2013-02-01

गणतंत्र के लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !

गणतंत्र के  लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !
जौनपुर, 26 जनवरी 2013

विगत 65 वर्षों की तरह ही आज सुबह सवेरे भी " ए मेरे वतन के लोगों .. याद करो कुर्बानी " मार्का गीतों के स्वर कान में पड़े । पर आज के परिवेश में यह एक रस्म अदायगी मात्र ही लगती है ।

महारानी का राज्य समाप्त होने के बाद एवं आजा़द भारत के अपने सविंधान लागू होने के 65 वर्षों बाद भी हम आजादी और उसके मायनो का वही रिकार्ड बजा रहे हैं जो शायद 1950 या 1960 के दशक में बज रहा था । राष्ट्रीय ध्वज को सलामी के समय मेरे मन में जो विचार आये वो काफी अलग थे । यहां आप से साझा कर रहा हूँ ।  जन - गण के लिये आजादी और स्वराज की जो परिभाषा 1947 में गढ़ी गयी थी वो उसे आज भी रटाई जा रही है । देश की बहुधा आबादी के लिये आजादी की सीमा आज भी, देश की राजनैतिक आजादी पर आकर रुक जाती है । परन्तु, देश पर न्योछावर होने की शिक्षा देते समय यह कभी भी नहीं सोचा जाता कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति  के स्तर पर आजादी नहीं पहुँचती, तब तक देश की आजादी का जश्न केवल केवल रस्मी तौर पर ही मनाया जाता रहेगा ।

सही मायनों में प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक अजादी  के बिना राजनैतिक आजादी का जश्न बेमानी होगा । आजाद भारत को विरासत में मिली सोंच के अनुसार आर्थिक आजादी के लिये आय के परम्परागत साधन के रूप में,  सेवा (नौकरी) का बड़ा योगदान रहा है । सेवा  अगर सरकारी हो तो उसे सोने पर सुहागा माना जाता रहा है ।
1990 के दशक में शुरू हुये आर्थिक सुधारों से इस ट्रेंड में कुछ बदलाव आया । परन्तु सरकारी मशीनरी की सोंच और गुलाम मानसिकता के चलते व्यक्तिगत सम्पदा अभी भी सरकारों और इनके खेवनहारों की वक्रदृष्टि के निशाने पर हैं ।

इस मानसिकता के कुछ ताजा उदाहरण देखिये ।

पूर्व वित्त मन्त्री एवं मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वोडाफोन पर उसके अधिग्रहण सौदे हुये पूंजीगत लाभ पर पिछली तारीखों से कर लगाने कि जिद पकड़ी तो देश के कारोबारी घरानों का भारत में नियमन के स्थायित्व पर शक का माहौल बना । साथ ही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की कारोबारी मंशा पर सवालिया निशान लगे । पूरे प्रकरण से भारत की सरकारों की व्यवसाय के प्रति नजरिये पर जो माहौल बना उसे, विदेश में रहने वाले एक रिश्तेदार ने इन शब्दों में बयान किया । Indians don't have respect for contractual obligations. यानि भारतियों में अनुबन्धात्मक दायित्वों के प्रति सम्मान नहीं है ।

अब मौजूदा वित्त मंत्री पी. चिदाम्बरम अमीरों पर अधिक कर लगाने की वकालत कर रहे हैं  । देश में अजादी के बाद से ही समाजवाद  की घुट्टी पिलायी जाती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति काल के नीति नियन्ताओं की उस समय के महाशक्ति रूस से निकटता के कारण हमारी आर्थिक नीतियों में साम्यवाद की झलक भी देखी जा सकती है । साम्यवाद, राज्य को सर्व-शक्तिमान मान कर उसके सभी क्रिया कलापों को सर आखों बिठाने की अवधारण भी है । इस अवधारणा के चलते उद्योगों एवं व्यापार को हमेशा से कड़े सरकारी निगरानी में रखा गया ।  सरकारी मशीनरी और नियामक प्राधिकारियों पर यह विचार आज भी हावी रहता है कि वह जो करेंगे, सब सही होगा और उद्योगों को छूट देने से देश का अहित ही होगा ।

उदारीकरण की बयार ने थोड़ा सा, परन्तु नकाफी स बदलाव लाया है ।

देश की आज की आवश्यकता में सबसे ऊपर अद्यमिता का स्थान है । इसे आजादी और गणतंत्र की नई परिभाषा में शामिल कर बड़े दायरे में समझने की जरूरत है । मौजूदा दौर में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिये आवश्यक क्षमता एवं शैक्षणिक दक्षता देश की बहुधा आबादी के पास अभी भी नहीं है । तो उद्यमिता एक सशक्त माध्यम हो सकता है ।

परन्तु सरकारी महकमों के कार्य करने के तरीके और उसके पीछे की मानसिकता से उद्यमिता पनपने की उम्मीद तक दम तोड़ती नजर आ रही है ।

जितना खतरा देश को एफ.डी.आई. (FDI)  से नहीं है उससे ज्यादा नुकसान व्यवसाय से जुड़े सरकारी प्रवर्तन महकमों के DDI (Domestic Direct Invasion) है । जिसके चलते इन महकमों को व्यापार के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने का मौका मिलता है । यह दखलन्दाजी व्यवसाय की जमीनी और वास्तविक सच्चाईयों को बिल्कुल नजरंदाज़ करती है ।

छोटे से लेकर मंझोले और बड़े व्यवसाय तक - सभी इससे पीड़ित हैं । रतन टाटा सरीखे नामचीन व्यवसायियों ने मंच से कई बार इस बात को उद्धवरित किया कि व्यवसायिक कार्यों के चलते उनसे कई बार रिश्वत की मांग की गयी है । युवा को अगर उद्यमिता की ओर अग्रसर करना हो तो सरकारी व्यवस्था को व्यवसाय एवं व्यवसायी के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है ।

वित्त मंत्री के साथ - साथ देश को भी यह समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति, व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिक प्रयास करता है । इस पर अमीरों पर उनके अधिक टैक्स लगाने के प्रस्ताव से कारोबारी माहौल कमजोर होगा । इन्ही सब खबरों के बीच अर्थव्यवस्था में काले धन को बाहर लाने के लिये सरकार के द्वारा पुन: कोई योजना लाने की तैयारी बजट 2013 में की जा रही है । काले धन को देश की मुख्य धारा में लानें की यह पहली कोशिश नहीं है । अन्तिम बार ऐसी योजना Voluntary Disclosure of Income Scheme, 1997 में आयी थी । इस योजना में जिन लोगों ने काले धन का स्वत: प्रकटीकरण किया उन्हे बाद में आयकर विभाग द्वारा नोटिस एवं स्पष्टीकरण आदि से परेशान किया गया । ऐसी किसी भी योजना पर समय से अपना कर आदि अदा करने वाले करदाता सवाल उठाते हुये आलोचना करते हैं कि ऐसी योजना से कर अपवंचन करने वालों को शय मिलती है और यह कर कानूनों का पालन न करने वलों के लिये एक प्रोत्साहन योजना की तरह काम करती है ।                                            आवश्यकता है कि टैक्स अदा करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो, न की मौजूदा समय में टैक्स अदा करने वालों पर जबरिया अधिक टैक्स लादा जाये ।  ज्यादा टैक्स से छुपाने के लिये किये गये लेन-देनों से ही काले धन का निर्माण होता है । आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की जिसमें जनता को किसी प्रकार के व्यक्तिगत और कारोबारी सौदों को छिपाने की जरूरत न पड़े ।

तभी लड्डू सिर्फ गण-दिवस पर नहीं पर वर्ष के हर दिन और गण-गण को मिल सकेंगे । मेरे विचार में यह आज के भारत के जन-गण के मन की आवाज है । शायद आज से पचास साल बाद गाने के बोल कुछ इस प्रकार से हों :

ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो आर्थिक आजादी के लिये शहीद हुये हैं
उनकी याद करो कुर्बानी !!

****
गुस्ताखी माफ़ !
(मौजूदा दौर में एक हास्यास्पद बात यह दिखती है की कई बार जो लोग इस प्रकार के गीतों के रिकार्ड बजाने में बहुत आगे रहते हैं उनकीअपनी जिंदगी इस गीत से दूर - दूर तक कहीं भी सुर  - ताल मिलाती नहीं दिखती । और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी न माना जाये ।)

2012-10-24

भूखे भजन जपो गोपाला, पीते रहो विष का प्याला !!

