2010-09-14

Profiting from a Catastrophe

Profiting from a Catastrophe

By Sanjay Kumar Singh | Sep 9, 2010
http://valueresearchonline.com/story/h2_storyview.asp?str=15150

The Big Short narrates the story of a few investors who had noticed as early as 2004-05 that lending standards within the US mortgage market had plummeted so sharply that in a few years loans would start going bad at a catastrophic rate. These investors took advantage of an instrument called the credit default swap (CDS), which is an insurance contract, to bet against the mortgage market. When calamity finally struck in 2008, it shook Wall Street and plunged the global economy into a crisis. But a small minority made a fortune out of it.

This is the story of dysfunction within financial markets on a massive scale. At the outset, the average reader would have many questions about the crisis. Why would any bank or mortgage lender lend to the subprime section of the population, knowing well that when the teaser-rate period ended borrowers would surely default? How did the rating agencies give high ratings to products underpinned by crappy loans? Why were abstruse instruments like collateralised debt obligations (CDOs) allowed to be created whose only purpose, in hindsight, was to do credit laundering (convert poor-quality bonds into higher-quality ones)? The book answers all these queries well.

If you have read Liar's Poker, you would surely be a Michael Lewis fan already. The author is in his elements once again, combining a Jeffrey Archer-like ability to spin a racy yarn while at the same time being able to explain complex financial developments to laymen.

One message that comes across starkly is that it pays to be sceptical in the financial markets. A Deutsche Bank bond trader named Greg Lippmann is convinced that making a bet against the subprime market would make a lot of money for his clients. So even though his own firm makes millions selling subprime mortgage bonds, he sets out to sell the idea of shorting the subprime mortgage market using CDS. One of the hedge funds he calls upon is Steve Eisman's. Eisman and his colleagues have been studying the subprime market for years and are convinced that it would implode. What they are not sure of is Lippmann's motives. They pepper him with a lot of questions. Lippmann's answers correspond with their own views. Finally, one of them blurts out what the group has been feeling all along (I have paraphrased): "All that you have said makes perfect sense. We believe this is a good trade and it will make us money. But tell me: finally, how do you plan to f… us?" Given the scale of mis-selling that happens in our country, I wish more of us had an equally heightened sense of scepticism towards the snake oil salesmen in the financial services industry.

My key take-aways from the book

  • In any situation where there are conflicting viewpoints, those with their ears closest to the ground will be proved right eventually.
  • People at the centre of events rarely see what's going wrong. They have too much at stake to have any real perspective. It's usually outsiders or the people at the fringes who spot the problems first.
  • Incentives matter. If a line of action benefits someone in the short run, he will pursue it, unmindful of the long-term consequences. By the time the day of reckoning arrives, he will have moved on and someone else will have to bear the brunt.
  • What started off as a good thing will not always remain so; it could by degrees mutate into something draconian.
  • Watchdogs can turn predators. Witness the part played by rating agencies in the subprime crisis.
  • And finally, if you don't understand it, don't get into it. Complexity is just another tool in the arsenal of those who sell financial products to dupe us with.

2010-05-10

स्त्री - पुरूष का विभेद सिखाता हमारा सामाजिक ढाँचा और हमारी परवरिश भी

"का मेहारूर हो?" (क्या तुम औरत हो?)

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिला मुख्यालय पर वर्ष 1991 - 1992 में अपने चाचा की शादी में सुना ये जुमला आज लगभग 19 साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है। तब मैं नवीं क्लास में पढ़ता रहा हूँगा। इसका प्रयोग भी एक 16 - 17 साल के लड़के की ’मर्दानागी’ पर कुठाराघात करके उसे शराब पिलाने के लिये उकसाने के लिये तब गया था जबकि इसके पूर्व शराब पिलाने वालों के प्रयास और सारी मान - मनव्व्ल, जो कि लगभग पाँच घण्टे की मेहनत थी, बेकार जा चुकी थी । बरात अपने शबाब पर थी और ’पीछे की पंक्ति’ में कुछ ’मर्द’ लोग बाकी दुनिया से छुप - छुपा के जाम से जाम टकराकर आपस में एक दूसरे को अपनी मर्दानगी का सबूत देते नहीं थक रहे थे । जाहिर है, तब शराब के सार्वजनिक प्रयोग को लेकर समाज आज जितना खुला नहीं था । खैर, कन्या पक्ष में मुझे लेकर या यूँ कहूँ कि मेरी ’मर्दानगी’ को लेकर ये प्रमाण पत्र इस लिये भी माँगा गया होगा कि वर के भतीजे का शराब न पीना कहीं इस बात को द्योतक तो नहीं कि वो नाराज़ हो ? और सारा खेल बिगड़ जाये । या यूँ कहे कि शायद वहाँ ये परशेप्शन रहा होगा कि चूंकि बरात लखनऊ से आयी है इसलिये शराब का सेवन करा कर ही ’मर्द’ बारातियों का स्वागत पूरा माना जायेगा । या जो भी रहा हो वे ही बेहतर समझ सकतें होंगे। मैं सिद्धान्त: शराब न जब पीता था और न अब।

