दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है,
ज्यादा तालीम ने इंसा को कमजोर बनाया है |
बंद करो ये स्कूल, कालेज, मदरसे,
जिसने सिर्फ दो रोटी कमाने का फलसफा पढ़ाया है |
न रही रहनुमाई, न नुमाइंदे, न नुमाइंदगी
बस धक्कम-पेल जम्हूरियत का चक्का घुमाया है |
कुछ दरक गये, कुछ दरक रहें हैं
जिन पर था मेरी कश्ती खेने का दारोमदार
उन्होंने ही उसे छिछले पानी में डुबाया है |
चार हर्फ़ क्या पढ़ लिए,
दो जून की मशक्कत में चल दिए,
भुला दिए साथी, सरोकार और मुल्क
फिर इस कमीनगी को
'नयी आबो हवा' का जामा पहनाया है |
कभी सोंचा, जब दरक जायेंगे सब
कौन, किसको, क्या मिल जाएगा
होगी पास शायद बहुत सी दौलत
बस और क्या ?
क्या नहीं हमने
इस गुलामी का परचम खुद फहराया है |
दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है
ज्यादा तालीम ने हमें कमजोर बनाया है |
2010-02-21
दरकते दरख्तों ने
Posted by Sachin Agarwal at 01:59 0 comments
2010-02-10
इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से रिफंड दिलाने के नाम पर ठगी का मंसूबा
इंटरनेट ने सूचना में क्रांति ला दी है और अब ये क्रान्ति ग़दर मचाने की राह पर चल पड़ी है |
आन - लाइन लाटरी में बिना कोई टिकट खरीदे या बिना दांव लगाए करोड़ों डालर जीतने वाले इ-मेल आप सभी को मिल चुकें होंगे | और झूठा ही सही एक फिल-वक्त का सकून तो दिल को मिलता ही होगा जब आप को सूदूर अफ्रीका या यूगांडा के बैंक का अधिकारी आपके ईमानदार होने की दुहाई देते हुए यह बताता होगा कि उसके बैंक में करोड़ों डालर की ऐसी रकम है जो कि वह अपने देश से निकाल कर आपके बैंक खाते में भेजना चाहता है | पर हाय ! उसे यह रकम भेजने के लिए प्रक्रिया शुरू करने के लिए कुछ रकम चाहिए जो कि आपको उसके बताये बैंक खाते में (हो सकता है कि वो बैंक खाता भारत में ही हो ) डालनी होगी| इस रकम का प्रयोग करके अगला बड़ी इमानदारी से बेईमानी को इमानदारी साबित करने वाले कागजात बनवाएगा और फिर आपको सारी रकम भेज देगा | आप चाहें तो यह रकम जो आपने भेजी होगी उसे 'उसके हिस्से' से काट कर उसके भारत आने पर उसे सौंप दें |
अब आप किससे ठगना पसंद करेंगे | देशी या विदेशी | या ग्लोबलाइजेशन के दौर में भेद - भाव की बात न करें |
Posted by Sachin Agarwal at 20:37 0 comments
2010-01-30
भोजपुरी गानों के दो रूप
यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |
कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |
Posted by Sachin Agarwal at 02:12 0 comments
Labels: जीवन, दिल, द्विअर्थी गाने, भोजपुरी, समाज
2009-12-25
मुद्दा बंटवारे का !