सरकारी सेवाओं में कार्यरत लोगों के लिये वेतन वृद्धि के सीमित अवसर होतें हैं । वर्ष में एक बार समयमान एवं वेतनमान के अनुसार निश्चित वेतन वृद्धि एवं प्रत्येक दस वर्षों में एक बार वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार तनख्वाह बढ़ने की उम्मीद । यह वेतन आयोग मूलत: केन्द्र सरकार द्वारा नियत किया जाता है । केन्द्र सरकार इसकी अधिकांशत: सिफारिशों को मान लिया करती है । इसकी सिफारिशों को राज्य सरकारें अपनी प्रशासनिक एवं वित्तीय सहूलियतों के अनुसार लागू करते हैं । यह सिफारिशें राज्यों पर बाध्यकारी नहीं होती परन्तु परम्परा रही है कि राज्य भी इन्ही सिफारिशों को आधार मान कर अपने वेतनभोगियों को भी लाभान्वित करती रही हैं । 

छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशें 01 जनवरी 2006 से लागू हुयी थी । यानि छ: वर्ष पहले । तकनीकी रूप से इसके मतलब है कि छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों से लाभ मिलने का लगभग 60 प्रतिशत समय बीत चुका है । परन्तु उच्च शिक्षा में कार्यरत शिक्षकों को छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लाभ देने के मामले में केन्द्र एवं अधिकांशत: प्रदेश सरकारों की नीति एवं नीयत शक के दायरे में है । पंजाब, हिमाचल एवं उड़ीशा जैसे अपवाद राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे भारत में ही अभी तक शिक्षकों को छ:ठे वेतन अयोग की सिफारिशों के अनुसार उनका पूरा बकाया वेतन नहीं मिला है । कई राज्यों ने इस आयोग की सिफारिशों को उच्च शिक्षा के शिक्षकों के हक में लागू करने में काफी हीला-हवाली की । इन राज्यों में शिक्षकों को लम्बी कानूनी लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी । उन्हे अपने मूलभूत अधिकार यानि वेतन प्राप्ति के लिये न्यायालयों की शरण में जाना पड़ा । 

शिक्षकों के इस संघर्ष में मध्य प्रदेश के शिक्षकों ने भोपाल उच्च न्यायालय के आदेशों एवं दस दिनों की हड़ताल के बाद इस दिशा में सफलता पाई तो महाराष्ट्र के शिक्षकों को इसे अपने हक में लागू कराने के लिये दबाव बनाने के लिये लगभग 40 दिन तक हड़ताल पर रहना पड़ा । लगभग पूरे भारत में ही शिक्षकों को अपने हक में इसे लागू कराने में तीन साल का समय लगा । अन्य राज्यों में स्थिति कमोवेश यही रही । जहाँ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) ने अपनी सिफारिशों में स्पष्ट कहा है कि उन्हे पूरी तौर पर लागू किया जाना आवश्यक है । वहीं राज्य सरकारें अपने हिसाब से इन सिफारिशों की व्याख्या करते हुये शिक्षकों को जो दे रहीं हैं वो इन सिफारिशों का अधा - अधूरा और टूटा - फूटा स्वरूप है । जिसे की राज्यों की सरकारें उससे भी ज्यादा नीरसता के साथ रो - रो कर लागू कर रहीं हैं । 

यू.जी.सी. के बताये पूरे लाभ शायद ही किसी राज्य ने अपने शिक्षकों को दिये हों तो उन्हे अत्यन्त खुशनसीब समझा जायेगा । किसी राज्य ने शिक्षकों की सेवा - निवृत्ति की आयु 65 वर्ष नहीं स्वीकार की तो किसी राज्य ने शिक्षकों के महंगाई भत्ते में अपने राज्य की माली हालत के मद्देनजर कटौती कर दी, किसी ने महिलाओं के लिये शिशु पालन अवकाश, पितृत्व अवकाश और मातृत्व अवकाश पर अपना रुख अभी तक स्पष्ट नहीं किया है । और शिक्षकों को शायद बीमार पड़ने का हक नहीं है इसलिये यू.जी.सी. की सिफारिशों के अनुसार उन्हे चिकित्सा लाभ भी नहीं मिल रहे हैं । मनोरंजन एवं परिवार के साथ वक्त बिताने के लिये मिलने वाली एल.टी.सी. से तो शिक्षकों को सभी ने महरूम ही रखा । 

उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा के अध्यापकों के लिये राज्य सरकार ने अनमने ढ़ंग से छ:ठा वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया । 01 जनवरी 2006 से लागू होने वाली इन सिफारिशों को कुत्सित एवं शिक्षक विरोधी मानसिकता के चलते इसे 01 दिसम्बर 2008 से लागू किया । और यह मान लिया कि 01 जनवरी 2006 से शिक्षकों से इसका सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देकर उनके दायित्वों की इतिश्री हो गयी । बतातें चलें कि इस प्रकार के आदेशों को पास करने वालों में वे लोग प्रमुखता से शामिल थे जो स्वयं को जनता का भाग्य विधाता मानतें है । उन्हे अपने वेतन एवं सेवा सम्बन्धी लाभ केन्द्र सरकार के घोषणा मात्र के बाद ही स्वत: मिल जाया करतें हैं । या यूँ कहे कि वो अपने वेतन सम्बन्धी लाभ स्वयं ही झटक लिया करतें हैं । इनके संगठनों ने राज्यों के साथ स्वयमं के लिये सुविधावादी सामंजस्य बना रखा है कि इधर केन्द्र सरकार ने घोषणा करी उधर अखिल भारतीय सेवा का झण्डा उठाये इस वर्ग की झोली में सारे लाभ स्वत: आ गिरे । 

हमारी चुनी हुयी सरकारें भी उच्च शिक्षा के शिक्षकों के साथ होते ऐसे दमनकारी कृत्यों को रोकने में असक्षम नजर आती हैं । क्योकिं उनकी निगाहें वोट बैंक पर होती हैं । लोकतंत्र में वोटों के गुणा भाग में हमारी बिरादरी कमजोर बैठती है । जहाँ पूरे उत्तर प्रदेश में हमारी संख्या लगभग चौदर हजार के करीब है वही एक सभासद को चुनने में औसतन बीस से बाईस हजार मतदाता होते हैं । यह तथ्य लोकतांत्रिक वोट व्यवस्था में हमारी हैसियत बताने के लिये काफी है । उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा के शिक्षक लगभग तीन वर्षों के कठोर संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार को इस बात का एहसास करा पाने में सफल हुये कि उन्हे भी नियत तिथि यानि कि 01 जनवरी 2006 से ही छ:ठे वेतन आयोग की सिफारिशों का लाभ मिलना चाहिये । एक लम्बे संघर्ष के बाद प्रदेश की सरकार ने माना कि सिर्फ "काल्पनिक" लाभ देने से आम शिक्षक के घर का चुल्हा नहीं जलेगा । हमें भी आटे की वही रोटी खानी होती है जोकि मन्त्रियों और नौकरशाहों को खानी होती है । और बाजार अपने ग्राहकों के पद और वेतन के अनुसार वस्तुओं की दामों में फर्क नहीं करता । वर्ष 2010 के मई माह में जाकर उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बात को सिर्फ सिद्धांत: स्वीकार किया । शासनादेश जारी हो गये कि केन्द्र सरकार से धन मिलने पर शिक्षकों को 01 जनवरी 2006 से उनके बकाया वेतन का भुगतान कर दिया जायेगा । 

जमीनी स्तर पर एक शिक्षक के लिये आज भी हकीकत वित्तीय एवं अन्य लाभों की सिर्फ कल्पना से आगे नहीं बढ़ी है । शिक्षकों को सिर्फ आश्वावसनों का झुनझुना पकड़ा दिया कि केन्द्र सरकार (यू.जी.सी.) से धनराशि मिलने पर तुम लोगों का वेतन बकाया मिल जायेगा । मई 2010 से आज दो वर्षों से ऊपर का समय बीत चुका है पर हमारा पैसा कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं ? किसी के पास कोई जवाब नहीं है । अन्दरखाने से मिलने वाली खबरें बताती हैं कि केन्द्र और राज्य की सरकार की इस मामले में रस्साकशी जारी है । दोनों अपनें दायित्वों को एक दूसरे पर ठेल कर अपना दामन साफ बता रहें हैं । कारण चाहे जो भी हो पर प्रदेश का शिक्षक अभी तक अपने 35 महीनों के बकाया वेतन के लिये सिर्फ बाट जोह रहा है । 

एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि पूरे उत्तर प्रदेश में सिर्फ जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था जिसके शिक्षकों के बकाया वेतन के लिये प्रदेश सरकार ने यू.जी.सी. से एक रुपया भी नहीं माँगा था । ऐसा इस विश्वविद्यालय के जिम्मेदार अधिकारियों की हठधर्मिता और ऊल जलूल अड़ंगेबाजी के चलते हुया जिसे कि राज्य सरकार आखें मूंदे देखती रही । इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों के सतत संघर्ष ने विश्वविद्यालय एवं राज्य सरकार को अंतत: जगाया । इस बाबत अपनी बात से सहमत कराने में विश्वविद्यालय के ’स्टील फ्रेम’ से काफी टकराहट भी हुयी । तब जाकर पूर्वांचल विश्वविद्यालय एवं प्रदेश सरकार विश्वविद्यालय अनुदान (यू.जी.सी.) आयोग से नियत तिथि से वेतनमान देने पर आने वाले वित्तीय बोझ का 80 प्रतिशत माँगने कि लिये तैयार हुयी । उच्च शिक्षा के इस पूरे परिदृष्य से जो तस्वीर सामने लाने का प्रयास किया गया है वह वास्तविकता में पूरी सच्चाई की एक बानगी मात्र है ।

 एक ओर तो यह यक्ष प्रश्न है कि जब पूरी नौकरशाही, जिसमें कि अखिल भारतीय सेवा, राज्य स्तरीय सेवा एवं अधीनस्त सेवाओं के अधिकारी एवं कर्मचारी शामिल हैं, को अपना सारा बकाया वेतन मिल चुका है तो सिर्फ उच्च शिक्षा के शिक्षकों को ही उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने का क्या उद्देश्य है ? यहाँ तक की राज्य के प्राथमिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के शिक्षकों भी उनके सारे लाभ मिल चुकें हैं तो हमारे साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों ? ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि हमें आर्थिक संवर्धन की कोई जरूरत नहीं है । और जितने समय तक चाहे व्यवस्था बिना किसी जवाबदेही लिये हमें वंचित रख सकती है । जब मंच पर बैठकर आदर्श बघारनें की बात हो तो शिक्षकों को ऊँचे आदर्शों के साथ बाँध दिया जाता है । उन्हे समाज निर्माता एवं पथ प्रदर्शक जैसी अनेकों उपमाओं से नवाज़ा जाता है । पर यह विमर्श क्यों नहीं उठाया जाता कि एक वंचित शिक्षक कैसे समाज का निर्माण करेगा और समाज उससे यह अपेक्षा कर भी कैसे सकता है ? 