पर यह पूरा प्रकरण मेरे दिमाग तबसे ही समाजिक सोंच को लेकर एक घण्टी सी बजती रही है कि शराब न पीने से मेरे पुरूष होने पर क्या अन्तर पड़ता होगा ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब पीना क्यों पुरूषों के ही एकाधिकार क्षेत्र वाला मामला समझा जाये ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब न पीने वाले क्यों कमतर पुरूष माने जायें? या यूँ भी कह ही डालें कि मुझे (उस वक्त की उम्र को भी ध्यान में रखते हुये) शराब पीकर क्यों यह सिद्ध करने के लिये बाध्य किया जा रहा था कि मैं स्त्री नहीं हूँ? वगैरह - वगैरह ! और न जाने लिंग भेद के इस क्रूर विभेद से जाने कितने ही सवाल मन में उमड़ - घुमड़ कर उस बारात के धूम धड़ाके में कुचल दिये गये और वह किशोर मन मसोस कर "का मेहारुर हो?" कह कर चिढ़ाने वाले उस ’मर्द’ को सिर्फ देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका ।

इस जुमले को कहने वाले ने शायद यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इससे उस लड़्के के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । वे तो बस शादी एवं बारात में व्यस्त और इसके दीर्ध कालीन प्रभावों की विवेचना, मिमांसा करने का उनके पास समय नहीं था ।

इस सोंच की पीछे का सच शायद हमें अपनी परवरिश पर एक नजर डालने से मिल जायेगा। घरों में छोटे बच्चे यदि खेलते हुये अगर चोटिल हो जायें तो उन्हे जिस प्रकार से सांतवना दी जाती है जरा उस पर भी गौर फरमाइये । लड़्कों को सांतवना देते समय मैंने यह जुमला अक्सर कहते हुये सुना है कि, "क्या लड़्कियों की तरह रो रहे हो।" जब बहुत बचपन से ही ’मर्द को दर्द नहीं होता’ वाला विचार हमारे अंतर मन में उतार दिया जाता है तो आखिर हम व्यसकों से लिंग भेदी न होने की कैसे उम्मीद कर सकतें है? अब यहाँ पर भी यह सवाल कम से कम मेरे मन तो उठता ही है कि पीड़ा होने पर रोकर उसे अभिव्यक्त करने का एकाधिकार लड़्कियों या स्त्रियों को ही क्यों मिले? मैं अपने असहनीय दर्द को रोकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकता और यदि ऐसा करूँ तो पुनः घुमा फिरा के वही ताना कि "का मेहारुर हो?" (जो रो रहे हो) ।


आप इस सब पर कैसे रिएक्ट करेगें मैं नहीं जानता पर मेरी मानना है कि यह सब कुछ इतने सहज भाव हो रहा होता है और सामाजिक रूप से इतना ज्यादा स्वीकार्य है कि शायद हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता हो ? ये सिर्फ दो उदाहरण हैं और ऐसे न जाने ऐसे कितने ही अवांछित भेदभाव के बीज हम रोज अपने घरों और समाज में छोटे बच्चों के दिलों -दिमाग में बो रहें हैं। हमही उन्हे सिखा रहें हैं लिंग के आधार भेद भाव करना और फिर ये उम्मीद भी कर रहें हैं कि वे व्यस्क जीवन में ऐसा नहीं करेंगें ।

’जब बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाये?’ वाली कहावत को हम चरितार्थ कर रहें है? क्या हम नहीं सिखा रहें है कि शारब पीकर मर्द बनतें हैं और रो कर, आसूँ बहा कर - औरतें !

