2011-11-21

वेलकम टू शिवपाल गंज !

राग दराबारी के शिवपाल गंज में स्वागत

नवम्बर 19, 2011.

"वेलकम टू शिवपाल गंज ।"

इन शब्दों के साथ शेष नाथ सिंह ने ’राग दरबारीय’ विधा में मेरा ’शिवपाल गंज’ में अभिवादन और स्वागत किया, जब मैंने उन्हे बताया कि मैनें अभी - अभी दिवंगत श्रीलाल शुक्ला की कालजयी कृति राग दराबारी का रस स्वादन शुरू करा है । यद्यपि उन्हे इस बात का शक भी था कि कहीं मेरे पास इस उपन्यास की उनकी प्रति तो नहीं है । पर उनकी इस शंका का मैंने तत्काल पुरजोर खंडन किया और यह बताने में कतई नहीं चूका कि इस प्रति को मैंने बाकायदा अपनी गाड़ी कमाई से जौनपुर में अपने मित्र और जिले के प्रमुख पुस्तक विक्रेता विकास पाठक कि दुकान ’किताब घर’ से खरीदा है ।

शेषनाथ को इसकी सूचना देना इसलिये प्रासंगिक है क्योंकि 1999 में एम.काम. की पढा़ई के दौरान उनसे हुये परिचय के बाद से आज तक के लगभग 13 वर्षों के सफर में उन्होनें अनगिनत बार इस कृति का हवाला किसी-न-किसी मौके पर किसी-न-किसी रूप में इसमें वर्णित किसी घटनाक्रम को उद्धरित करते हुये दिया है । हाल ही में अपनी बहन की शादी के अगले दिन जब मेहमान शादी स्थल से वापस चलने के लिये तैयार हो रहे थे तो भी वो इसी किताब से कुछ लाइनों का बखान करने से नहीं चूके थे । तो दिल के किसी कोने में यह ईच्छा और कौतहूल तो था ही कि मौका मिले तो इस कृति को भी पढ़ू और समझूं क्यों शेषनाथ गाहे - बगाहे इसके किसी कथाक्रम का उदाहरण देते रहतें हैं । इसके साथ ही, हाल ही में हुये श्रीलाल शुक्ला के देहान्त नें भी मेरी इस कृति के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी थी । इस पृष्ठभूमि में जैसे ही यह किताब मुझे विकास की दुकान पर दिखी तो अब और रुकने का कोई औचित्य नहीं था । और फिर इसकी सूचना शेषनाथ को इन शब्दों में की "आपके द्वारा बहुधा संदर्भित और रिकमेन्डेड किताब पढ़ रहा हूँ ।" बसों और ट्रेनों के सफर के दौरान समय काटने के लिये पड़ी, पढ़ने की इस आदत की वजह से अब तक बहुत सी कृतियों से दो-चार हो चुका हूँ ।

राग दरबारी के अभी कुछ ही पृष्ठ पढ़े हैं पर इतना समझ में आ रहा है कि 60 दशक में जो लिखा गया था वो बहुधा आज भी प्रासंगिक है । न पूरा सही, तो कुछ काट छांटकर ही, मगर यह आज भी भारत की राज व्यवस्था, समाजिक ढ़ाचे और राजनीतिक परिदृश्य पर एक सटीक और चुटीला ग्रंथ है ।

मैं समझता हुँ कि जैसे गुरुचरन दास कि किताब ’इन्डिया अनबाऊण्ड’ भारत की आजादी के बाद के आर्थिक परिदृश्य के एक लम्बे इतिहास से सरल, चुटीले और पाठक सुलभ अन्दाज में परिचय कराती हुयी उदारीकरण के मुहाने तक ला के छोड़ती है, वैसे ही राग दरबारी भारत को एक समाजिक सागर के रूप में देखती है । एक ऐसा देश और समाज, जो कि हाल ही में अंग्रेजों के लम्बे शासन के बाद आजाद हुया था । जिसमें विषमताओं के रंग है, भावनाओं का पुट है और यथार्थ की कटुता है । जिसे कि शुक्ला ने शायद एक नौकरशाह के चश्में से देखा और एक आम आदमी की कलम से लिखा । और हाँ, देखने और लिखने की इस पूरी प्रकिया पर उनकी खुद की अवधी पृष्ठभूमि की खुशबु मुझे पहले पन्ने से ही आना शुरू हो गयी थी ।


इस किताब का आगाज़ जिन ट्रकों के बारे में यह कहते हुये हुआ है कि इनका जन्म ही सड़कों के साथ बलत्कार करने के लिये हुआ है । अभी - अभी बरसात का मौसम खत्म हुआ है ओर बहुधा सड़कें अपनी हालत पर रोती हुयी मिल जायेंगी । सरकारी तंत्र ने इस हालत के लिये कमीशन खोरी के डामर और हराम खोरी के निरीक्षण से बनी हुयी कम गुणवत्ता वाली संड़कों को नहीं पर ट्रकों की ओवरलोडिंग को माना । जबकी ओवरलोडिंग के बावजूद जो दबाच कोई ट्रक सड़कों पर बनाता होगा उससे कहीं ज्यादा दबाव उससे बड़े - बड़े ट्रक और माल ढ़ोने के अन्य वाहन सड़कों पर बना रहें हैं ।

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