जिन अभिभावकों अपना पूरा बकाया वेतन मिल चुका हो उनके नौनिहालों को पढ़ाने की और उनके भविष्य निर्माण की जिम्मेदारी वेतन-वंचित शिक्षकों पर डाली जा रही है । इस परिदृष्य में यह उच्च शिक्षा का हास्यास्पद चेहरा है कि इसके नीति - निर्माता इस क्षेत्र में योग्य अभ्यर्थियों के न आने से शिक्षा की घटती गुणवत्ता पर घड़ियाली आँसू बहाते रहते है । अपने जीवन को संघर्ष में रखकर दूसरों के चिरागों को रौशन करने का माद्दा सिर्फ शिक्षक में है । 

यानि, भूखे भजन जपो गोपाला, पीते रहो विष का प्याला !

2012-07-08

Just watched Gangs of Wasseyepur ! June 25, 2012. It is reality cinema told in folklore style. Having lived in eastern uttar pradesh for a decade now, it is very aptly delivered movie in almost all terms. As in many films some glitches (scenes that do not match the time line of the film). 1. In one scene that is set in 1970s a Jeep has a उत्तर प्रदेश - 64 नन्मबर plate fixed on it. This numbering system became effective 1989 due to passing of THE MOTOR VEHICLE ACT 1989. 2. When the people of Rambheen Singh ( the MLA) abduct a girl from Wasseyypur and Manoj Bajpeyee with his team goes to rescue her - A street pole is shown which has box attached to it on which VARANASI NAGAR NIGAM and some appeal is written. 3. The jail from where his younger son ( Faisal Khan ) is released after his term in, UTTar Pradesh has Varanasi jail written over it; and a notice on the gate that says that MOBILE, CHARGER, GUTKHA etc. are not allowed. Mobile phone is a development of around 10 years (say starting 2000) in Indian context. So how come a plot which ends in 1989 has a jail which does not allow entry of such articles. MOST IMPORTANT : All reviews (specially international) say that film is of duration 5 hours plus, but what Indian cinemas are screening is around 2 hrs 30 minutes. The film ended abruptly and had a cation "TO BE CONTINUED....." which gives the impression that the remaining part will be released soon.

President Elections 2012 are sleazy and steamy ! For the first time it is being established that mud - slinging is a national character of any elections in this country. Be it the elections of a municipal corporator or The President. The classic way in which BJP supported PA Sangma filed before the Election Commission for disqualification of Pranav Mukherjee was memorable. Now Janta Party's Subramaniam Swamy is after Pranav. Swamy promises more sleaze in the days to come. Wow ! We all are waiting to savor our taste buds on this issue. BJP promises to move court if Pranav is elected as the President. Wonderful indeed ! After all, propriety must prevail. Consider this: The Chief Justice of Supreme Court who sworns in Pranav as The President of India is hearing and deciding on a case trial against him - challenging his elections to the highest office in this country. All said and done, we are about to witness interesting times in Indian politics. And all said and done - the highest office in this country is becoming less sacrosanct.

2012-01-13

People are charmed to see Mahindra XUV500 for the first time in Jaunpur

People are charmed to see Mahindra XUV500 for the first time in Jaunpur (UP) - They are being extensively used by the Congress candidate Nadeem Javed from Jaunpur (sadar) Vidhan Sabha seat in his election campaign. It may be his USP in the campaigning process.

Youth is flocking to see the hitherto unseen SUV. While Tata Safaris and Mahindra Scorpios have donned the caravans of Netas in eastern Uttar Pradesh, Nadeem is raising this benchmark and may create a new polarization for this Vidhan Sabha seat due to his flaunt life style and flashy cars.

Democracy is experimenting itself once again. Albeit on new catalysts.

2012-01-03

सोना मत, पत्थर बन जाओगे

सोना मत, पत्थर बन जाओगे

वर्ष 2012 के तीसरी भोर में एक अफवाह फैली की सोना मत, वरना पत्थर बन जाओगे । 03 जनवरी 2012 को प्रात: 04 बजकर 12 मिनट मेरे ममेरे भाई दीपक का फोन आया देख पहले तो मन आशंकाओं से भर गया क्योकिं यह फोन करने का कोई सामान्य समय नहीं था । जब उसने पूछा कि मैं सो रहा था या जग रहा था, तो एक बारगी माथा ठनका कि जरूर कोई खास बात होगी जिसे कहने से पहले वह कोई औपचारिकता निभा रहा था । पर जब अगले ही क्षण वह बोला कि सोना मत, वरना पत्थर बन जाओगे तो मन ही मन मैं हंसा और उससे पूछा कि इस बात की प्रमाणिकता क्या है । तो जवाब वही आया जो अपेक्षित था - कि मैनें नहीं देखा पर कोई बता रहा था ।

उसे क्या जवाब दूँ ? यह सोचने में जरा भी वक्त नहीं लगा । पर उसकी आस्थावान भावनाएं आहत न हो, यह सोचकर चुप रहा । वो फोन जब तक नहीं खत्म हुआ जब तक दीपक ने मुझसे इस बात का आश्वासन नहीं ले लिया कि मैं अन्य लोगों और रिश्तेदारों को भी फोन करके इस बात की सूचना जरूर दे दूंगा । मन में उभरते अनेकों प्रकार के विचारों की मीमांसा करते हुये मैंने नीचे जाकर अस्पताल के कर्मचारियों को मां के ड्रिप खत्म होने की सूचना देने पहुँचा तो पाया कि वहाँ भी सभी लोग इसी चर्चा में डुबे थे ।

नाईट ड्यूटी वाली डाक्टर अपनी माँ को घर के बाहर हल्दी और गेरू के पाँच थापे (हाथ के पंजे के निशान) लगाने के लिये कह रही थीं । जिससे की शायद इस प्रकार की दैवीय आपदा से बचा जा सकता होगा । वैसे यह मजेदार तथ्य है कि इस प्रकार के थापे पहले भी भारतीय जन-मानस से उसके घरों के बाहर किसी चुड़ैल या भूतनी से बचाव के लिये कई - कई बार लगवाये जा चुके हैं । सात घर छोड़ कर बाकियों का विनाश करने वाली चुड़ैल के बारे में भी यही मान्यता है कि वह विनाश करने के बाद उस घर के बाहर थापे लगा के जाती है ताकि दुबारा उस घर का विनाश करने का प्रयास करने में अपना समय ना बर्बाद करे । एक अन्य मान्यता यह भी है एक प्रकार के थापे लगा कर उस चुड़ैल को इस बात का सन्देश दिया जाता है कि थापे लगा घर उन सात घरों में से है जिसका उसे विनाश नहीं करना है । न जाने इतने भारी पैमाने पर विनाश करने वाली चुड़ैल का गणित कितना कमजोर रहा होगा कि पूरे - पूरे शहर में, हर घर के बाहर लगे थापे को देखकर भी उसके सात घरों की संख्या पूरी नहीं होती । या फिर कितने घरों का विनाश वो कर चुकी थी उसका कोई लेखा - जोखा वह नहीं रखती रही होगी ।

और बाकी स्टाफ अपने - अपने हिसाब से इस अफवाह की मीमांसा करते हुये मिला । पता चला कि प्रात: 2 के आस - पास इस अफवाह को पर लगे और लोग मुहल्लों में सड़को पर निकल कर सबको जगाते घूम रहे हैं । कुछ ही पलों बाद आस - पास की बस्तियों से हो हल्ला सुनाई देने लगा ।
तुरन्त ही यह विचार आया कि क्योंकि उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रस्तावित हैं इसलिये अपनी संगठनात्मक शक्ति जांचने के लिये यह काम ‘एक राजनैतिक दल‘ विशेष का किया धरा होगा
। मन में अनेकों प्रकार की भावानाएं लिये हुये प्रमुखता से यह सोचते हुये झपकी आ ही गयी कि बेकार में नींद खराब कर दी । कहने कि जरूरत नहीं है कि दीपक को दिया हुआ आश्वासन मैंने नहीं पूरा किया ।

प्रातः 7:15 के आसपास अस्पताल में रात की ड्यूटी का स्टाफ अपने घर जाने की तैयारी में था । तब रात की ड्यूटी वाली डाक्टर के हमारे कमरे में आने से मेरी आंख खुली । शुक्र है कि सोने के बावजूद भी मैं अब तक पत्थर नहीं बना था । डाक्टर से मेरा उससे पहला सवाल था कि क्या कोई पत्थर बना ? जवाब जैसे पहले से मालूम था । कोई भी नहीं । वह भी मेरे सवाल के निहीतार्थ समझ कर मुस्कुरा कर रह गयीं पर उन्होनें मेरे सूचना कोष में इतना इजाफ़ा जरूर किया कि चण्डीगढ़ और केरला तक से इस अफवाह के फैलने की पुष्टि वो अपने परिचितों से बात करके कर चुकी थीं । बात तो आयी - गयी सी हो गयी पर विचारशील मन तेज रफ्तार से विचारों के सागर में गोते लगाता रहा ।