2010-02-21

दरकते दरख्तों ने

दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है,
ज्यादा तालीम ने इंसा को कमजोर बनाया है |

बंद करो ये स्कूल, कालेज, मदरसे,
जिसने सिर्फ दो रोटी कमाने का फलसफा पढ़ाया है |

न रही रहनुमाई, न नुमाइंदे, न नुमाइंदगी
बस धक्कम-पेल जम्हूरियत का चक्का घुमाया है |

कुछ दरक गये, कुछ दरक रहें हैं
जिन पर था मेरी कश्ती खेने का दारोमदार
उन्होंने ही उसे छिछले पानी में डुबाया है |


चार हर्फ़ क्या पढ़ लिए,
दो जून की मशक्कत में चल दिए,
भुला दिए साथी, सरोकार और मुल्क
फिर इस कमीनगी को
'नयी आबो हवा' का जामा पहनाया है |


कभी सोंचा, जब दरक जायेंगे सब
कौन, किसको, क्या मिल जाएगा
होगी पास शायद बहुत सी दौलत
बस और क्या ?

क्या नहीं हमने
इस गुलामी का परचम खुद फहराया है |

दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है
ज्यादा तालीम ने हमें कमजोर बनाया है |

2010-02-10

इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से रिफंड दिलाने के नाम पर ठगी का मंसूबा

इंटरनेट ने सूचना में क्रांति ला दी है और अब ये क्रान्ति ग़दर मचाने की राह पर चल पड़ी है |


एक सूचना आती है की इनकम टैक्स वाले ऑनलाइन लिफंड भेजेंगे | वित्त मंत्री के इस बयान को सूचना के मूल-भूत वाहक - प्रेस ने भरपूर मात्रा में मुझे और आपको परोसा | दिल में जाने कितने मंसूबे पाल लिए कि चलो अब उस बाबू कि मिन्नते नहीं करनी पड़ेगी और घर बैठे इनकम टैक्स का रिफंड हमारे बैंक खाते में आ जायेगा | यूँ तो भारत में ये कुछ ज्यादा कल्पनाशील होने जैसा भी हो सकता है पर अभी हाल ही के पिछले पन्द्रह वर्षों में ही हमने दुर्लभ प्रजाति 'हथोड़ा छाप' टेलीफोन से पी. सी. ओ. और मोबाइल की गलियों से होते हुए इंटरनेट और सैटेलाईट संचार का सफर कुछ इस सुलभता और तेजी से तय किया कि दिल उम्मीदें लगा बैठता है | शायद कभी या शायद इसी साल ही इनकम टैक्स का रिफंड इक दिन चुपके से मेरे और आपके बैंक खाते में पड़ा हो और जब एक दिन पास - बुक की एंट्री कराते समय इसका पता चले तो ! हो जायेगी बल्ले - बल्ले | हैं न |

पर साहब ज्यादा खुश-फहमियाँ न पालें और लौट आयें जमीं पर | जिस सूचना क्रांति को लेकर अभी - अभी आप कल्पना के समुद्र में एक गोता लगा आयें हैं उसे ही प्रयोग करके कुछ कलंदर टाइप के लोग इसे सूचना जनित फ्राड क्रान्ति की शक्ल देने में निरंतर जोर अजमाइश कर रहें है |

आन - लाइन लाटरी में बिना कोई टिकट खरीदे या बिना दांव लगाए करोड़ों डालर जीतने वाले इ-मेल आप सभी को मिल चुकें होंगे | और झूठा ही सही एक फिल-वक्त का सकून तो दिल को मिलता ही होगा जब आप को सूदूर अफ्रीका या यूगांडा के बैंक का अधिकारी आपके ईमानदार होने की दुहाई देते हुए यह बताता होगा कि उसके बैंक में करोड़ों डालर की ऐसी रकम है जो कि वह अपने देश से निकाल कर आपके बैंक खाते में भेजना चाहता है | पर हाय ! उसे यह रकम भेजने के लिए प्रक्रिया शुरू करने के लिए कुछ रकम चाहिए जो कि आपको उसके बताये बैंक खाते में (हो सकता है कि वो बैंक खाता भारत में ही हो ) डालनी होगी| इस रकम का प्रयोग करके अगला बड़ी इमानदारी से बेईमानी को इमानदारी साबित करने वाले कागजात बनवाएगा और फिर आपको सारी रकम भेज देगा | आप चाहें तो यह रकम जो आपने भेजी होगी उसे 'उसके हिस्से' से काट कर उसके भारत आने पर उसे सौंप दें |

