक लम्बी यात्रा में भोजपुरी गानों के दो रूप सुनने को मिले | यात्रा के प्रथम चरण में जाते वक्त आजमगढ़ निवासी प्रसिद्ध भोजपुरी गायक बालेश्वर यादव के गाये कुछ गाने सुनने को मिले | ये देख के दिल को कुछ सुकून हुआ की 'नीक लागे टिकुरिया गोरखपुर के' जैसे कालजई लोक गीतों ने बैलगाड़ी और गाँव के भोंपू से एयर- कन्डीशन कारों तक का सफ़र बड़ी सहजता के साथ तय कर लिया | अधिकतर गाने सामजिक समस्याओं पे कटाक्ष थे | जिसमे युवकों और युवतियों के हीरो और हिरोइन बनने के लिए मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर दु:ख व्यक्त किया था | इस गाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं की बहुतायत से मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर गायक के मन की टीस भी झलक रही थी | बालेश्वर ने इसे बुराई बताने के लिए लड़के और लड़कियों के साथ घटने वाली 'घटनाओं' का अलग - अलग हवाला देते हुए अपनी बात उस भोजपुरी लोकगीत में रखी | एक अन्य गाने में इसी गायक द्वारा युवाओं (लड़के) के द्वारा कालेज के समय में किये जाने वाले उदंड व्यवहार का व्यख्यान किया गया था | लेट उठना, कपडे ठीक से न पहनना, लडकियाँ छेड़ना, कालेज में फर्नीचर को तोड़ना आदि | सुनकर 'द्विअर्थी' भोजपुरी गानों का एक दूसरा ही अर्थ एवं स्वरुप सामने आया |
यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |
कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |
यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |
कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |
Posted by Sachin Agarwal at 02:12 0 comments
Labels: जीवन, दिल, द्विअर्थी गाने, भोजपुरी, समाज
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