दिन के 10 बजे अभी - अभी आसनसोल में बैठी एक पूर्व सहपाठी नीना मिश्रा से फेसबुक पर इस अफवाह के बारे में पूछा तो उसने ऐसी कोई जानकारी होने से इन्कार लिया । हिमाचल प्रदेश में रह रहे मेरे पूर्व सहकर्मी राहुल सिंह से फोन पर पूछने पर उन्होने ने भी ऐसी किसी जानकारी होने से इन्कार किया और साथ में यह जुमला भी दिया कि वो अपना यू.पी. है वहाँ कुछ भी हो सकता है क्योंकि यहाँ के लोग असम्भव को सम्भव बनाने में विश्वास रखतें हैं । जौनपुर में एक पत्रकार मित्र आशीष श्रीवास्तव से पूछा तो उन्होनें इस कहानी में एक नया आयाम जोड़ दिया कि जौनपुर में रात भर भूकम्प आने की अफवाह रही । साथ ही यह भी कहा कि भूकम्प आने की सूचना कम से कम भारत में तो पहले से नहीं मिलती - इसलिये यह भी अफवाह ही रही ।

इस प्रकरण से यह तो साफ होता है कि हमारी व्यवस्था में कोई तो ऐसा सूत्र है जो इस प्रकार की सूचनाओं को बड़ी ही तेजी से लोगों के बीच सम्प्रेषित करता है । इतना तेज कि रात के गहरे पहर में भी कुछ घण्टों में ही सारे देश में कोई बात फैलाई जा सकती है । वह भी रात के उस समय जब अधिकांश लोग सो रहे हों । लोग टेलीविजन भी नहीं देख रहे हों कि ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर माइण्ड ब्रेकिंग मसाला परोसा जा रहा हो । कुछ वर्षों पूर्व जब गणेश जी ने देश के हर मन्दिर में दूध पीया था तो दिन का उजियारा था । पर उस समय मोबाईल क्रान्ति नहीं आयी थी । सूचना तब भी फैली थी, पर हर मन्दिर हर शिवालय से दूध-धारा बहने में पूरा दिन लग गया था । ऐसा ही कुछ घटित हुआ जब देश में नमक का उत्पाद बन्द होने की अफवाह फैली तो तुरन्त ही सारी आबादी नमक के दस - बीस पैकेट तक खरीद कर घर में जमा करने लगी । नकम उत्पादन तो बन्द नहीं हुया पर उस दिन 2 रू. किलो वाला नमक 40 रू. किलो तक बिक गया ।

मेरे मन में जो सवाल बार - बार उठता है वह यह है कि आखिर ऐसी अफवाहें फैलाता कौन है और क्यों ? उत्तर प्रदेश में चुनावी माहोल के कारण इस काम में किसी राजनैतिक दल विशेष का हाथ होने की सम्भावना समाप्त होती है क्योंकि जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे हैं वहाँ भी इस अफवाह का असर दिखा । मेरी शक की अन्य सुईयाँ किसी सामाजिक संगठन, जोकि धर्म और आस्था के प्रचार प्रसार में लगा हो, कि ओर भी जाती हैं । एक ऐसे देश में जहाँ धार्मिक और अंधविश्वासी मतों एवं मान्यताओं के बीच अन्तर धूमिल होता हो वहाँ जनता को आस्था ने नाम पर बेवकूफ बनाना कोई बड़ा काम नहीं । व्यापारिक हितों के लिये भी यह काम लिया जा सकता है । दूघ और नमक बनाने वालों के बाद अब फोन / मोबाईल कम्पनियों को भी एस.एम.एस. और प्रीमियम काल की तर्ज पर कमाई का एक नया ज़रिया मिल गया । अफवाह फैलाओ और खजाना भरो ।

मेरे रडार पर सरकारी तन्त्र भी है । जिसमें सिविल डिफेन्स और आई.बी. सरीखे विभागों को ऐसी घटनाओं से इस बात को जाँचने में मदद मिल सकती है कि जनता के बीच सूचनाये किस प्रकार प्रभावी ढ़ंग से फैलाई जाये । कम से कम समय में लोगों के बीच सूचनायें कैसे प्रसारित की जायें । लोगों के इस गुप्त और अति शक्तिशाली तन्त्र का उपयोग देश की सुरक्षा व्यवस्था को जरूरत के समय और प्रभावी ढ़ंग से प्रयोग किया जा सकता है । इसकी क्षमता जांचने के लिये भी ऐसी अफवाहों को एक प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है ।

2011-12-25

दी डर्टी पिक्चर का एक रिव्यू

वर्ष 2011 के अन्तिम सप्ताह में जब मल्टिप्लेक्स में इस फिल्म के इक्का - दुक्का शो ही चल रहे हों और वो भी 20-25 फीसदी दर्शकों के साथ तो कहने की जरूरत नहीं है कि मैं इस फिल्म को देखने वाले दर्शकों के अन्तिम कुछ जत्थों में शामिल था । और शायद ऐसा कुछ नहीं बचा होगा जो अब तक इस फिल्म के बारे न लिखा गया होगा, न कहा गया होगा और पढ़ा - सुना न गया होगा । मीडिया में इस फिल्म को लेकर जो हल्ला और शोर गढा़ गया था वो अबतक पूरी तरह शान्त हो चुका है । शायद अब कोई इस फिल्म की बात भी नहीं कर रहा हो होगा पर फिर भी मेरा मन इसे लिखे बिना नहीं मान रहा है । और यह सोच कर कि हर एक रिव्यू जरूरी होता है, लिख ही डाला ।

"जो तुम आज कर रही हो उसे बगावत कहतें हैं और कुछ सालों बाद लोग इसे आजा़दी कहेगें " मेरी नजर में नायला के किरदार का यह डायलाग पूरी फिल्म का मूल मन्त्र है । 80 के दशक में एक सिल्क सेक्स सेम्बल बन जाती है और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में फिल्म-जगत की हर नायिका सिल्क को गौढ़ करती नजर आती है । विद्या बालान के कम कपड़ो और मादक अदाओं पर दर्शक सीटी तो उस मल्टीप्लेक्स में भी बजा रहे थे जिसमें मैने यह फिल्म देखी पर बहुधा अब यह यह कोई चर्चा का विषय नहीं रहा ।

चमक - दमक वाली दुनिया जिसे आम लोग स्टारडम कहते हैं और तकनीकी जानकार सिल्वर स्क्रीन - के पीछे के सच के तमाम पहलू यदा - कदा सामने आते रहतें हैं । उन्ही में से एक यह भी रहा कि "जिन कानों को तालियों की आवाज सुनने की आदत हो चुकी हो, उन्हे गाली भी न सुनाई दे " तो क्या हाल होगा ? अगर मुझे सही याद है तो फैशन फिल्म में कंगना रानाउत को भी स्टारडम से उतरते इसी प्रकार की हालत में दिखाया गया है । छोटे शहरों से चमक - दमक की ओर, शो-स्टापर बनने की चाहत लिये तो ’फैशन’ फिल्म में प्रियंका चोपड़ा को चन्दीगढ़ से बम्बई तक का सफर तय करते दिखाया गया था । जब सितारा बुलन्द रहा तो दुनिया जूती पर और जब सितारा ढ़ला तो यूँ लगने लगे की सारी दुनिया हमें ही जूती पर बिठाना चाहती है । गलत - सही के इस द्वन्द के बीच घर लौटने की चाहत को न सिल्क रोक पाती है और न बुरे दिनों में फैशन में सुपर माडल बनी प्रियंका । 80 के दशक में जहाँ सिल्क की माँ उसके मुंह पर दरवाजा मारती है तो इक्कीसवीं सदी में राज बब्बर अपनी बेटी (प्रियंका) के बुरे दिनों में साथ खड़े नजर आये थे ।

अपनी इम्पार्टेन्स कम होना इस दुनिया के लोगों को जरा भी बरदाश्त नहीं है । इस दुनिया के लोगों के लिये Love me or hate me, but don't you dare ignore me का कथन सटीक बैठता है । अगर हालात इतने खराब हो तो कि "दुश्मनों को भी" उससे "कोई शिकायत न हो " तो शायद आत्महत्या ही एक मात्र विकल्प बचता है ।

पर सब कुछ के बाद भी सबसे बड़ा सच यह है कि - बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया । सब कुछ पैसे के लिये किया जाता है । जब तक कैश बाक्स में खनक बढ़ रही है तो सब कुछ जायज है । और सबसे ऊपर यह सच कि कैश रजिस्टर कुछ चुनिन्दा लोगों का हक है । चाहे वो फैशन फिल्म में दिखाई गयी कपड़ों की कम्पनी जो माडलिंग के ठेके नयी - नयी लड़कियों को देती थी जिसकी खुद की निगाह अपने मुनाफे पर थी । या डर्टी पिक्चर के कीड़ादास का बाक्स आफिस की नब्ज पर पकड़ ।

मेरी नजर में सोचने वाली बात यह है 80 के दशक की सिल्क, इक्कीसवीं सदी की फैशन फिल्म की नायिका प्रियंका चोपड़ा और हर दिन फिल्म नगरी में स्टूडियोज के बाहर ’25 से 50’ की संख्या में पहुँचती लड़कियों की संख्या यह सिद्ध करती है कि इस नगरी की लोगों को चमक से अपनी ओर खींचने की ताकत में कोई कमी नहीं आयी है । और यह कैसे मान लिया जाये कि यहाँ पहुँचने वाले सभी लोग इसके अच्छे - बुरे किस्सों से अछूते हैं । फिर भी अपने को इस ओर भागने से नहीं रोक पाते । ऐसे में कास्टिंग काउच और इसी प्रकार के अन्य आरोपों की सच्चाई पर चर्चा करना बेमानी है । अर्थशास्त्र का सीधा डिमाण्ड - सप्लाई का मामला है । अगर तू वो न करने के लिये तैयार है तो - कई और लाइन में खड़े हैं । सप्लाई ज्यादा और डिमाण्ड कम । बाकी सब बाजार के हवाले से स्वत: होता है । या कुछ लोग करने की हैसियत में आ जाते हैं । फैशन में कपड़े की कम्पनी का मालिक या दि डर्टी पिक्चर में सुपर स्टार सूर्या ।

नायला के शब्दों में अगर वो सिल्क के बारे में नहीं लिखती तो ज्यादा बुरा होता बनस्पत इसके कि वो सिल्क के बारे में बुरी बातें लिख रही थी इस बात को स्थापित करता था कि मीडिया प्रचार क साधन है । नायला का चरित्र कार्पोरेट फिल्म में हाई - सोसाईटी में दखल रखने वाली एक ऐसी ही जर्नालिस्ट के काफी करीब दिखा । और यह तथ्य की मीडिया से रिश्तें बनाना सभी के लिये जरूरी है खुलकर सामने आया। मीडिया के कुछ चुनिन्दा लोगों को हर दुनिया के अन्दरखाने तक पहुचँ होती है जो उन्हे बड़ी खबरें दिलवता है और बेस्ट जर्नलिस्ट का अवार्ड भी ।

क्या हुया जो सिल्क उचाईयों से गिर रही थी - शकीला चढ़ भी तो रही थी ।

पू.वि.वि. से पुलिस वाले चले गये !