उसके बाद भर मंदी के समय में विदेशों में लकालक नौकरी दिलाने के आफर मेरे छात्रों को ही नहीं वरन मुझे भी मिले | भला हो उन फिरंगी आदम जात का, जो की हमारे जैसे गरीब भारतीयों को नौकरियां दिलाने को लेकर दिन-रात सूख - सूख कर आधे हुए जा रहे हैं | एक बार तो लकालक तनख्वाह के लालच में आ ही गया था और सरकारी नौकरी पर लानत भेजने ही वाला था | पर जब पूरा आफर पढ़ा तो पता चला की उन बेचारे, भले फिरंगियों कुछ हजार डालर के बराबर रकम विदेश जाने के मेरे कागजात बनवाने के लिए भेजने पड़ेंगे | अब ये रकम आपसे आपके ही कागजात बनवाने के नाम पर अगर झटक ही ले रहें हों तो कौन गुनाह हो गया | आखिर इतनी भल-मंसाहत दिखाने की भी तो कुछ कीमत होती है |

अभी नौकरी के आफर मिलने ख़तम भी नहीं हुए थे और हम विदेशों से कमा कर अपना धन रखने के लिए बैंक अकाउंट भी नहीं खुलवा पाए थे की मुआ जाने क्या हुआ की अचानक देश के लगभग सभी बड़े - बड़े बैंकों के विदेशों में रखे सर्वर रातों - रात क्रैश करने लगे | एक बार फिर मालूम हुआ की दुनिया में भले मानुष अभी पूरी तरह से ख़तम नहीं हुए हैं | तुरत - फुरत हमें इ-मेल आने लगे की सर्वर क्रैश होने की वजह से बैंक का सारा डाटा ध्वस्त हो गया है | मजा तो यह की, जिन बैंकों में मेरा कोई लेना - देना नहीं था वो भी मुझपर मेहरबान होकर मुझे यह सूचना दे रहे थे | आखिर क्रांति जो आ गई थी |

अब मुझे यदि अपना बैंक अकाउंट चेक करके देखना हो तो इ-मेल में दिए लिंक को खोलकर उसमे दिखने वाली वेब -साईट (जो की दिखने में आपके बैंक जैसी ही होगी) पर जाकर अपना नाम, पता, वही पुराना वाला अकाउंट नंबर और पासवर्ड आदि डालकर बैंक का रिकार्ड पूरा करन था | इसके बाद आप अपना बैंक अकाउंट पहले के जैसे चेक कर सकेंगे | यहाँ भी भाई लोगों ने भल - मंसाहत की मिसाल पेश करते हुए आपको भविष्य में अपने बैंक अकाउंट चेक करने और पैसे लिकालने के काम से मुक्त करते हुए सारा काम खुद ही कर दिया | उनके लिए दुआ कीजिये | नहीं तो आज भी अपना कीमती समय बैंक से सर फोड़ने में खर्च कर रहे होते |

अब यही सूचना - क्रान्ति हमारे जीवन में और गहरे पैठ बनाता जा रहा है | 'इनकम टैक्स वाले' आज कल इ-मेल भेज कर आपसे आपका इनकम टैक्स रिफंड दिलाने के नाम एक वेब साईट पर जाकर (जो की दिखने में इनकम टैक्स की साईट जैसी ही होगी) अपना नाम, पता, बैंक अकाउंट नंबर, उसका बैंक अकाउंट का इंटरनेट लाग - इन आई दी और पासवर्ड आदि मांगे जाएगा | जो की एक बार गया तो गया | यदि ऐसा हो भी जाए तो भी हमें नतमस्तक होकर प्रणाम करना चाहिए की जिस काम की वित्त मंत्री सिर्फ घोषणा करते रह गए कम से इन रणबांकुरों ने उसे अंजाम तक पहुँचने से पहले ही अपने साधुवादी प्रयास शुरू कर दिए | अब इनकम टैक्स का आनलाइन रिफंड मिले या न मिले पर वो बाबू जरुर मुस्करा रहा होगा जिसका 'हक़' मारने की योजना आप बना रहे थे | अरे - अरे वो 'हक़' मिलने की उम्मीद में नहीं मुस्कुरा रहा है | वो तो इसलिए मुस्कुरा रहा है कि जाइये हुजुर कहाँ जायेंगे, ये नजर लौट के फिर ... |

अब आप किससे ठगना पसंद करेंगे | देशी या विदेशी | या ग्लोबलाइजेशन के दौर में भेद - भाव की बात न करें |