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Labels: Events, Students, University, मुद्दा बंटवारे का, संस्मरण
2009-12-21
दान की बछिया के दांत गिनने की कला, उत्कृष्ट तकनीक के रूप में
मैंने भी अपनी पुरानी किताबें इसी पुस्तकालय को दान देने का मन बनाया | बड़े श्रद्धा भाव से किताबों का बंडल बना के और बाकायदा चिठ्ठी टाइप कर मैं पुस्तकालय पहुँच गया | दिन के करीब बारह बजे थे और उनके आगन्तुक रजिस्टर पर बमुश्किल मुठ्ठीभर नाम ही दर्ज थे | खैर, आगन्तुक रजिस्टर में अपनी एंट्री कर मैंने लाइब्रेरीयन से सम्पर्क साधा और अपनी मंशा बतायी | उन्होंने प्रसन्नता जताते ह्युए बाकायदा मेरी चिठ्ठी पर एक कर्मचारी को 'मार्क' कर दिया कि ये पुस्तकें दान में स्वीकार कर ली जाएँ | देख कर कुछ अटपटा लगा ! पर क्या कहता | दिल में जन - सेवा के 'महान' भाव उमड़ - घुमड़ रहे थे | पुस्तकें उस कर्मचारी को रिसीव करा के मैंने लाइब्रेरी का एक नजारा लिया तो पाया कि वह लगभग पूर्णतया: खाली ही पड़ी थी | इक्का - दुक्का लोग भी नहीं दिखे | शायाद लोगों को ज्ञान ज्यादा हो चुका था और अब उन्हें लाइब्रेरी की जरूरत नहीं रही | तुरंत ही, ब्रिटिश लाइब्रेरी के बंदी के समय ब्रिटिश कौंसिल का दिया तर्क याद गया कि वे लाइब्रेरी इसलिए बंद कर रहे थे कि उनके यहाँ पर्याप्त संख्या में लोग नहीं आते थे | मैंने उस कर्मचारी को बताया की मेरे पास और भी किताबें हैं जिसे मैं दान में देना चाहता हूँ पर स्कूटर पर कम जगह होने के कारण उन्हें नहीं ला सका और उन्हें फिर कभी लाउंगा |
कुछ दिनों बाद दुबारा उसी 'महान' कार्य के लिए पुस्तकालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | पर इस बार के अनुभव पिछले बार से ज्यादा स्मरणीय हैं | पहले तो मैंने सीधे उसी कर्मचारी से सम्पर्क साधने की सोंची जिसने पहले मेरी लायी किताबों को रिसीव किया था | पर वह उस दिन नहीं आया था | एक अन्य व्यक्ति को उसकी सीट पर बैठे देख मैंने उसे ही अपने आने का कारण बताया | वह तो कुछ बोला नहीं अलबत्ता एक अन्य महिला बोली की पहले 'आर्डर' करा लाइए | आर्डर भी इस बात का कि दान में किताबें स्वीकार कर ली जाए | आर्डर लाइब्रेरियन करते हैं जो उस समय आफिस में नहीं थे | मुझसे पहली अपेक्षा यही थी कि मैं उस समय आऊं जब लाइब्रेरियन आफिस में हों | खुदा कसम, उन 28 किताबों को पुस्तकालय की छठी मंजिल से नीचे लाकर वापस घर लाने और फिर किसी मुफीद समय दुबारा पुस्तकालय ले जाने के ख्याल से ही मेरी रूह फना हो गयी |
थोड़ी मान - मनव्वल के बाद एक कर्मचारी को शायाद मेरे ऊपर दया आ गयी और वह मेरी चिठ्ठी को किसी को 'दिखा' लाया | उस 'देखने वाले' देवता को तो मैंने नहीं देखा पर मेरा मन उसके प्रति अनन्त श्रद्धा से भर गया की एक बहुत बड़ी तात्कालिक समस्या से बचा लिया | तभी एक महिला कर्मचारी ने टिप्पणी करी की ये किताबें तो पुरानी हैं और अब 'कोर्स' से बाहर हो चुकीं हैं | इस प्रश्न के लिए में बिलकुल भी तैयार नहीं था | पर फिर भी मैंने खुद को संभालते हुए कहा की अधिकतम किताबें अकाउंट्स, कामर्स और इकोनामिक्स की हैं जो की मूल रूप से वैसी ही रहती हैं |
तब तक एक भला माणूस मेरी लायी किताबों को गिनने लगा | उसने घोषणा की, कि एक किताब कम है | मैंने पूरी इमानदारी के साथ दान देने का निर्णय लिया था सो तर्क दे दिया की साहब मैं तो दान दे रहा हूँ | वो भी स्वयम आकार | मैं कम क्यों दूंगा ? खैर, मैंने भी गिना तो वाकई एक किताब कम थी | अब डर गया की कहीं मुझसे दुबारा चिठ्ठी टाइप करवाने को न कह दें | पर रास्ता भी उन लोगों ने खुद ही सुझाया, की जो किताब नहीं हो, लिस्ट में उसके नामे पर क्रास मारकर साइन कर दें |
