2013-12-24
झोले वालों के ’असली बसन्त’ पर खद्गदर वालों के पतझड़ का फातिया !
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Labels: केजरीवाल, झोलेवाले, शुचितानीत राज्नीति
2013-11-12
’A’ for Accounting और ’क’ से कामर्स पढ़ते हुये निगाहें क्षितिज पर रखना सिखाया
आपकी सिफत यह है कि इन्होने मुझे वाणिज्य और प्रबन्धन के वो बुनियादी सबक दिये जिन्हे समझने के लिये मैं ’A’ for Accounting और ’क’ से कामर्स कह सकता हूँ । मतलब आप समझ गये होंगे । कक्षा 11 - 12 यानि स्कूल के दिनों में इनसे मुलाकात करने के लिये बदस्तूर रोज सुबह 5:00 बजे उठ कर, सर्दी, गरमी बरसात की बे-रहमी झेलते हुये, अपने घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था ताकि सुबह 6:30 बजे से इनके सबक ले सकूं । साथ में मेरा एक सहपाठी और भी जाता था । @ surendra chawla याद है कि नहीं ?
लगभग बीस साल हो गये कक्षा 12 की परीक्षा पास किये हुये । इस बीच आपके बारे में यार - दोस्तों से, सहपाठियों से यदा कदा सुनता रहा । यह कि आपके बारे में जो सुनता रहा उसे शब्दों में नुमायां करना तो मुश्किल है पर यूँ समझ लीजिये कि शायद बहते पानी की तरह - जो कभी ठहरे नहीं । हमेशा नयी चुनौइयों से टकराये और नये आयाम के साथ नये मुकाम हासिल किये । और हर मुकाम हासिल होते ही क्षितिज भी ऊँचा हो गया ।
पूरे विश्वास के साथ तो नहीं कह सकता पर शायद ’रमता जोगी बहता पानी’ इसी को कहते होंगे । हमेशा बहते पानी के तरह आगे बढ़े और जहाँ पहुंच गये वहीं रम गये । रच - बस गये । पर क्षितिज से निगाहें न हटी । और आज भी आपका विश्वास देखकर लगता है कि कभी हटेंगी भी नहीं । आज भी उतने ही उर्जावान और नये विचारों से लबरेज । कुछ कर गुजरने की कुलमुलाहट ।
उम्र के इस पड़ाव तक आते - आते यह तो समझ में आ ही गया कि बुनियाद गहरी और मजबूत हो इसके लिये बुनियाद के मानक कड़े और कठोर होतें हैं । कौन जाने कि आगे जाकर इमारत को कौन - कौन से झांझवत झेलने पड़े । आपने हमें कड़े मानकों पर कसा और घिसा । जिसका लाभ मैं स्वयं कई बार खुद अलग - अलग किस्म की नयी इबारतें लिखकर उठा चुका हूँ । बहुत से मिथक तोड़े और नये आयाम कायम करते हुये आज भी निरन्तर लाभ ले रहा हूँ ।
इस मुलाकात की खास बात यह रही कि बीस वर्षों के बाद मालूम हुया कि जिन मानकों पर आपने हमें तौला और परखा उससे भी कहीं ज्यादा कड़े मानक आपने स्वयं, अपने लिये बनाये थे । अपने पर भरोसा इस कदर की पी.सी.एस. अफसर की सरकारी नौकरी से तौबा करने से नहीं चूके । यानि एक बार फिर - निगाहें क्षितिज पर होनी चाहिए और हर एक उपलब्धि के बाद क्षितिज ऊँचा उठ जाये ।
आपसे मिल कर एक ऐसी नयी उर्जा का संचार हुआ जिसकी शायद बहुत समय से जरूरत थी । खुद के भीतर जिस ठहराव से उबरने की जरूरत थी, वो मिली । इसके लिये अत्यंत आभारी हूँ । गुरु का ऋण चुकाना तो संभव नहीं और कोई प्रयास भी नहीं करना चाहता क्योंकि कुछ ऋण नहीं चुकाने का अपना आनंद है । बल्कि जब जरूरत हो और ऋणी बनने से भी नहीं चूकूंगा ।
सर, मैं जानता हूँ मेरी सीमा यहीं तक है । आपकी अनुमति के बिना आपको जाहिर नहीं कर सकता । पर आप चाहें तो आशीर्वाद दे सकतें हैं ।
आपका छात्र !
सचिन अग्रवाल
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2013-10-16
गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
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Labels: गांधी, बुनियादी बात, समाज
2013-10-15
राम, रावण एवं रावण तत्व । एक विमर्श !
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2013-09-27
सत्य के आग्रह से कतई परे, सत्याग्रह !