2010-01-30

भोजपुरी गानों के दो रूप

भोजपुरी भाषा की पहचान बढ़ाने में द्विअर्थी संवादों और गानों का अभूतपूर्व योगदान है | शायद और किसी माध्यम को इतना अधिक सौभाग्य प्राप्त न हो | भोजपुरी भाषा के ऐसे 'संकलन' किसी भी गानों की दुकान में सुलभता से मिल जायेंगे | अभी, हाल ही में सड़क मार्ग से कार द्वारा की गई एक लम्बी यात्रा में भोजपुरी गानों के दो रूप सुनने को मिले | यात्रा के प्रथम चरण में जाते वक्त आजमगढ़ निवासी प्रसिद्ध भोजपुरी गायक बालेश्वर यादव के गाये कुछ गाने सुनने को मिले | ये देख के दिल को कुछ सुकून हुआ की 'नीक लागे टिकुरिया गोरखपुर के' जैसे कालजई लोक गीतों ने बैलगाड़ी और गाँव के भोंपू से एयर- कन्डीशन कारों तक का सफ़र बड़ी सहजता के साथ तय कर लिया | अधिकतर गाने सामजिक समस्याओं पे कटाक्ष थे | जिसमे युवकों और युवतियों के हीरो और हिरोइन बनने के लिए मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर दु:ख व्यक्त किया था | इस गाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं की बहुतायत से मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर गायक के मन की टीस भी झलक रही थी | बालेश्वर ने इसे बुराई बताने के लिए लड़के और लड़कियों के साथ घटने वाली 'घटनाओं' का अलग - अलग हवाला देते हुए अपनी बात उस भोजपुरी लोकगीत में रखी | एक अन्य गाने में इसी गायक द्वारा युवाओं (लड़के) के द्वारा कालेज के समय में किये जाने वाले उदंड व्यवहार का व्यख्यान किया गया था | लेट उठना, कपडे ठीक से न पहनना, लडकियाँ छेड़ना, कालेज में फर्नीचर को तोड़ना आदि | सुनकर 'द्विअर्थी' भोजपुरी गानों का एक दूसरा ही अर्थ एवं स्वरुप सामने आया |

यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |

कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |

2009-12-25

मुद्दा बंटवारे का !

आन्ध्र प्रदेश में के. चन्द्र शेखर राव ने पृथक तेलंगाना प्रांत कि मांग क्या की, कि पूरे भारत में राजनैतिक भूचाल सा आया हुआ है । प्रथक प्रान्तों कि मांग पूर्व में भी होती रही है पर इस बार मामला जयादा ही गर्म है, क्योंकिं केंद्र सरकार ने मामले के साथ सहानुभूति दिखाई है । परिणाम स्वरूप, पूरे देश में भाषाई आधार पर, सांस्कृतिक आधार पर और लम्बे समय से चले आ रहे क्षेत्रीय जन संघर्षों के आधार पर कई प्रान्तों की मांग जोर पकड़ रही है । हरित प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड, रायलसीमा, विदर्भ आदि राज्यों की मांग से जुड़े कुछ आन्दोलन शायद अब निकट भविष्य में नये कलेवर एवं तेवर के साथ दिखाई पड़ें ।

बंटवारे कि मांग के के साथ जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हेतु विश्विद्यालय के जन संचार विभाग में दिनांक 21 दिसंबर 2009 को ' मुद्दा बंटवारे का ' शीर्षक पर एक खुली बहस का आयोजन किया गया इस खुली बहस का एक उद्देश्य जन संचार विभाग के छात्रों को टेलीविजन पत्रकारिता से जुड़े कामों की रियल लाइफ ट्रेनिंग देना भी था विभाग के शिक्षक जावेद के निर्देशन में छात्रों को कैमरा के प्रयोग, साउंड, एंकरिंग, सम्पादन आदि कार्यों का भी वास्तविक प्रशिक्षण दिया गया इस कार्यक्रम में मुझे भी एक पैनालिस्ट के रुप सहभागिता करने का सुअवसर मिला इसी कार्यक्रम की एक फोटो होस्ट कर रहा हूँ

फोटो क्रेडिट: जावेद

फोटो में (बाएं से दायें) : अमित सिंह वत्स (भा. जा. पा.), डा पंकज सिंह (कांग्रेस) , ड़ा मानस पाण्डेय (रीडर, व्यावसायिक अर्थशास्त्र विभाग), सचिन अग्रवाल (जनवादी विचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सम्मिलित हए ), ड़ा मनोज मिश्रा (जन संचार विभाग से)