पू.वि.वि. से पुलिस वाले चले गये !
(अपने प्रशिक्षण स्थलों से रवाना हुये और प्रदेश को मिले हजारों सिपाही)

शुक्रवार, 23 दिसम्बर 2011

... लगभग एक वर्ष की शिक्षा - दीक्षा के बाद आज हमारे विश्वविद्यालय से तकरीबन 550 प्रशिक्षु पुलिस वाले (सिपाही) चले गये । उनसे बात करके पता चला कि इस दल से सिपाही बने लगभग 400 सिपाहीयों को एक हफ्ते की छुट्टी के बाद जौनपुर के थानों में ही तैनाती मिल गयी है । बाकी सिपाही सूबे के अन्य जिलों में तैनाती के लिये कूच करेगें ।

आपकी यादों को ताजा करने के लिये बताते चलें कि यह वही पुलिस वाले हैं जिन्होंने मुलायम सिंह सरकार के जमाने में अपनी लिखित और शारीरिक परीक्षा पास की थी । फिर मायावती सरकार ने आते ही इस परीक्षा में बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगाते हुये कई जांचे बैठाई । फिर मुकदमे लड़ते हुये जब अन्तत: सफल अभ्यर्थी अपनी बात मनवाने में सफल हुये तो सरकार को इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी पड़ी ।

इतनी बड़ी संख्या में सिपाहियों को ट्रेन करने के लिये मुरादाबाद और सीतापुर के पुलिस ट्रेनिंग कालेज नाकाफी साबित होने लगें तो वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में कई स्थानों पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी । जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय में भी लगभग 550 रंगरूट प्रशिक्षण के लिये जनवरी 2011 में आये थे ।

जब मुझे इसका पता चला था की हमारे विश्वविद्यालय में पुलिस वालों के ट्रेनिंग होगी तो मन में अच्छे भाव नहीं आये । क्योंकि, पुलिस वालों की जो सार्वजनिक छवि है वो आखों के सामने आ गयी । जब एक - एक पुलिस वाले की वीर गाथाएं ही मानस पटल पर उभर रही थी तब मन यह सोंच करके ही उद्वेलित हो गया कि जहाँ एक साथ 550 पुलिस वाले होंगे तो क्या हाल होगा । मन मसोस कर रह गया कि अब एक साल तक वि.वि. के वातावरण का बंटाधार होना निश्चित था । रोज नये किस्से सामने आने की आशंका से चिंतित हो उठा । लूट, अवैध वसूली, हफ्ता वसूली और छेड़-छाड़ आदि की घटनाओं में इजाफा होना मानों तय सा लग रहा था ।

पर इनकी ट्रेनिंग का समय जब पूरा हुआ तो लग रहा है कि सारी की सारी आशंकाएं निराधार साबित हुयी । एक भी घटना नहीं हुयी । अलबत्ता यह समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला । कब कौन सी ट्रेनिंग हुई पता ही नहीं चला । वि.वि. के किसी काम में व्यवधान पड़ा हो, मुझे याद नहीं । किसी छात्र - छात्रा ने इनके होने से किसी प्रकार की समस्या जाहिर कि हो, ऐसा कभी नहीं हुआ । इस दौरान आस - पास के दुकानदार, चाय वाले, ढ़ाबे वाले आदि सब इनके अनुशासन के कायल हो चले हैं । दस मिनट - मतलब दस मिनट और वापस फील्ड में हाजिर होना है । नहीं तो ट्रेनर की लताड़ और दण्ड भी ।

कभी - कभार, सुबह - सवेरे की सैर के दौरान इन रंगरूटों से भेंट हो जाती तो वे वि.वि. के प्रति जिम्मेदार व्यवहार करते नजर आये । वि.वि. के प्रति इनका एक बड़ा योगदान यह है कि वि.वि. एक बड़ा मैदान जो उजाड़ खण्ड पड़ा था उसे समतल कर इस पर ट्रेनिंग करायी गयी । अभी हाल में वि.वि. के शिक्षकों ने एक क्रिकेट मैच भी इसी मैदान पर खेला ।

पर अब रूखसती का समय है और फिर तैनाती !

अब यह सभी रंगरूट नहीं, वरन उत्तर प्रदेश पुलिस के सिपाही बन चुके हैं । जिन पर प्रदेश की जनता की जान - माल की रक्षा का भार है । देखना यह है कि क्या अपने आगामी जीवन में जब यह लोग सिस्टम का हिस्सा होगें तो क्या इनकी सहजता और सहदृयता ऐसे ही बनी रहेगी । क्या यह सभी ऐसे ही ईमानदार बने रहेंगे और तारीफे़ पाने लायक काम करते रहेगें ।

यकीन तो नहीं है पर फिर भी दिल खुशफहमी पाले ले रहा है ।

2011-12-05

छोटे राज्यों में औद्योगिक विकास का सच

उत्तरान्चल के उद्यमियों की जुबानी सामने आता छोटे राज्य में विकास का एक पहलु और साथ ही छोटे राज्यों से बेहतर विकास हासिल करने की अवधारणा को खारिज करता एक लेख:

देश में आज ऐसा राजनैतिक महौल है जिसमें हर तरफ से छोटे राज्यों की वकालत में आवाजें ऊठ रही है । क्या विदर्भ, क्या हरित प्रदेश, क्या पूर्वांचल और बुन्देलखण्ड । एक और जमीनी सच्चाई यह भी है कि सोन और बेतवा के आस-पास के निवासी भी अपने लिये एक अलग राज्य की आस लगा बैठे हैं । भाषाई, ईलाकाई और सभ्यता की भिन्नता के आधार पर छोटे राज्यों की यह वकालत मुझे बरबस ही इतिहास की किताबों में पढ़ी हुई आजादी मिलने के आसपास के दिनों की याद दिला देती है । यह कि किस तरह से सरदार पटेल ने उस समय बहुधा व्याप्त रजवाड़ों एवं इलाकाई सरदारों से निजात दिलाकर आजाद भारत के संघीय ढ़ाँचे को एक साकार रूप देनें में अपनी जान लगाई । जिस कारण वे लौह पुरूष भी कहलाये ।

मेरे मित्र और तर्कशास्त्री शेषनाथ सिंह मेरी इस आशंका को सिरे से खारिज करते हैं और उस समय के सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश को आज से बहुत भिन्न होने का तर्क देतें हैं । उनकी निगाह में मेरी आशंका निराधार है कि भारत एक बार फिर से रजवाड़ों और कबीलाई सरदारों की सत्ता की ओर बढ़ रहा है । यहाँ पर मेरे पूर्व सहकर्मी ड़ा शुभोजीत बनर्जी के कथन का उल्लेख करना चाहुँगा जिन्होने मेरे साथ की गयी अपनी अनगिनत यात्राओं के दौरान मुझे बहुत सी गूढ़ ज्ञान की बातें बतायी । जिनमें से एक यह भी रही कि सामाजिक और परिवेश की दष्टि से " हम कभी मध्य कालीन युग से बाहर आये ही नहीं और मार्डन काल में होने की बात सिर्फ एक अवधारणा भर है । " उनका यह कथन शायद मौजूदा समाज में व्याप्त कुव्यवस्था और कुरीतीयों पर एक व्यंग या काटाक्ष भी हो सकता है पर मैनें इस कथन पर उनका स्पष्टीकरण कभी नहीं माँगा ।

एक ओर राजनेता जन भावनाओं के सागर में समायिक एवं कृत्रिम लहरें एवं हिलोरें उठावाकर राज सत्ता पर काबिज होने की अपनी महत्त्वकांक्षा को जन - आन्दोलन का नाम देतें रहें और दूसरी ओर व्यवस्था के लिये जिम्मेदार आला नौकरशाही छोटे राज्यों से व्यवस्था के सुगन संचालन की दुहाई रूपी तर्क देते रहें, पर जमीनी सच्चाई समाज के अलग - अलग वर्गों से मालूम कर एक समग्र परीक्षण की आवश्यकता है । छोटे राज्यों के पक्ष में दिये जाने वाले अनेकों तर्कों में से एक यह भी है कि व्यवस्थात्मक सुगमता होने के कारण विकास और खासकर औद्योगिक विकास का पहिया जोर से घूमेगा और जैसा कि भारत में चिर काल से होता आया है - राजसत्ता इससे जन - साधारण के भला होने का तर्क देती है । जिस देश में महात्मा गाँधी की लेखनी ने समाज के अन्तिम व्यक्ति के विकास को सर्वोपरि माना हो उस देश में अपने को राष्ट्रपिता का असली राजनैतिक वंशज बताने वाले हर राजनेता का यह परम धर्म है कि वह भी ऐसे ही तर्क दे । क्योकिं ऐसे तर्क भारत में प्रमाणीक रूप से ’पालिटिकली सेलेबल थाट’ सिद्ध हुये हैं ।