एक बात इस फिल्म में जोरदार तरीके से कह दी, कि अगर आप व्यापार में हैं और तो समाज सेवा और आन्दोलन का ख्वाब मत देखिये क्योंकि राजनीति आपको जीने नहीं देगी । पर राजनीति के उच्चतम शिखर पर भी आपका बड़ा और महा-भ्रष्ट व्यापारी होना काफी मददगार सिद्ध हो सकता है । क्योंकि मानव (अजय देवगन) को अपना 5000 करोड़ का बिजनेस (जो कि वास्तविकता में 6250 करोड़ का था ) छोड़कर ही सत्याग्रह में उतरना पड़ा । । इसके पलट सभी मन्त्री सरकारी बैठकों में अपने - अपने कारोबारी हित साधते नजर आये । यहाँ तक कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का नेता भी अपने कारोबारी हितों के चलते आन्दोलन से अचानक अलग हो गया ।
फिल्म के कुछ पहलुओं पर फिल्म से मेरा प्रश्न है । मध्य प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में बिहारी / भोजपुरी बोलने वाले विलेन टाइप नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) की क्या जरूरत थी ? क्या बुन्देलखण्डी बोलने वाला कोई किरदार बेहतर नहीं होता ? शायद ’गठबंधन की राजनीति ’ की मजबूरी रही होगी ?
मध्य प्रदेश में ’ हिन्दुस्तान ’ अखबार नहीं चलता है । वहाँ ’ नव भारत ’ की धूम है । पर पूरी फिल्म में प्रकाश झा हिन्दुस्तान अखबार दिखाने से बाज नहीं आये । मेरे विचार में यह रियालटी सिनेमा के सिद्धान्तों के विपरीत है । इसे हिन्दुस्तान अखबार के विज्ञापन के रूप में देखा जा सकता है । वैसे हिन्दुस्तान अखबार के अलवा फिल्म में ’ अल्ट्राटेक सीमेन्ट ’, हीरो की पैशन मोटर साईकिल, और किसी चावल के ब्राण्ड तो मुझे याद आ रहा है, जिनके की विज्ञापन दिखाये गये । इसके अलावा और ब्राण्ड भी हो सकते हैं ।
ए.बी.पी. न्यूज की प्रतिनिधि बनी करीना कपूर खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गयी और अम्बिकापुर में ही बस गयी । पत्रकारिता की निश्पक्षता पर यह सवाल खड़ा करता है । क्या वास्तव में ए.बी.पी. न्यूज अपने किसी संवाददाता को ऐसा करने देगा ? कि जब चाहे आन्दोलनकारी बन जाओ और जब चाहे रिपोर्टर ? साथ ही अजय देवगन और करीना का प्रेम प्रसंग (चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो) कथानक से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता । इस पहलू पर भारतीय फिल्म निर्माताओं को हालीवुड से सीखने की जरूरत है । कि काम से काम रखो, बिलावहज का रोमांस मत ठूसो ।
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2013-07-21
पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !
भारत पाकिस्तान के बटवारे के दंश को दोनों मुल्कों के इतिहास, साहित्य, लोकगीतों और अब फिल्मों के माध्यम से संजो कर रखा जाता रहा है । जहाँ आक्रमण, बार्डर और लक्ष्य जैसी फिल्में सीधे तौर पर दोनों मुल्कों की सेनाओं के टकराव को दिखाती हैं वहीं अब फिल्मों की एक जमात ने उस टकराव को खेल के मैदानों तक ला खड़ा किया हैं ।
’चक दे इण्डिया’ में भारत के एक मुसलमान हाकी खिलाड़ी के पाकिस्तान के खिलाड़ी से मैच के बाद हाथ मिलाने पर देश-द्रोही करार दिया जाना दिखाया । इस खिलाड़ी का कैरियर लगभग तबाह हो गया था । जिसे फिर से महिलाओं की हाकी टीम के कोच के रूप में आने के लिये काफी मशक्क्त करनी पड़ी । और जब तक महिलाओं के हाकी का विश्व खिताब जीत नहीं लिया उसका "गद्दार" का तमगा हटा नहीं ।
फिल्म में मिल्खा की जो कहानी दिखायी गयी उससे मालूम हुआ कि उनको ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक ने दिया था । किसी भी कामयाबी के लिये कड़ी मेहनत, लगन और जज्बे की जरूरत के महत्व को यह फिल्म रेखांकित करती है ।
गुरू, उस्ताद और मौलवी के महातम को भी बखूबी दिखाया गया है । पर एक बात जो दिल को छू गयी वह थी कि सिर्फ ’एक मग दूध और दो कच्चे अण्डों’ पर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार किये जा रहे थे । सोनम कपूर की अदाकारी में दिल्ली 6 वाला खिलंदड़ी अन्दाज बरकरार दिखा । फरहान अख्तर एथलीट कम और बाडी बिल्डर टाइप ज्यादा लगे ।
पाकिस्तान से विभाजन के वक्त जान बचा कर ’भागने’ पर मिल्खा के उपर चुभने वाली टिप्पणी पाकिस्तान के कोच ने की । निश्च्य ही फिल्म के कुछ भाग को हटाकर इसे कुछ छोटा किया जा सकता था । यह भी एक पीरीयड फिल्म है और कुछ glitches रह जातें है । चूंकि मिल्खा सिंह आज भी स्वयं जीवित हैं इसलिये यह माना जा सकता है कि उनके ऊपर बनीं फिल्म "भाग मिल्खा भाग" पर उनकी स्वीकृति भी है ।
और हाँ भविष्य में मैं एक फिल्म भारत - पाकिस्तान के क्रिकेट वर्ल्ड कप फाईनल पर भी देखना चाहूँगा । कोई फिल्म अगर आई-पी-एल आदि में मैच फिक्सिंग पर भी बने तो क्या कहना । मधुर भण्डारकर खेमें से हो तो बेहतर ।
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2013-03-28
उत्सवों के प्रतीक चिन्हों पर प्रश्नचिन्ह ?
होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के
प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को
होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की
प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित
सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही
तैयार हो रही होती हैं ।
होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है ।
इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों
के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।
ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील
तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है ।
या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को
फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा
कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का
प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने
का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।
मेरा प्रश्न इन प्रतीक
चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब
बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा
क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की
ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे
परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं
की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे
में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के
पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।
इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !
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2013-03-27
मृत्यु से निकट लाते जन्मदिन की बधाइयों का नाद ?
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मार्च की 18 तारीख जन्मदिन के रूप में आयी ।
संचार तंत्र के कई - कई माध्यमों की मदद से अनेकों ईष्ट जनों, मित्रों आदि
ने इस दिन मुझे बधाईयाँ प्रेषित करीं । आप सभी को धन्यवाद !
इस
दिन के बहाने से कुछ उद्गगार जो विगत कई वर्षों से साझा करना चाहता था आज
उकेर रहा हूँ । जीना बेतक्ल्लुफ़ होता जा रहा है इसलिये यह ठान लिया था कि
जब तक कह नहीं दूंगा, मानूंगा नहीं । तो चलतें हैं अपने स्कूल के दिनों में
।
बात मेरे हाई स्कूल से पहले के किसी वर्ष की रही होगी । उन
दिनों स्प्रिंग ड़ेल स्कूल, लखनऊ में ड़ा. ए. के. मिश्रा प्रिंसिपल थे ।
मिश्रा जी कड़क किस्म के प्रिंसिपल थे । कम शब्दों में वे अंग्रेजी की कहावत
Spare the rod and spoil the child वाली विरादरी के मास्टर थे । कहने में
कोई शर्म नहीं कि, कई बार मेरे तत्कालीन बाल शरीर को भी उनके इस बिरादरी के
समर्थक होने का अहसास हो चुका था । आदतन मिश्रा जी कम बोलने वाले रिजर्व
टाइप के इन्सान थे । छात्रों की क्या कहना, स्कूल के मास्टरों ने भी शायद
उन्हे कभी कभार ही हंसते - मुस्कराते देखा हो तो उनका सौभाग्य रहा होगा ।
एक बार, मिश्रा जी का जन्मदिन आया और जाने कैसे यह बात कुछ शिक्षकों के
माध्यम से छात्रों तक पहुँच गयी । जैसा कि मैं इस प्रकरण को समझ पाया, कि
उन मास्टरों ने अपनी चापलूसी का प्रदर्शन कुछ छात्रों के माध्यम से करने के
लिये स्कूल की सुबह की प्रार्थना सभा को चुना । रूटीन प्रार्थना सभा के
बाद कुछ ’अति प्रेरित टाइप’ के छात्रों ने मिश्रा जी को भरी प्रार्थना सभा
में जन्म दिन की बधाईयाँ दे डाली और उनकी शान में कसीदे पढ़ डाले । आदतन
मिश्रा जी मंच से प्रार्थना सभा समाप्त होने से कुछ पहले ही नीचे उतर चुके
थे । पर इस अप्रत्याशित घटना क्रम के कारण वे बहुत ही सधे हुये कदमों से
पुन: मंच पर चढ़े । जो चापलूस टाइप मास्टर इस प्रकरण के पीछे थे उनके चेहरे
पर प्रफुल्लित होने के भाव साफ देखे जा सकते थे । और अबतक मिश्रा जी मंच पर
माईक थाम चुके थे । फिर जो हुया उस एक वाकिये का बयान बड़ा ही मौजूं है ।
अनेकों अल्पविरामों और पूर्णविरामों से लबरेज, अपने चिर परिचित और बड़े ही
सधे हुये अन्दाज में मिश्रा जी ने औपचारिक एवं सार्वजनिक रूप से उन