अंत में मैंने अपनी चिठ्ठी पर किताबें रिसीव करके वाले सज्जन से पुस्तकालय की मोहर लगाने को कहा तो उन्होंने बाहर, इश्यु काउन्टर पर बैठीं एक महिला के पास भेज दिया | उनसे भी एक मोहर लगवाना आसान कैसे होता और क्यों ? पहला जवाब आया की जिसने रिसीव लिया है मोहर भी वही लगाएगा | पर फिर न जाने क्या सोंच कर वो मेरे ऊपर मेहरबान हो गयीं और फाइनली इस सवाल के साथ मोहर लगा ही दी की क्या किताबें रिसीव करने वालों ने मुझे धन्यवाद पत्र नहीं दिया ? मन से आवाज आई की धन्यवाद तो मुझे आप सभी को देना चाहिए की आप लोगों ने मेरी द्वारा दान में दी गयी किताबों को ले लिया और मुझे कृतज्ञ किया |
सारी जद्दोजहद के बाद जब मैं बाहर आ रहा था तो दिल के किसी कोने में एक ख़याल आ ही गया की जब दान की बछिया के दांत गिनने की कला, इतनी उत्कृष्ट तकनीक के रूप में विकसित कर ली गयी हो तो क्या इन किताबों के बदले मैटनी शो के दो टिकट बुरे थे ? और मां की डांट भी बहुत समय पहले पड़ना बंद हो जाती !
Posted by Sachin Agarwal at 23:24 0 comments
Labels: Life, दान की बछिया के दांत
जौनपुर ' राजुओं ' का शहर है !
बातों की चाशनी कुछ गहरी होती जा रही थी और क्षेत्र के पिछड़ेपन से होते हुए अब बात सामाजिक जीवन पर मुड़ चुकी थी | दोनों ही जाने - अन्जाने बेबाक टिप्पणियाँ कर रहे थे | तभी जौनपुर से सम्बंधित किसी प्रसंग पर उमेश ने जो बोला, वो एक यादगार टिप्पणी बनकर अब मेरे जहन में गहरे तक पैठ बना चुका है | और हमेशा याद रहेगा | वे बोले " ये राजुओं का शहर है " | एक बारगी तो मैं इस दिलचस्प टिप्पणी को समझ ही नहीं पाया की वो क्या कहना चाह रहे हैं | पर जब उन्होंने ' का हो राजू ' पर जोर देकर कहा तो मुझे भी कुछ ' बुझा' गया | दरअसल उन्होंने इस इलाके में बहुतायत से बोले जाने वाले एक पापुलर जुमले को इस अंदाज में पेश किया की वह यादगार बन गया | यह जुमला वास्तव में एक क्षेत्रीय पहचान का बोध कराता है | यहाँ के लोग शायद न माने, पर मुम्बई में यह जुमला उनकी पहचान एक ख़ास क्षेत्र से आने वालों के रूप में कराता है | आज के, क्षेत्रीयता से प्रभावित राजनैतिक वातावरण में इस पहचान के ख़ास मायने भी हो सकते हैं |
खैर, विश्वविद्यालय से शहर तक के रास्ते में उन्होंने मुझे कई भाषाओं में बोलने की अपनी अनूठी कला से वाकिफ़ कराया तो मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका | मैं सबसे ज्यादा उनका शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे मुनव्वर राणा की कविता मां से परिचित कराया |
और इसी प्रकार 'अपनी बातों' के बीच अपनी मंजिल आने पर उमेश ने फिर मिलने के वादे के साथ मुझसे विदा ली और जीवन में एक यादगार प्रसंग जुड़ गया |
Posted by Sachin Agarwal at 14:40 0 comments
Labels: Life, राजुओं का शहर
2009-12-11
Realising the importance of studio apartments
Posted by Sachin Agarwal at 21:18 0 comments
Labels: Life, Living single, Studio Apartments
2009-11-12
Learnings in democracy
Although this association which I inherited as its General Secretary is existing since last ten years something, but it has hardly to present its credit. Not even a agreed upon Constitution, upon which the association is supposed to function. Moreover, no one could tell who were its members or how many were there in number. So, what to talk about the official records and accounts of the association.
