भोजपुरी भाषा की पहचान बढ़ाने में द्विअर्थी संवादों और गानों का अभूतपूर्व योगदान है | शायद और किसी माध्यम को इतना अधिक सौभाग्य प्राप्त न हो | भोजपुरी भाषा के ऐसे 'संकलन' किसी भी गानों की दुकान में सुलभता से मिल जायेंगे | अभी, हाल ही में सड़क मार्ग से कार द्वारा की गई एक लम्बी यात्रा में भोजपुरी गानों के दो रूप सुनने को मिले | यात्रा के प्रथम चरण में जाते वक्त आजमगढ़ निवासी प्रसिद्ध भोजपुरी गायक बालेश्वर यादव के गाये कुछ गाने सुनने को मिले | ये देख के दिल को कुछ सुकून हुआ की 'नीक लागे टिकुरिया गोरखपुर के' जैसे कालजई लोक गीतों ने बैलगाड़ी और गाँव के भोंपू से एयर- कन्डीशन कारों तक का सफ़र बड़ी सहजता के साथ तय कर लिया | अधिकतर गाने सामजिक समस्याओं पे कटाक्ष थे | जिसमे युवकों और युवतियों के हीरो और हिरोइन बनने के लिए मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर दु:ख व्यक्त किया था | इस गाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं की बहुतायत से मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर गायक के मन की टीस भी झलक रही थी | बालेश्वर ने इसे बुराई बताने के लिए लड़के और लड़कियों के साथ घटने वाली 'घटनाओं' का अलग - अलग हवाला देते हुए अपनी बात उस भोजपुरी लोकगीत में रखी | एक अन्य गाने में इसी गायक द्वारा युवाओं (लड़के) के द्वारा कालेज के समय में किये जाने वाले उदंड व्यवहार का व्यख्यान किया गया था | लेट उठना, कपडे ठीक से न पहनना, लडकियाँ छेड़ना, कालेज में फर्नीचर को तोड़ना आदि | सुनकर 'द्विअर्थी' भोजपुरी गानों का एक दूसरा ही अर्थ एवं स्वरुप सामने आया |
यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |
कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |
यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |
कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |
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