’चापलूसी की चाशनी में डूबी छ्द्म बधाईयों’ को स्वीकार किया । उसके बाद जो
कहा वह जीवन का दर्शन था । मिश्रा जी जो कहा वह उस बाल मन पर अमिट स्याही
से अंकित गया ।
उन्होनें बड़ी ही शालीनता और गंम्भीरता के साथ हमें
बताया कि जन्मदिन का मतलब अवश्यम-भावी मृत्यु से एक वर्ष और निकट होना ।
धरती पर हमारे आवंटित समय का एक साल और कम हो गया । यह दिन वर्ष पर्यन्त
किये अपने कामों की समीक्षा करने का है । और आने वाले दिनों लिये मापदण्ड
स्थापित करने का है । उनके अनुसार जन्म दिन भी वर्ष के अन्य दिनों के समान
ही है । क्या हम उस दिन कोई अलग तरीके से जीवन जीतें हैं ? सुबह उठने से
लेकर रात में सोने तक सब कुछ सामान्य ही तो होता है ! यानि सिर्फ रूटीन ।
इस प्रार्थना सभा के बहुत वर्षों बाद ड़ा@ shobha pandey ने जब राबर्ट
फ्रास्ट की कविता में and miles to go before I sleep, I have promises to
keep से परिचित कराया तो भी उसमें मुझे कहीं न कहीं मिश्रा जी का दर्शन
झलकता दिखायी दिया । और बड़ा हुआ तो विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों
में कुलपतियों को "सत्य में प्रमाद न करो" की दीक्षा देते देखा । भगवान
महावीर की इस शिक्षा में शायद "उत्सव में प्रमाद न करो" को भी जोड़ने के
इरादे का सूत्रपात ड़ा मिश्रा ने बहुत पहले ही मेरे मन में कर दिया था ।
त्योहारों, उत्सवों और जन्मदिवसों पर बहुत ज्यादा उल्लासित एवं प्रफुल्लित
नहीं हो पाने के पीछे शायद यह भी एक कारण हो ? पक्के तौर कह नहीं सकता पर
इस घटना के योगदान को विस्मित कदापि नहीं कर सकता ।
इस दर्शन के
बाद सुबह की प्रार्थना सभा विसरजित हो गयी । अपुष्ट खबरें आती रहीं की उन
चापलूस टाइप मास्टरों की एक क्लास मिश्रा जी ने अलग से ली । और क्लास में
क्या पढ़ाया गया होगा, आप स्वयं समझ सकते हैं । बताना जरूरी है कि इस स्कूल
से सेवा निवृत्त होने के बाद भी मिश्रा जी जीवन भर अपने काम में लगे रहे ।
मेरी जानकारी के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम समय तक वो फर्रूखा़बाद के किसी
उद्योगपति के आई.सी.एस.सी. माध्यम के स्कूल को संवारने में लगे रहे ।
हर वर्ष के भांति इस वर्ष भी अनेकों फोन काल, एस. एम. एस. और अब फेसबुक
सन्देशों का मैं आभारी हूँ । आपके स्नेह और आशीष को सर आखों पर रखता हूँ ।
सिर्फ Sharad Singh का एक सन्देश मिश्रा जी के दर्शन से मेल खाता हुआ सा दिखा । और अगर मुझे सही समरण है तो कुछ समय पूर्व भाई Mukul Srivastava ने भी इससे मिलते जुलते विचार व्यक्त किये थे । शायद Shamoli Sarkar इस घटना की तस्दीक कर सकें । और शायद Pooja Singh एवं Deepshikha Ghose
आदि छात्रों को उनके उस सवाल का जवाब भी मिल जाये, जो कि वे विगत कई
वर्षों से पूछते आये हैं कि मैं उल्लास एवं के उत्सव अवसरों पर बड़े ही सहज
तरीके से व्यवहार क्यों करता हूँ ।
निश्चय ही मिश्रा जी के इस
दर्शन को हर व्यक्ति ने अपने - अपने हिसाब से रिसीव किया होगा और अपने ही
अन्दाज में लागू किया होगा । मैंने इस दर्शन के शब्दों और आत्मा के साथ
आत्मसात का प्रयास जारी रखा है । अन्त में एक गीत जो, इस आलेख के भाव से
मेल खाता हुआ है ।
www.youtube.com/watch?v=ADHapMuxZik
Posted by Sachin Agarwal at 14:36 0 comments
2013-03-11
अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !
अतिवाद की शिकार लिंगभेदी अस्मिता !
इसी अतिवाद की ओर मैं घ्यान आकृष्ट कराना चाहता हूँ । निरंजन कुमार मण्डल
भी एक बहुप्रचारित बलात्कार काण्ड में आरोपी थे । अब न्यायालय ने उन्हे बरी
कर दिया है । वे एक बार फिर न्यायालय की शरण में हैं कि उन्हे उनका खोया
हुआ सम्मान एवं अस्मिता वापस दिलाया जाये । जिस प्रकार यह काण्ड
बहुप्रचारित था वैसे ही आज दिल्ली बलात्कर (निर्भया) काण्ड भी है ।
सुबह - सुबह दिल्ली बलात्कार काण्ड के आरोपी राम सिंह की आत्महत्या की खबर
आयी और शाम को निरंजन मण्डल की "अस्मिता वापसी की गुहार" की गूंज सुनाई दी
। सही अर्थॊं में अस्मिता खुद लिंगभेद का शिकार हो गयी है । स्त्री की
अस्मिता और पुरुष की अस्मिता का भेद करना सीख गयी है ।
हा !