2009-12-21

दान की बछिया के दांत गिनने की कला, उत्कृष्ट तकनीक के रूप में

स्कूल और कालेज की कुछ किताबें बहुत समय से मेरे पास रखी थीं | पर मैंने उन्हें न तो किसी पुरानी किताबों की अदला - बदली करने वाली दुकान पर औरही किसी कबाड़ी वाले को बेचना उचित समझा | काफी समय से, इनके घर में रखे होने के कारण माँ से बहुत डांट भी पड़ती रही हैं, की घर में रहने की जगह कम पड़ रही हैं और यह की मेरा बिस्तर तक पुरानी किताबों से भर गया था | बहुत सोंच - विचार और दिमागी उठा - पटक के बाद मैंने ये निर्णय लिया की इन्हें किसी पुस्तकालय को दान दे दिया जाए तो कुछ लोगों का भला हो जाएगा |

लखनऊ में अशोक मार्ग पर चन्द्र भानु गुप्त भवन में आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय है | यह यहाँ का एक बड़ा पुस्तकालय है जिसमे किताबों का विशाल संग्रह है | कुछ वर्षों पहले तक मैं इस पुस्तकालय का सदस्य भी था | लगभग 10 वर्षों पूर्व, लखनऊ शहर से जब ब्रिटिश लाइब्रेरी की विदाई हुई तो वो भी अपनी किताबों का जखीरा इसी पुस्तकालय के हवाले कर गए थे | शायद लखनऊ शहर में ये सबसे सुपात्र संस्थान भी होगा |

मैंने भी अपनी पुरानी किताबें इसी पुस्तकालय को दान देने का मन बनाया | बड़े श्रद्धा भाव से किताबों का बंडल बना के और बाकायदा चिठ्ठी टाइप कर मैं पुस्तकालय पहुँच गया | दिन के करीब बारह बजे थे और उनके आगन्तुक रजिस्टर पर बमुश्किल मुठ्ठीभर नाम ही दर्ज थे | खैर, आगन्तुक रजिस्टर में अपनी एंट्री कर मैंने लाइब्रेरीयन से सम्पर्क साधा और अपनी मंशा बतायी | उन्होंने प्रसन्नता जताते ह्युए बाकायदा मेरी चिठ्ठी पर एक कर्मचारी को 'मार्क' कर दिया कि ये पुस्तकें दान में स्वीकार कर ली जाएँ | देख कर कुछ अटपटा लगा ! पर क्या कहता | दिल में जन - सेवा के 'महान' भाव उमड़ - घुमड़ रहे थे | पुस्तकें उस कर्मचारी को रिसीव करा के मैंने लाइब्रेरी का एक नजारा लिया तो पाया कि वह लगभग पूर्णतया: खाली ही पड़ी थी | इक्का - दुक्का लोग भी नहीं दिखे | शायाद लोगों को ज्ञान ज्यादा हो चुका था और अब उन्हें लाइब्रेरी की जरूरत नहीं रही | तुरंत ही, ब्रिटिश लाइब्रेरी के बंदी के समय ब्रिटिश कौंसिल का दिया तर्क याद गया कि वे लाइब्रेरी इसलिए बंद कर रहे थे कि उनके यहाँ पर्याप्त संख्या में लोग नहीं आते थे | मैंने उस कर्मचारी को बताया की मेरे पास और भी किताबें हैं जिसे मैं दान में देना चाहता हूँ पर स्कूटर पर कम जगह होने के कारण उन्हें नहीं ला सका और उन्हें फिर कभी लाउंगा |

कुछ दिनों बाद दुबारा उसी 'महान' कार्य के लिए पुस्तकालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | पर इस बार के अनुभव पिछले बार से ज्यादा स्मरणीय हैं | पहले तो मैंने सीधे उसी कर्मचारी से सम्पर्क साधने की सोंची जिसने पहले मेरी लायी किताबों को रिसीव किया था | पर वह उस दिन नहीं आया था | एक अन्य व्यक्ति को उसकी सीट पर बैठे देख मैंने उसे ही अपने आने का कारण बताया | वह तो कुछ बोला नहीं अलबत्ता एक अन्य महिला बोली की पहले 'आर्डर' करा लाइए | आर्डर भी इस बात का कि दान में किताबें स्वीकार कर ली जाए | आर्डर लाइब्रेरियन करते हैं जो उस समय आफिस में नहीं थे | मुझसे पहली अपेक्षा यही थी कि मैं उस समय आऊं जब लाइब्रेरियन आफिस में हों | खुदा कसम, उन 28 किताबों को पुस्तकालय की छठी मंजिल से नीचे लाकर वापस घर लाने और फिर किसी मुफीद समय दुबारा पुस्तकालय ले जाने के ख्याल से ही मेरी रूह फना हो गयी |

