बातों की चाशनी कुछ गहरी होती जा रही थी और क्षेत्र के पिछड़ेपन से होते हुए अब बात सामाजिक जीवन पर मुड़ चुकी थी | दोनों ही जाने - अन्जाने बेबाक टिप्पणियाँ कर रहे थे | तभी जौनपुर से सम्बंधित किसी प्रसंग पर उमेश ने जो बोला, वो एक यादगार टिप्पणी बनकर अब मेरे जहन में गहरे तक पैठ बना चुका है | और हमेशा याद रहेगा | वे बोले " ये राजुओं का शहर है " | एक बारगी तो मैं इस दिलचस्प टिप्पणी को समझ ही नहीं पाया की वो क्या कहना चाह रहे हैं | पर जब उन्होंने ' का हो राजू ' पर जोर देकर कहा तो मुझे भी कुछ ' बुझा' गया | दरअसल उन्होंने इस इलाके में बहुतायत से बोले जाने वाले एक पापुलर जुमले को इस अंदाज में पेश किया की वह यादगार बन गया | यह जुमला वास्तव में एक क्षेत्रीय पहचान का बोध कराता है | यहाँ के लोग शायद न माने, पर मुम्बई में यह जुमला उनकी पहचान एक ख़ास क्षेत्र से आने वालों के रूप में कराता है | आज के, क्षेत्रीयता से प्रभावित राजनैतिक वातावरण में इस पहचान के ख़ास मायने भी हो सकते हैं |
खैर, विश्वविद्यालय से शहर तक के रास्ते में उन्होंने मुझे कई भाषाओं में बोलने की अपनी अनूठी कला से वाकिफ़ कराया तो मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका | मैं सबसे ज्यादा उनका शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे मुनव्वर राणा की कविता मां से परिचित कराया |
और इसी प्रकार 'अपनी बातों' के बीच अपनी मंजिल आने पर उमेश ने फिर मिलने के वादे के साथ मुझसे विदा ली और जीवन में एक यादगार प्रसंग जुड़ गया |
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