निरंजन बाकायदा कानूनी रुप से बरी हुआ पर समाजिक रूप से नहीं हो सका । अब
स्त्री की अस्मिता का सवाल उठाने कहाँ हैं ? क्या पुरुष की अस्मिता का कोई
मोल नहीं हैं । क्या निरंजन की पत्नी और उसकी लड़कियाँ कभी भी एक सामान्य
समाजिक जीवन जी पायेंगी ? शायद वह भी महिलायें ही हैं ? तो उनकी अस्मिता का
मूल्यांकन ही किया जाये ?
उस महिला को क्या सजा हुयी जिसने निरंजन पर यह आरोप लगाया होगा ? यह कोई सोच रहा है क्या ?
राम सिंह की आत्महत्या पर मै सुबह से आ रही प्रतिक्रियाएं देख रहा हूँ ।
निश्चय ही सबको अपने विवेक से प्रतिक्रिया देने का अधिकार है । पर अधिकांश
प्रतिक्रियाएं यह रही कि मर गया तो अच्छा हुया । न्यायालय का काम हल्का हुआ
। बाकी भी मर जायें तो और भी ठीक होगा ।
जिस देश में न्यायिक
प्रक्रिया से दण्डित किये गये अफजल गुरू की फांसी पर सवाल उठाये गये और
मानवाधिकारों की बातें निकली । उस देश में एक लिंग विशेष के लिये यह
असंवेदनशीलता चिंतनीय है ।
मीडिया और पुलिस की कहानी से कोई
अपराधी नहीं हो जाता । अगर सभी फैसले न्यायालय के बाहर "ब्रेकिंग न्यूज"
वालों के द्वारा और अतिवादी विचारधारा से किये जाने हैं तो फिर "वी वान्ट
जस्टिस" का क्रुन्दन बेमानी है ।
आपना फैसला आप खुद कीजिये ।
लिंगभेदी अतिवाद का नाश हो !
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संदर्भ :
Return my dignity, man absolved of rape asks SC
ByDhananjay Mahapatra, TNN | Mar 11, 2013, 12.18 AM IST
http://timesofindia.indiatimes.com/india/Return-my-dignity-man-absolved-of-rape-asks-SC/articleshow/18898781.cms
\NEW DELHI: In a heart rending plea, a person acquitted of rape charges has moved the Supreme Court seeking restoration of his lost dignity and honour.
If the Nirbhaya case sensitized politicians, police, judiciary and media on security of women as well as not revealing the identity of a rape victim, the man who was acquitted in the similarly sensational
Mayapuri rape presented to the court how a person framed in a sexual
assault case faced ignominy and was treated with suspicion by society
and police.
Niranjan Kumar Mandal, who spent four years in jail before being set free, told the court that he was treated as an outcast even after his acquittal.
The 2006 Mayapuri rape
had shocked the capital as a hearing and speech impaired pregnant woman
was sexually assaulted in a moving car. The petitioner, who was running
a diagnostic centre, was in jail for more than four years before a
trial court acquitted him.
Appearing for the petitioner,
advocate Wills Mathews argued before a bench of Justices Aftab Alam and
Ranjana P Desai on Friday that his client was not against media
publishing news about his arrest as they were discharging their
professional duty on the basis of information provided by the police.
"However, the petitioner is impleading some of the most reputed
newspapers and the Press Council of India to explore the possibilities
of helping/assisting the petitioner to put his life back on track,"
Mathews said. The bench issued notice to several newspapers and TV
channels.
Mandal said no newspaper or TV channel reported his
acquittal. This resulted in a situation where residents of his locality
still believed he was guilty and no one spoke to him or his family
members.
He said his children were bright students but since
his arrest, they were treated differently by society and neighbours
prevented their children from mixing with his kids. "My wife and
children suffered a lot of humiliation and suffering, seriously
affecting their life and education," he added.
"Everyone is
looking down upon the petitioner taking him to be the one who brought
disgrace to the locality. The residents of the locality still believe
that the petitioner had committed the heinous crime and that he was
released after completing the jail term awarded to him as punishment,"
the petition said.
Mandal said after acquittal, he felt as if
he was pushed into a bigger jail. "After the acquittal, I had great hope
of getting back to the mainstream. But I gradually found that there was
nothing to be happy about. All the machinery and equipment of my
diagnostic centre had rusted. Neighbours looked with suspicion and never
allowed their children to mix with my children," he said.
The
petitioner requested the court to find a way out to restore his lost
dignity and respect in society. "The action of the media in telecasting
or publishing the news connected with the petitioner's arrest in
Mayapuri rape case was based on the police version and was neither
willful nor deliberate. But the poor petitioner seeks to live with
dignity and honour," Mandal's petition said.