थोड़ी मान - मनव्वल के बाद एक कर्मचारी को शायाद मेरे ऊपर दया आ गयी और वह मेरी चिठ्ठी को किसी को 'दिखा' लाया | उस 'देखने वाले' देवता को तो मैंने नहीं देखा पर मेरा मन उसके प्रति अनन्त श्रद्धा से भर गया की एक बहुत बड़ी तात्कालिक समस्या से बचा लिया | तभी एक महिला कर्मचारी ने टिप्पणी करी की ये किताबें तो पुरानी हैं और अब 'कोर्स' से बाहर हो चुकीं हैं | इस प्रश्न के लिए में बिलकुल भी तैयार नहीं था | पर फिर भी मैंने खुद को संभालते हुए कहा की अधिकतम किताबें अकाउंट्स, कामर्स और इकोनामिक्स की हैं जो की मूल रूप से वैसी ही रहती हैं |

तब तक एक भला माणूस मेरी लायी किताबों को गिनने लगा | उसने घोषणा की, कि एक किताब कम है | मैंने पूरी इमानदारी के साथ दान देने का निर्णय लिया था सो तर्क दे दिया की साहब मैं तो दान दे रहा हूँ | वो भी स्वयम आकार | मैं कम क्यों दूंगा ? खैर, मैंने भी गिना तो वाकई एक किताब कम थी | अब डर गया की कहीं मुझसे दुबारा चिठ्ठी टाइप करवाने को न कह दें | पर रास्ता भी उन लोगों ने खुद ही सुझाया, की जो किताब नहीं हो, लिस्ट में उसके नामे पर क्रास मारकर साइन कर दें |

अंत में मैंने अपनी चिठ्ठी पर किताबें रिसीव करके वाले सज्जन से पुस्तकालय की मोहर लगाने को कहा तो उन्होंने बाहर, इश्यु काउन्टर पर बैठीं एक महिला के पास भेज दिया | उनसे भी एक मोहर लगवाना आसान कैसे होता और क्यों ? पहला जवाब आया की जिसने रिसीव लिया है मोहर भी वही लगाएगा | पर फिर न जाने क्या सोंच कर वो मेरे ऊपर मेहरबान हो गयीं और फाइनली इस सवाल के साथ मोहर लगा ही दी की क्या किताबें रिसीव करने वालों ने मुझे धन्यवाद पत्र नहीं दिया ? मन से आवाज आई की धन्यवाद तो मुझे आप सभी को देना चाहिए की आप लोगों ने मेरी द्वारा दान में दी गयी किताबों को ले लिया और मुझे कृतज्ञ किया |

सारी जद्दोजहद के बाद जब मैं बाहर रहा था तो दिल के किसी कोने में एक ख़याल ही गया की जब दान की बछिया के दांत गिनने की कला, इतनी उत्कृष्ट तकनीक के रूप में विकसित कर ली गयी हो तो क्या इन किताबों के बदले मैटनी शो के दो टिकट बुरे थे ? मां की डांट भी बहुत समय पहले पड़ना बंद हो जाती !

जौनपुर ' राजुओं ' का शहर है !

बुधवार, 16 दिसंबर को विश्वविद्यालय से जौनपुर शहर आते समय मेरे साथ आये ड़ा. उमेश पाठक से मुलाक़ात हुई | वे विश्वविद्यालय के जन संचार विभाग में अतिथि प्रवक्ता के रूप में आये हुए थे और शाम को जन संचार विभाग के प्रध्यापक दिग्विजय सिंह के साथ शहर वापस जाने के लिए किसी वाहन - साधन का इन्तजार कर रहे थे | दिग्विजय ने उमेश को मेरे साथ मोटरसाइकिल पर शहर भेज दिया | रास्ता लंबा था, सो बातों का दौर शुरू हुआ तो मालूम हुया की वे पूर्व में इसी विभाग के छात्र भी रह चके हैं | अलबत्ता काफी कम समय के लिए | उन्होंने अपना कोर्स बीच में ही छोड़ दिया था | कारण, उन्होंने महसूस किया की यहाँ पर प्रगति के साधन नहीं हैं और पिछड़ेपन के कारण उनका समय एवं प्रतिभा का छयन हो रहा था | फिर वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र हुए और वर्तमान में दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कालेज में प्रध्यापक हैं |