इस पृष्ठभूमि में 2006 में की गयी हिमाचल यात्रा का एक अनुभव बताना स्थानोचित होगा । 1966 में पंजाब से अलग होकर बना हिमाचल राज्य वर्ष 2006 तक अपने लिये सिर्फ एक ही राज्य विश्वविद्यालय से काम चला रहा था । 1966 से 2006 तक के चालीस वर्षों के सफर में शिक्षा के क्षेत्र में यह काफी उल्लेखनीय प्रगति कही जा सकती है । और दूसरा अनुभव हाल ही में की गयी उत्तराखण्ड यात्रा के दौरान हुया । उत्तराखण्ड जो अपने गठन के समय उत्तरान्चल था - का मौजूदा नाम मुझे पसन्द नहीं आया । मुख्यता इसलिये, क्योकिं इसमें पूरे उत्तारंचल गठन के आन्दोलन की आत्मा का नाश सा होता दिखता है । खंड और आंचल शब्दों के लिये मन में जो भाव आतें है वो भी एक से नहीं हैं । आंचल के लिये आन्दोलन हुये, जाने गयी पर जन-अपेक्षाओं की आत्मा जीवान्त हो उठी थी । राज्य विभाजन के समय भी, उस समय के दर्द को कम करने के लिये तर्क गढ़ा गया कि विभाजन से टुकड़े नहीं होंगे वरन एक आंचल का अधिकाधिक विकास होगा ।

उत्तर प्रदेश (यू.पी.) पर इस इलाके विकास के लियी ध्यान न देने का आरोप था और सिवाय इसके कि राज्यपाल का ग्रीष्म कालीन एक आवास देहरादून में भी था, यू.पी. की प्रशासनिक मशीनरी इस आंचल की ओर ध्यान नहीं देती थी । या फिर जब आला नौकरशाही को अपने बीबी बच्चों के गर्मियों की छुट्टीयाँ बिताने की याद आती थी तो उत्तरांचल में बने सरकारी गेस्ट हाउस और सरकिट हाउस से लेकर सितारा दर्जों के होटलों तक की पूछ होती थी । विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश के सरकारी हाकिम अपने उत्तरांचली समकक्षों को व्यक्तिगत स्तर पर विभाजन के विषय में वही दुहायी देते देखे गये जैसी फिल्म सरफरोश में शायर बने नसीरुद्दिन शाह ने दी थी, कि दिल्ली में बैठे हुये कुछ सरफिरों ने देश के नक्शे पर एक लकीर (सर रेडक्लिफ लाइन) खींच दी और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान असतित्व में आ गये । पर आवाम के दिलों में लकीर खींचना मुश्किल है और इसलिये वो शायर दोनों मुल्कों को एक ही मानता था । ऐसा करने की उसकी निजि गरज क्या थी, ये फिल्म देखने वाले हर व्यक्ति को मालूम है । ठीक वैसे ही उत्तर प्रदेश के सरकारी हाकिम उत्तरांचली हाकिमों से अपनत्व का सम्बंध जोड़ते फिरते थे । गरज क्या थी, यह भी सबको मालूम है । उत्तराखंड नाम मुझे इसलिये भी पसन्द नहीं आया क्योंकि खण्ड शब्द कहीं मन के भीतर खाने में कचोटता है और समग्र भारत की अवधारणा पर चोट करता है ।


वर्ष 2011 समापन की बेला में उत्तरांचल यात्रा तक यह उत्तराखंड हो चुका है । और अब मुझे पृथक राज्य की विकासवादी होने की अवधारण को परखने की ज़मीन तैयार दिखी । इसके पूर्व की यात्रा उत्तरान्चल स्थापना के शुरुआती दिनों में वर्ष 2001-2002 में की थी । सामान्य जन जीवन से शुरू करता हूँ । जन-मानस को कोई अमूलचूल लाभ हुआ हो कह नहीं सकता पर नेताओं और अफसरों को हुआ लाभ शुद्ध रूप से दिख रहा था । नेताओं, मन्त्रियों, विधायकों, आदि के लिये कुछ और पद अब मौजूद थे और उनपर काबिज होने की ईच्छा रखने वालों की सलाम-बन्दगी की दौड़ अब लखनऊ के रास्ते नहीं, देहरादून के रास्ते दिल्ली तक जाती थी । 2001 एवं 2002 में भी मेरा यहाँ आना हुआ था । पर तब और अब के प्रदेश में बहुत कुछ बदला - बदला नजर आया । तब जनता में उत्साह था कि नया - नया राज्य 2000 में बना है और उनकी आखों में विकास के करीब होने के सपने थे । जो शायद अब सच्चाई की धूल में धूमिल पड़ चुके हैं । इस एक दशक में जनता और गांधी का वो आखिरी आदमी इस बात को पूरी तरह समझ कर आत्मसाथ कर चुका था कि उसके हिस्सें में जो आना था वो लम्बी सरकारी जद्दोजहद के बाद मिलने वाली वही विधवा पेन्शन और विकलांग पेन्शन की चेक है जोकि किसी नेता के सार्वजनिक समारोह में दी जाये या दफ्तरों के गलीयारों में - सुविधा शुल्क देना ही पड़ेगा, धक्के खाना ही पड़ेगा ।

विकास के नाम पर सड़कों की हालत उत्तर प्रदेश से कुछ बेहतर दिखी पर इतनी बेहतर भी नहीं कि गुणगान किया जा सके । उदाहरण के तौर पर काशीपुर को मुरादाबाद से जोड़ने वाली सड़क, काशीपुर में उतनी बुरी हालत में नहीं थी जितनी की उत्तर प्रदेश की सीमा में मुरादाबाद की तरफ । पर काशीपुर इण्डस्ट्रीयल एरिया में भी बड़े - बड़े गढ्ढ़े थे । जिनपर पैबन्द (पैच) लगाने का काम चल रहा था । जोकि उत्तर प्रदेश की सीमा में उनसे बड़े गढ्ढ़े होने के बाद भी नहीं चल रहा था । पर विकास की हकीकत यह रही कि जो पैबन्द लगाये जा रहे थे वो अगली पूर्णमासी देख पायेगें, इसमें मुझे शक है ।

मतलब विकास का अपना ढ़र्रा है जोकि अपने हिसाब से ही चलेगा । और क्रमिक विकास का सिद्धान्त कि - विकास एक धीमी प्रकिया है - जीवान्त होता दिखा । ’ट्रिकिल डाउन थ्योरी’ अब उत्तराखण्ड पर भी लागू हो रही थी और समाज का वो अन्तिम आदमी अपने समग्र विकास की बाट जोहता दिखा । आम आदमी के बाद अब एक नजर औधोगिक विकास पर डालते हैं । विभाजन के बाद उत्तरान्चल ने औद्योगिक विकास का परचम निश्चय ही बुलंद किया है । काशीपुर, हरिद्वार, पंतनगर, सेलाक्युई, देहरादून, सितारगंज और कोटद्वार ने देवभूमि उत्तराखण्ड को देश के धार्मिक और आध्यात्मिक नक्शे के अलावा औद्योगिक नक्शे पर भी स्थापित किया है । और हिमाचल प्रदेश के बड्डी से निकटता के कारण एक दूसरे के समर्थन में काम करते हुये देश को कई बेहतरीन कारखाने दिये हैं । जहाँ यह पहलू कुछ सुकून दे सकता है वहीं उद्योगपतियों से बातचीत कुछ अलग ही दास्तां बयान करती है ।

एक मझोली उत्पादन क्षमता वाली पेपर मिल के मालिक को जब मैंने छोटे राज्यों की विकासवादी महानता के गुणगान का रट्टापाठ वाला प्रचलित राष्ट्र गीत सुनाया तो ऐसा लगा मानों उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो । तब उन्होनें अपना नजरिया पेश किया कि उनके हिमाचल प्रदेश के मित्र ने विभाजन पूर्व उनसे कहा था कि जब छोटे राज्य बन जाओगे तब बात करेगें । आज उन्हे अपने हिमाचली मित्र की बातों में नीहित सच का भान हो चला था । उनके शब्दों में "पहले हम भूसे के ढ़ेर में सुई थे अब हम खुद भूसे का ढ़ेर हैं । तब हमें ’कोई’ पूछता नहीं था अब सीधे उँचे - स्तर से हमसे ’अपेक्षा’ की जाती है ।"

यह बड़ी अर्थपूर्ण बातों का दौर था । उनसे वार्ता के इस दौर में सरकारी तंत्र के द्वारा दिया जाने वाला बेहतर शासन और अनुशासन की दलील का एक और कटु - पहलु नजर आया । और तंत्र की जगमाती दुनिया के पीचे का नंगा सच एक बार फिर उकेरा गया । इस उद्योगपति का इशारा व्यापार और अद्योगिक इकाइयों से सरकारी तन्त्र के द्वारा की जाने वाली लूट (वसूली) की ओर था । बड़े राज्यों में जब कई इकाइयाँ होती थी तो सरकारी प्रवर्तन से जुड़ी मशीनरी का ध्यान आदतानुसार बड़ी इकाईयों की ओर ही जाता था । छोटे और मझोले उद्योगों की ओर तंत्र के लोगों का ध्यान कम ही जाता था । मतलब लूट-खसोट की ज्यादा अपेक्षा बड़ी इकाइयों और व्यापारों से होती थी । पर जब राज्य बट गया और अफसरों की फौज घटने के बजाय एक नयी जमात के साथ अपनी संख्या को, चुस्त प्रशासन की दलील के साथ, बढ़ाती हुई सामने आयी तो छोटे और मझोले उद्योग भी तंत्र की निगाहों में आ गये और हाकिमों द्वारा की जाने वाली वसूली की ज़द में स्वत: शामिल कर लिये गये । उदाहरण के तौर पर विकासवादी राजनैतिक पार्टियों की आये दिन होने वाली रैलियों और सभाओं का हवाला देते हुये उन्होनें कहा कि इनके वित्तपोषण के लिये अब ’उँचे स्तरों’ से अपेक्षा की जाती है । विभाजन के पूर्व इतने उपर के राजनैतिक स्तर से कभी छोटे और मंझोले उद्योगों से अपेक्षा नहीं की जाती थी । और यहाँ भी बताते चलें कि विकासवादी छोटे राज्य में सरकारी तंत्र की रोजमर्रा की सुविधा शुल्क की अपेक्षाओं में कोई फर्क नहीं आया हैं । विकास की ट्रिकल डाउन थ्योरी यहाँ पर पूरी तरह काम करती दिखी । बस फर्क इतना था कि विकास नहीं अपेक्षाएं ’ट्रिकल डाऊन’ करती दिख रहीं थी ।