It was a start from scratch. From designing and creating of stationery to mobilizing finances for its functioning. Some members were kind enough to offer their co-operation while some even evaded. Reasons for such cold shoulders may be their low or even non existing confidence in the association. But then, that's the beauty of it. People don't complain to whom complains should have been addressed. I realized that I am a successor to a daunting task ahead, a task never done. The task of kindling a ray of hope and building a confidence in my constituency that should drive them out of shells.
The creating of the Constitution of the association was a learning in itself. As a member of the drafting group, I had the opportunity to further my learning in democracy. It was a feast to watch how different interest groups would like to pull a common association in different directions. Some would like to add, for furthering personal interests, but I would say that its a natural human tendency to establish ones supremacy in groups to which one belongs. Did they not follow Maslow? Yes. They did.
Once through with the draft, the intricacies of actually putting the whole thing in words and finally putting it for the consideration of the members at a General Body meeting. Each phase offered a new platform to enhance my paradigms of operating in a group which is also my constituency. Now I am through with the initial and basic technical work that are required to call an informal group a formal association. I am not only feeling relaxed but also happy that I have done my bit for the challenge, I had accepted on August 27, 2009.
I believe that even bigger tasks are now ahead. The task of managing people's ego. Infact, bloated egos. The egos which keep us divided and prevent from moving ahead towards a unified goal. During the ground work done so for, I have discovered that there are divergent views of people, not on how the affairs of the association should be conducted but on how his / her personal well being is not being catered to. Hardly, did I find people coming forward on how the association should function or what programmes should it take up. Each one of us is an intellectual and has a head above shoulder.
Even when some did voice their hearts out, they were hardly willing to say the same on a proper platform i.e. a general body meeting or over the internet group & mailing list that is just being hosted to facilitate people voice out amongst their own fellow members, from the comforts of their personal PCs. Some even expect the Office Bearers to be having some Jinie who would wash away all the issues in one go. Experiences are innumerable and possibly one post may even be a bad idea to put them all.
I return with more on my Learnigs in Democracy.
Posted by Sachin Agarwal at 22:47 0 comments
Labels: Association, Democracy, Learnings
2009-05-19
शिमला डायरी: हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का जीवंत परिसर
विशवविद्यालय के मुख्य द्वार पर ही स्थित कैंटीन की दीवार पर भगत सिंह के यह शब्द किसी भी उच्च शिक्षण संस्थान के लिए प्रेरणा श्रोत होने चाहिए
पुन: कैंटीन की दीवार से: गिरती राष्ट्रवाद की भावना के बीच एक सुखद अनुभूति
Posted by Sachin Agarwal at 15:28 0 comments
Labels: Photos of Shimla, Shimla, शिमला के फोटो
2009-05-16
शिमला डायरी : दिगंता दत्ता के कैमरे की नजर से
आशा करता हूँ आप लोगों की प्रतिक्रिया जरुर मिलेगी।
Posted by Sachin Agarwal at 12:18 0 comments
Labels: Photos of Shimla, Shimla, शिमला के फोटो