Posted by Sachin Agarwal at 23:01 0 comments
2013-03-10
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर खाटी देसी पुरुष प्रलाप
Posted by Sachin Agarwal at 01:06 0 comments
2013-02-16
शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर
Posted by Sachin Agarwal at 00:09 0 comments
2013-02-15
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
Posted by Sachin Agarwal at 23:18 0 comments
स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !
बजट 2013 से लगायी जा रही बहुत सी आशाओं में से एक यह भी है कि सरकार काले धन को बाहर लाने के लिये किसी क्षमादान योजना की घोषणा कर सकती है । ऐसी एक योजना 1997 में वी.डी.आई.एस. (Voluntary Disclosure of Income Scheme - 1997) के नाम से आयी थी । इस बात को अगर फिल्म स्पेशल - 26 की रिलीज की टाइमिंग के साथ जोड़कर देखा जाये तो इसकी टाइमिंग बहुत ही सटीक है ।
फिल्म की टाईमलाइन 1987 की है । समाजिक परिपेक्ष में कहें तो काले धन के आगे सरकारें जितनी बेबस 1987 में थी उतनी ही 1997 में और उतनी ही 2013 में । अगर कहूँ कि सरकारों की बेबसता इतनी बढ़ती नजर आती है कि वे इसके सामने घुटने टेकने में ही समझदारी मानती हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात को फिल्म एक रोचक अन्दाज में प्रस्तुत करती है । काला धन आशातीत रफतार से बढ़ा वही उसकी निगरानी करने वाली सी.बी.आई. (CBI) नामक एक संस्था की असलियत उसके अधिकारी के रूप में मनोज बाजपेयी के किरदार वसीम खान खोलते दिखे । वसीम खान अपनी तन्खवाह में इजाफे और प्रमोशन के लिये अपने उच्च अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते दिखतें हैं और ऐसा न होने पर रिश्वत लेना शुरू करने की धमकी देते हैं । किसी प्रकार उच्च अधिकारी उनको टालता है । और फिर वही काम । जबकि नकली सी.बी.आई. से मिलकर दिल्ली का इन्सपेक्टर और शान्ती जी ’असली काम’ कर गये जबकि बाकि तो अपनी नौकरी .. ...
तो इस प्रकार की समाजिक सेटिंग में अगर कोई फर्जी सी.बी.आई. अधिकारी बन कर किसी भ्रष्ट राजनेता या व्यापारी को लूट ले तो उन्हे समाजवाद का पहरुआ कहना भी गलत नहीं होगा । जहाँ फिल्म ’पान सिंह तोमर’ में फर्जी पुलिस बनकर अपहरण किया जाना दिखाया गया, वहीं स्पेशल 26 कुछ आगे बढ़ते हुये फर्जी इनकम टैक्स और सी.बी.आई. की रेड (छापा) दिखाकर अकूत संपदा की लूट दिखाने में कामयाब रही । इस फिल्म से देश के युवाओं को सन्देश मिलाता है कि ज्यादा पैसा कमाने के लिये ’डान’ बनकर खून- खराबा करने की जरूरत नहीं हैं । वरन बकौल मुख्य किरदार अजय बने अक्षय खन्ना, पैसा दिमाग से कमाया जा सकता है ।
इस फिल्म के कुछ दृश्यों में लूय्टयन की दिल्ली, खासकर सफेद पुति कनाट प्लेस, उसकी खाली - खाली सड़कों और उन पर दौड़ती इक्का - दुक्का मारुती - 800 कारें भी इस अहसास को गहराती है कि अब भारत तरक्की कर चुका है । आज सड़कों पर हमर, मर्सडीज और फोक्स वैगन की भरमार के साथ ही पार्किंग को रत्ती भर भी जगह नहीं मिलेगी ।
फिल्म की टाइमलाइन के अनुसार कुछ बातें जो खटकी वो हैं कि दिल्ली के आटो में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटील की किसी फिल्म का एक पोस्टर चिपका था वो प्लास्टिक (फैल्क्स) पर छपा था । कलकत्ता से एक दृश्य में सी.पी.ई. - एम की झण्डियाँ भी प्लास्टिक की दिखीं । उस समय तक फैल्क्स एवं प्लास्टिक की झडियों का चलन नहीं आया था । दिल्ली से चण्डीगढ़ वाली ट्रेन का ईन्जन (प्रबल) भी 1987 बाद ही सेवा में लिया गया था । बम्बई के ज्वेलरी शोरूम में सी.सी.टी.वी. कैमरे का प्रयोग दिखायी गया है जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 1987 में इसका प्रयोग होना शुरू हो गया था कि नहीं । पर यह मेरे सन्देह के घेरे में है ।
कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा दर्जन भर जबरदस्ती ठूंसे गये गानों के युग से बाहर आ चुका है । स्पेशल 26 भी एक थीम में चली जहाँ एक गाना फिल्म के लिये वाजिब होता है । इसके प्रोमों में दिखाया जाना वाला गाना (धर पकड़) कास्टिंग के समय प्रयोग किया गया है । काजल अग्रवाल हिन्दी फिल्मों के लिये लम्बी रेस की घोड़ी साबित हो सकती हैं पर उन्हे अपने बोलने के तमिल अन्दाज को बदलना चाहिये ।