अब छोटे राज्यों की एक और सच्चाई का जिक्र करना चाहूँगा । प्रश्न यह है कि छोटे होने से क्या उत्तराखण्ड ही एक छोटा राज्य बना जिसका कि विकास बहुत ज्यादा होने की अपेक्षा की गयी । क्या विभाजन से उत्तर प्रदेश पहले से छोटे एक राज्य के रूप में सामने नहीं आया ? इस छोटे उत्तर प्रदेश को क्या फायदा हुआ ? इसके विकास की बात क्यों नहीं की जाती है ? विभाजन से छोटे हुए उत्तर प्रदेश को क्या मिला ? क्या इस छोटे उत्तर प्रदेश में गांधी का वो आखिरी आदमी नहीं रहता है ? उसे विकास की जरूरत नहीं है ? या आगे जो नये राज्य उत्तर प्रदेश को विभाजित कर बनाये जायेगें उसके बाद मूल में जो रह जायेगा, उस उत्तर प्रदेश को मूलत: सर्व साधन सम्पन्न मान लिया गया है, जिसे किसी प्रकार के संसाधनों और विकास की जरूरत नहीं है । आखिर ऐसा क्यों ? विकासवादी नदी क्यों एक ही दिशा में बहे और कुछ खेतों को सींचने की जिम्मेदारी अपने ऊपर उठाये हुये बहती रहे । चाहे बाकी खेत सूखे रह जायें । इसकी आवाज कौन सा राजनेता या राजनैतिक दल उठाएगा ?

और जब आवाज उठाएगा तो विकास के नाम पर और विभाजन होगा । और बाँटते चले जाने के कारण एक दिन हम फिर से रजवाड़ो और कस्बाई सरदारों के दौर में नहीं पहुँच जायेगें । रजवाड़े और इलाकाई सरदार आवाम पर जुल्म ढ़ाने के लिये नये - नये कर (टैक्स) लगाकर उसे जालिम कोतवालों और हाकिमों से वसूलवाते थे । छोटे राज्यों के राजनेता और अफसर अपनी राजनैतिक एवं प्रशासनिक हैसियत के अनुसार जनता का और उद्योगों का अवैध दोहन कर रहें हैं । ड़ा बनर्जी का कथन प्रासंगिक लगता है कि हम मध्य काल से कभी बाहर आये ही नहीं ।

जय नव विकासवाद ! जय नव वसूली वाद ! जय मध्यकाल !
हमें नव काल की प्रतीक्षा है । और एक नये अविभाजनवादी (संयुक्त) राजनैतिक सोंच की भी ।

संयुक्त राज्य अमेरीका का उदाहरण :

सामाजिक एवं राजनैतिक ढ़ांचे के आधार पर भारतीय राज व्यवस्था और संयुक्त राज्य अमेरिका में काफी समानताएं हैं । बहु जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा आदि की समानता, व्यक्ति के अधिकारों की समानता और लोकतांत्रिक राज व्यवस्था आदि समानताएं तत्काल ही मेरा ध्यान आकृष्ट करती हैं । सभ्यता, भाषा और विचारों की भिन्नता से अमेरीका भी लबरेज़ है और भारत भी । तब भी पूरे अमेरीका में मात्र 50 राज्य ही हैं । जबकी क्षेत्रफल के लिहाज से वो भारत से लगभग तीन गुना बड़ा है ।

अमेरीका के राज्यों का क्षेत्रफल विस्तार कुछ इतना बड़ा है कि कईयों में तो एक से अधिक टाईम जोन तक हैं । यानि पूरे राज्य में एक ही समय सवेरा और शाम नहीं होती है । बहुत से राज्य और शहर तक अपने लोकल टाइम से चलतें हैं । तो हमारे राजनेताओं के अनुसार तो वहाँ विकास होना तो दूर, लोगों ने विकास का नाम भी नहीं सुना होना चाहिये ।

इसके उलट पूरी दुनिया में नव समाज और उदारवादी पूंजीवाद का स्वत: नियुक्त नायक होने के बाद भी आजतक वहाँ व्यक्तिगत ’फीफडम’ का असतित्व है । मौजूदा भारतीय विचारों के अनुसार तो वहाँ सैकड़ों राज्य होने चाहिये थे । और विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन की शायद अमेरीका को बहुत जरूरत है । पर अमेरिका में विकास के हाल की बानगी किसी को बताने की जरूरत नहीं है । जहाँ अमेरीकी जमींदारों के पास हजारों एकड़ की ’राँच’ (जमीन रूपी सम्पदा) है वहीं उसकी आबादी का एक बड़ा भाग लाइन में लगकर कल्याणकारी राज्य का टिकट वाला खाना खाता है । जो हमारे यहाँ स्कूलों में मंध्यान भोजन (मिड डे मील) के नाम से प्रचलित है वो शायद वहाँ पर आबादी के हर उस व्यक्ति को उपलब्ध है जोकि राज्य पर उसकी जिम्मेदारी डालना चाहे । और राज्य भी इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिये तत्पर रहता है । वो राज्यों के बड़े होने के कारण जनता के लिये पर्याप्त साधनों के आभाव का रोना नहीं रोते ।

इस विचार से विकास के लिये छोटे राज्यों से ज्यादा एक परिपक्व राजनैतिक सोंच की ज्यादा जरूरत है । जिस दिन हम घूसखोरी और कमीशनबाजी से मुक्त होकर सरकारी ठेकों में काम पूरा कराना सीख जायेंगें, राज्य छोटे हो या बड़े - विकास संभव हो जायेगा । सच्चाई तो यह भी लगती है कि छोटे राज्यों की मांग राज नेताओं की एक जमात के द्वारा शायद इसलिये भी की जाती है कि सरकारी धन की सर्वव्यापी लूट की प्रक्रिया जितनी अपने पास हो उतना अच्छा और जितने पास हो उतना अच्छा । कि कौन दूर जाकर खजाना लूटे, क्यों न खजाने को अपने पास बुला लिया जाये ।

छोटे राज्यों की आवश्यकता को खारिज करने में मेरा एक तर्क यह भी है कि एक तरफ जो सरकारी मशीनरी अपने मौजूदा बोझ तले दबती दिखायी पड़ती है और सरकारी कामगारों की फौज के निक्कमेंपन की दास्तानों से टनों कागज़ स्याह हो चुका है, वहीं दूसरी ओर नये राज्यों के गठन के साथ ही सबसे पहले किये जाने वाले कामों में से एक यह भी है कि नये राज्यों के बेहतर प्रबन्धन की जरूरतों का हवाला देते हुये तुरन्त हजारों की संख्या में सरकारी हाकिमों और कारिन्दों की फौज सत्ता की सेवा को जोड़ ली जाती है । और फिर आगामी सरकारें अपने खर्च के बोझ का हवाला देते हुये उन्हे निकालने के प्रयोजन करती दीखती हैं । उत्तर प्रदेश और उत्तरान्चल के कर्मियों के बटवारे का मुद्दा भी आज तक नहीं निस्तारित हुआ है ।

लम्बे समय से चले आ रही राज्य व्यवस्था में काम करते हुये राज्यों ने अपने संसाधनों का विकास और उनके प्रयोग की व्यवस्था भी बना ली होती है । जोकि विभाजन से अनेकों रूप से प्रभावित होती है । उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश से उत्तरान्चल के अलग होने पर बहुत सी पन-बिजली परियोजनायें उत्तराखण्ड के भू-भाग में होने के कारण उधर चलीं गयीं । ऐसा ही हालत में छ्त्तीसगढ़ में बिजली परियोजनाएं होने के कारण मध्य प्रदेश का और झारखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों के होने के कारण बिहार की अर्थव्यवस्था को भी झटका लगता है । इस ठेस की (चाहे जिसे भी लगे) की भरपाई के लिये जनता पर ही तो नये टैक्स और खर्चे लादें जातें हैं या केन्द्रीय मदद की ओर मुँह ताका जाता है । पर समाज का वो आखिरी आदमी (वो चाहे जिधर भी हो) ही पिसता है । पहले कोई विकास के इन्तजार में फिर कोई विकास से जुदा होकर, आभाव में । कुल नतीजा चुनावी अंकगणित में कुछ वोटों के अलावा और कुछ जोड़ता नहीं मालूम पड़ता और उस आखिरी आदमी के लिये सिफर ही दीखता है । पर शासकों का फील गुड पक्का।