वसीम खान को फिल्म में परिचित कराने के लिये, गुप्ता नामक किसी किरदार को पकड़ने के लिये एक उबाऊ भागा - दौड़ी का सीन जबरदस्ती डाला गया सा लगता है । इसकी कोई जरूरत कथानक के साथ मेल खाते हुये नहीं दिखी । दर्शक बिना इसके भी वसीम खान को असली सी.बी.आई. अफसर मान लेते । मेरे विचार में फिल्म ज्यादा कम्पलीट सी दिखती अगर राजनेता और व्यापारी के साथ - साथ किसी सरकारी अफसर के घर भी रेड डालते दिखाया जाता ।
असली सी.बी.आई. अफसर वसीम को जब अहसास होता है कि खुद उसे और उसकी पूरी टीम को ही स्पेशल 26 की तरह इस्तेमाल किया जा चुका है और वे फर्जी सी.बी.आई के हाथों काले धन की चोरी को पकड़ पाने में असफल रहे तो उनका चुल्लू भर पानी (डूबने के लिये) मंगाना भी छू गया । पर जल्द ही असली और फर्जी सी.बी.आई. की और मुठभेड़ों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि फिल्म इस नोट पर खत्म होती है कि इसका सीक्वेल भी आ सकता है ।
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2013-02-01
गणतंत्र के लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !
जौनपुर, 26 जनवरी 2013
विगत 65 वर्षों की तरह ही आज सुबह सवेरे भी " ए मेरे वतन के लोगों .. याद करो कुर्बानी " मार्का गीतों के स्वर कान में पड़े । पर आज के परिवेश में यह एक रस्म अदायगी मात्र ही लगती है ।
महारानी का राज्य समाप्त होने के बाद एवं आजा़द भारत के अपने सविंधान लागू होने के 65 वर्षों बाद भी हम आजादी और उसके मायनो का वही रिकार्ड बजा रहे हैं जो शायद 1950 या 1960 के दशक में बज रहा था । राष्ट्रीय ध्वज को सलामी के समय मेरे मन में जो विचार आये वो काफी अलग थे । यहां आप से साझा कर रहा हूँ । जन - गण के लिये आजादी और स्वराज की जो परिभाषा 1947 में गढ़ी गयी थी वो उसे आज भी रटाई जा रही है । देश की बहुधा आबादी के लिये आजादी की सीमा आज भी, देश की राजनैतिक आजादी पर आकर रुक जाती है । परन्तु, देश पर न्योछावर होने की शिक्षा देते समय यह कभी भी नहीं सोचा जाता कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर आजादी नहीं पहुँचती, तब तक देश की आजादी का जश्न केवल केवल रस्मी तौर पर ही मनाया जाता रहेगा ।
सही मायनों में प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक अजादी के बिना राजनैतिक आजादी का जश्न बेमानी होगा । आजाद भारत को विरासत में मिली सोंच के अनुसार आर्थिक आजादी के लिये आय के परम्परागत साधन के रूप में, सेवा (नौकरी) का बड़ा योगदान रहा है । सेवा अगर सरकारी हो तो उसे सोने पर सुहागा माना जाता रहा है ।
1990 के दशक में शुरू हुये आर्थिक सुधारों से इस ट्रेंड में कुछ बदलाव आया । परन्तु सरकारी मशीनरी की सोंच और गुलाम मानसिकता के चलते व्यक्तिगत सम्पदा अभी भी सरकारों और इनके खेवनहारों की वक्रदृष्टि के निशाने पर हैं ।
इस मानसिकता के कुछ ताजा उदाहरण देखिये ।
पूर्व वित्त मन्त्री एवं मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वोडाफोन पर उसके अधिग्रहण सौदे हुये पूंजीगत लाभ पर पिछली तारीखों से कर लगाने कि जिद पकड़ी तो देश के कारोबारी घरानों का भारत में नियमन के स्थायित्व पर शक का माहौल बना । साथ ही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की कारोबारी मंशा पर सवालिया निशान लगे । पूरे प्रकरण से भारत की सरकारों की व्यवसाय के प्रति नजरिये पर जो माहौल बना उसे, विदेश में रहने वाले एक रिश्तेदार ने इन शब्दों में बयान किया । Indians don't have respect for contractual obligations. यानि भारतियों में अनुबन्धात्मक दायित्वों के प्रति सम्मान नहीं है ।
अब मौजूदा वित्त मंत्री पी. चिदाम्बरम अमीरों पर अधिक कर लगाने की वकालत कर रहे हैं । देश में अजादी के बाद से ही समाजवाद की घुट्टी पिलायी जाती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति काल के नीति नियन्ताओं की उस समय के महाशक्ति रूस से निकटता के कारण हमारी आर्थिक नीतियों में साम्यवाद की झलक भी देखी जा सकती है । साम्यवाद, राज्य को सर्व-शक्तिमान मान कर उसके सभी क्रिया कलापों को सर आखों बिठाने की अवधारण भी है । इस अवधारणा के चलते उद्योगों एवं व्यापार को हमेशा से कड़े सरकारी निगरानी में रखा गया । सरकारी मशीनरी और नियामक प्राधिकारियों पर यह विचार आज भी हावी रहता है कि वह जो करेंगे, सब सही होगा और उद्योगों को छूट देने से देश का अहित ही होगा ।