उत्तर प्रदेश में मौजूदा प्रस्तावित राज्य विभाजन के प्रयोग में भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस दर्द का भी दबाव है कि वे पूरे प्रदेश के सबसे ज्यादा उपज करने वाले क्षेत्र हैं और सरकारी खजानें में बहुत कुछ उनका ही दिया हुया है । तो खर्च भी उनपर ही सबसे ज्यादा होना चाहिये । जबकि अर्थशास्त्र की किताबों में जो पढ़ा उसके अनुसार कराधान में "नो क्विड् प्रो क्यो " का सिद्धान्त लगता है । सीधे शब्दों में कर दाता राज्य को अपने द्वारा अदा किये गये टैक्स के बदले इस बात के लिये बाध्य नहीं कर सकता है कि राज्य इस टैक्स को उस कर दाता के कहे अनुसार खर्च करे । हाँ सूचना का अधिकार आने से इतना जरूर संभव हुआ की लोग बाग हिसाब किताब की जानकारी अपने हाकिमों से मांगने लगे । पर किस्ज़्ज़्ज़्ज़ि व्यक्ति विशेष

अपने मन-माने ढ़ंग से ख्रर्च करने केलिये

बेनिफिट

जबकि इसके उलट प्रस्तावित पूर्वांचल वह क्षेत्र है जो कि सरकारी खजाने में जमा कम करता है पर खर्च ज्यादा करता है । तो हरित प्रदेश को आपत्ती है कि पूर्वांचल के लोग उनके पैसे पर क्यों मौज करें । अब अगर कल्याणकारी राज्य की शीर्ष सत्ता में बैठे लोग इन विचारों के समर्थन में उतर कर राज्य विभाजन के लिये आगे बढ़तें हैं तो क्या वे हमें रजवाड़ों और कबीलाई विचारधारा के करीब नहीं ले जा रहें हैं । और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते एक दिन कोई सिरफिरा नेता मेरठ राज्य और बनारस राज्य की मांग नहीं उठा देगा ? या यह कि मुज्जफरनगर वाले ज्यादा खातें हैं पर अपना गेहूँ तो कम ही उगाते नहीं - जैसी बातें सामने आ जायेंगी ।

फिर अमेरीका के राष्ट्रपति जब यह कहतें है कि भारत और चीन के लोग ज्यादा खा रहें हैं इसलिये दुनिया भर में खाद्यानों के दाम बढ़ रहें है, तो हमें बहुत बुरा भले ही लगे और इस पर हमारी प्रतिक्रिया बौद्धिक रूप से चाहे जितनी तीक्ष हो, पर अमेरीका के साथ युद्ध में नहीं बदलती । पर जब बात मेरठ राज्य और मुज्जफरनगर राज्य के बीच होगी तो निश्चय ही तलवारें खिचनें में कोई समय नहीं लगेगा । क्योंकि तर्क पर कभी या एक बारगी तो भावनायें भारी पड़ ही जाती हैं ।

मेरी नजर में विषमतायें और विविधतायें एक संघीय राज व्यवस्था को और मजबूत करतीं हैं । बिलकुल वैसे ही जैसे एक संयुक्त परिवार में सम्पन्न भाई अपने से कम साधन - सम्पन्नता वाले भाई को हमेशा मदद के लिये तैयार रहता है पर फिर भी उससे अलग होने की बात नहीं करता था । आज यही विघटनवादी सोंच जो हमारे परिवारों में रसोईघरों की संख्या बढ़ाने में अपना योगदान देती रही अब राज्यों की संख्या बढ़ाती मालूम पड़ रही है । और इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उन्ही राजनेताओं के हाथ में निर्णय की चाभी है जोकि इस विघटनवादी विचारधारा के पोषक हैं । तो वैचारिक धरातल पर भी इसे खारिज करने की या इससे अलग विचारों के प्रसार की संम्भावना समाप्त होती दीखती हैं । राजनैतिक पार्टियों में भी विचारों का निर्माण और उन पर निर्णय पार्टी के व्हिप के आधार पर होने का युग आया तो मौलिक विचारों की मृत्यु और तिलांजली भी पूरी होती है । व्हिप से अलग बोलना मानों बगावत के समान है तो कौन राजनैतिक रणबांकुरा पार्टी लाइन से हटकर बोलकर अपने राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना चाहेगा ।

यदि यह तर्क न हजम होते हों तो पारिवारिक विघटन के बाद सामाजिक विघटन के रास्ते पोषित होती हुयी विघटनवादी राजनैतिक सोंच हमें जिस मुहाने पर ले आयी है, उस परिदृश्य पर एक नजर डालें तो स्याह सच्चाई सामने घूम जायेगी और आने वाले भविष्य की झलक भी स्वत: दिख जायेगी ।

2011-11-21

वेलकम टू शिवपाल गंज !

राग दराबारी के शिवपाल गंज में स्वागत

नवम्बर 19, 2011.

"वेलकम टू शिवपाल गंज ।"

इन शब्दों के साथ शेष नाथ सिंह ने ’राग दरबारीय’ विधा में मेरा ’शिवपाल गंज’ में अभिवादन और स्वागत किया, जब मैंने उन्हे बताया कि मैनें अभी - अभी दिवंगत श्रीलाल शुक्ला की कालजयी कृति राग दराबारी का रस स्वादन शुरू करा है । यद्यपि उन्हे इस बात का शक भी था कि कहीं मेरे पास इस उपन्यास की उनकी प्रति तो नहीं है । पर उनकी इस शंका का मैंने तत्काल पुरजोर खंडन किया और यह बताने में कतई नहीं चूका कि इस प्रति को मैंने बाकायदा अपनी गाड़ी कमाई से जौनपुर में अपने मित्र और जिले के प्रमुख पुस्तक विक्रेता विकास पाठक कि दुकान ’किताब घर’ से खरीदा है ।

शेषनाथ को इसकी सूचना देना इसलिये प्रासंगिक है क्योंकि 1999 में एम.काम. की पढा़ई के दौरान उनसे हुये परिचय के बाद से आज तक के लगभग 13 वर्षों के सफर में उन्होनें अनगिनत बार इस कृति का हवाला किसी-न-किसी मौके पर किसी-न-किसी रूप में इसमें वर्णित किसी घटनाक्रम को उद्धरित करते हुये दिया है । हाल ही में अपनी बहन की शादी के अगले दिन जब मेहमान शादी स्थल से वापस चलने के लिये तैयार हो रहे थे तो भी वो इसी किताब से कुछ लाइनों का बखान करने से नहीं चूके थे । तो दिल के किसी कोने में यह ईच्छा और कौतहूल तो था ही कि मौका मिले तो इस कृति को भी पढ़ू और समझूं क्यों शेषनाथ गाहे - बगाहे इसके किसी कथाक्रम का उदाहरण देते रहतें हैं । इसके साथ ही, हाल ही में हुये श्रीलाल शुक्ला के देहान्त नें भी मेरी इस कृति के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी थी । इस पृष्ठभूमि में जैसे ही यह किताब मुझे विकास की दुकान पर दिखी तो अब और रुकने का कोई औचित्य नहीं था । और फिर इसकी सूचना शेषनाथ को इन शब्दों में की "आपके द्वारा बहुधा संदर्भित और रिकमेन्डेड किताब पढ़ रहा हूँ ।" बसों और ट्रेनों के सफर के दौरान समय काटने के लिये पड़ी, पढ़ने की इस आदत की वजह से अब तक बहुत सी कृतियों से दो-चार हो चुका हूँ ।

राग दरबारी के अभी कुछ ही पृष्ठ पढ़े हैं पर इतना समझ में आ रहा है कि 60 दशक में जो लिखा गया था वो बहुधा आज भी प्रासंगिक है । न पूरा सही, तो कुछ काट छांटकर ही, मगर यह आज भी भारत की राज व्यवस्था, समाजिक ढ़ाचे और राजनीतिक परिदृश्य पर एक सटीक और चुटीला ग्रंथ है ।

मैं समझता हुँ कि जैसे गुरुचरन दास कि किताब ’इन्डिया अनबाऊण्ड’ भारत की आजादी के बाद के आर्थिक परिदृश्य के एक लम्बे इतिहास से सरल, चुटीले और पाठक सुलभ अन्दाज में परिचय कराती हुयी उदारीकरण के मुहाने तक ला के छोड़ती है, वैसे ही राग दरबारी भारत को एक समाजिक सागर के रूप में देखती है । एक ऐसा देश और समाज, जो कि हाल ही में अंग्रेजों के लम्बे शासन के बाद आजाद हुया था । जिसमें विषमताओं के रंग है, भावनाओं का पुट है और यथार्थ की कटुता है । जिसे कि शुक्ला ने शायद एक नौकरशाह के चश्में से देखा और एक आम आदमी की कलम से लिखा । और हाँ, देखने और लिखने की इस पूरी प्रकिया पर उनकी खुद की अवधी पृष्ठभूमि की खुशबु मुझे पहले पन्ने से ही आना शुरू हो गयी थी ।


इस किताब का आगाज़ जिन ट्रकों के बारे में यह कहते हुये हुआ है कि इनका जन्म ही सड़कों के साथ बलत्कार करने के लिये हुआ है । अभी - अभी बरसात का मौसम खत्म हुआ है ओर बहुधा सड़कें अपनी हालत पर रोती हुयी मिल जायेंगी । सरकारी तंत्र ने इस हालत के लिये कमीशन खोरी के डामर और हराम खोरी के निरीक्षण से बनी हुयी कम गुणवत्ता वाली संड़कों को नहीं पर ट्रकों की ओवरलोडिंग को माना । जबकी ओवरलोडिंग के बावजूद जो दबाच कोई ट्रक सड़कों पर बनाता होगा उससे कहीं ज्यादा दबाव उससे बड़े - बड़े ट्रक और माल ढ़ोने के अन्य वाहन सड़कों पर बना रहें हैं ।

 

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