उदारीकरण की बयार ने थोड़ा सा, परन्तु नकाफी स बदलाव लाया है ।
देश की आज की आवश्यकता में सबसे ऊपर अद्यमिता का स्थान है । इसे आजादी और गणतंत्र की नई परिभाषा में शामिल कर बड़े दायरे में समझने की जरूरत है । मौजूदा दौर में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिये आवश्यक क्षमता एवं शैक्षणिक दक्षता देश की बहुधा आबादी के पास अभी भी नहीं है । तो उद्यमिता एक सशक्त माध्यम हो सकता है ।
परन्तु सरकारी महकमों के कार्य करने के तरीके और उसके पीछे की मानसिकता से उद्यमिता पनपने की उम्मीद तक दम तोड़ती नजर आ रही है ।
जितना खतरा देश को एफ.डी.आई. (FDI) से नहीं है उससे ज्यादा नुकसान व्यवसाय से जुड़े सरकारी प्रवर्तन महकमों के DDI (Domestic Direct Invasion) है । जिसके चलते इन महकमों को व्यापार के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने का मौका मिलता है । यह दखलन्दाजी व्यवसाय की जमीनी और वास्तविक सच्चाईयों को बिल्कुल नजरंदाज़ करती है ।
छोटे से लेकर मंझोले और बड़े व्यवसाय तक - सभी इससे पीड़ित हैं । रतन टाटा सरीखे नामचीन व्यवसायियों ने मंच से कई बार इस बात को उद्धवरित किया कि व्यवसायिक कार्यों के चलते उनसे कई बार रिश्वत की मांग की गयी है । युवा को अगर उद्यमिता की ओर अग्रसर करना हो तो सरकारी व्यवस्था को व्यवसाय एवं व्यवसायी के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है ।
वित्त मंत्री के साथ - साथ देश को भी यह समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति, व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिक प्रयास करता है । इस पर अमीरों पर उनके अधिक टैक्स लगाने के प्रस्ताव से कारोबारी माहौल कमजोर होगा । इन्ही सब खबरों के बीच अर्थव्यवस्था में काले धन को बाहर लाने के लिये सरकार के द्वारा पुन: कोई योजना लाने की तैयारी बजट 2013 में की जा रही है । काले धन को देश की मुख्य धारा में लानें की यह पहली कोशिश नहीं है । अन्तिम बार ऐसी योजना Voluntary Disclosure of Income Scheme, 1997 में आयी थी । इस योजना में जिन लोगों ने काले धन का स्वत: प्रकटीकरण किया उन्हे बाद में आयकर विभाग द्वारा नोटिस एवं स्पष्टीकरण आदि से परेशान किया गया । ऐसी किसी भी योजना पर समय से अपना कर आदि अदा करने वाले करदाता सवाल उठाते हुये आलोचना करते हैं कि ऐसी योजना से कर अपवंचन करने वालों को शय मिलती है और यह कर कानूनों का पालन न करने वलों के लिये एक प्रोत्साहन योजना की तरह काम करती है । आवश्यकता है कि टैक्स अदा करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो, न की मौजूदा समय में टैक्स अदा करने वालों पर जबरिया अधिक टैक्स लादा जाये । ज्यादा टैक्स से छुपाने के लिये किये गये लेन-देनों से ही काले धन का निर्माण होता है । आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की जिसमें जनता को किसी प्रकार के व्यक्तिगत और कारोबारी सौदों को छिपाने की जरूरत न पड़े ।
तभी लड्डू सिर्फ गण-दिवस पर नहीं पर वर्ष के हर दिन और गण-गण को मिल सकेंगे । मेरे विचार में यह आज के भारत के जन-गण के मन की आवाज है । शायद आज से पचास साल बाद गाने के बोल कुछ इस प्रकार से हों :
ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो आर्थिक आजादी के लिये शहीद हुये हैं
उनकी याद करो कुर्बानी !!
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गुस्ताखी माफ़ !
(मौजूदा दौर में एक हास्यास्पद बात यह दिखती है की कई बार जो लोग इस प्रकार के गीतों के रिकार्ड बजाने में बहुत आगे रहते हैं उनकीअपनी जिंदगी इस गीत से दूर - दूर तक कहीं भी सुर - ताल मिलाती नहीं दिखती । और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी न माना जाये ।)
Posted by Sachin Agarwal at 21:55 0 comments
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