बातों की चाशनी कुछ गहरी होती जा रही थी और क्षेत्र के पिछड़ेपन से होते हुए अब बात सामाजिक जीवन पर मुड़ चुकी थी | दोनों ही जाने - अन्जाने बेबाक टिप्पणियाँ कर रहे थे | तभी जौनपुर से सम्बंधित किसी प्रसंग पर उमेश ने जो बोला, वो एक यादगार टिप्पणी बनकर अब मेरे जहन में गहरे तक पैठ बना चुका है | और हमेशा याद रहेगा | वे बोले " ये राजुओं का शहर है " | एक बारगी तो मैं इस दिलचस्प टिप्पणी को समझ ही नहीं पाया की वो क्या कहना चाह रहे हैं | पर जब उन्होंने ' का हो राजू ' पर जोर देकर कहा तो मुझे भी कुछ ' बुझा' गया | दरअसल उन्होंने इस इलाके में बहुतायत से बोले जाने वाले एक पापुलर जुमले को इस अंदाज में पेश किया की वह यादगार बन गया | यह जुमला वास्तव में एक क्षेत्रीय पहचान का बोध कराता है | यहाँ के लोग शायद माने, पर मुम्बई में यह जुमला उनकी पहचान एक ख़ास क्षेत्र से आने वालों के रूप में कराता है | आज के, क्षेत्रीयता से प्रभावित राजनैतिक वातावरण में इस पहचान के ख़ास मायने भी हो सकते हैं |

खैर,
विश्वविद्यालय से शहर तक के रास्ते में उन्होंने मुझे कई भाषाओं में बोलने की अपनी अनूठी कला से वाकिफ़ कराया तो मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका | मैं सबसे ज्यादा उनका शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे मुनव्वर राणा की कविता मां से परिचित कराया |

और इसी प्रकार 'अपनी बातों' के बीच अपनी मंजिल आने पर उमेश ने फिर मिलने के वादे के साथ मुझसे विदा ली और जीवन में एक यादगार प्रसंग जुड़ गया |

2009-12-11

Realising the importance of studio apartments

Living single has its challenges in terms of managing time. There are a host of things that one would like to do at the same time. Say, cooking food while watching the news on television. Conventional apartments, like the one made available by my employer have their limits in offering their convenience to 'self-dooers' like me. Studio apartments can be good solution. With lesser walls things can be arranged in the way one wants. Flexibility is the name of the game. One may even sleep in the kitchen or attend guests while cooking or instruct children at the same time. The concept also saves a lot of space in this era of ever squeezing land resource.

2009-11-12

Learnings in democracy

I am returning to this space after a big time lag. Many developments have taken place ever since. One of them being that my professional colleagues have entrusted me with an important responsibility in our teachers' association.

Although this association which I inherited as its General Secretary is existing since last ten years something, but it has hardly to present its credit. Not even a agreed upon Constitution, upon which the association is supposed to function. Moreover, no one could tell who were its members or how many were there in number. So, what to talk about the official records and accounts of the association.

It was a start from scratch. From designing and creating of stationery to mobilizing finances for its functioning. Some members were kind enough to offer their co-operation while some even evaded. Reasons for such cold shoulders may be their low or even non existing confidence in the association. But then, that's the beauty of it. People don't complain to whom complains should have been addressed. I realized that I am a successor to a daunting task ahead, a task never done. The task of kindling a ray of hope and building a confidence in my constituency that should drive them out of shells.

The creating of the Constitution of the association was a learning in itself. As a member of the drafting group, I had the opportunity to further my learning in democracy. It was a feast to watch how different interest groups would like to pull a common association in different directions. Some would like to add, for furthering personal interests, but I would say that its a natural human tendency to establish ones supremacy in groups to which one belongs. Did they not follow Maslow? Yes. They did.

Once through with the draft, the intricacies of actually putting the whole thing in words and finally putting it for the consideration of the members at a General Body meeting. Each phase offered a new platform to enhance my paradigms of operating in a group which is also my constituency. Now I am through with the initial and basic technical work that are required to call an informal group a formal association. I am not only feeling relaxed but also happy that I have done my bit for the challenge, I had accepted on August 27, 2009.

I believe that even bigger tasks are now ahead. The task of managing people's ego. Infact, bloated egos. The egos which keep us divided and prevent from moving ahead towards a unified goal. During the ground work done so for, I have discovered that there are divergent views of people, not on how the affairs of the association should be conducted but on how his / her personal well being is not being catered to. Hardly, did I find people coming forward on how the association should function or what programmes should it take up. Each one of us is an intellectual and has a head above shoulder.

Even when some did voice their hearts out, they were hardly willing to say the same on a proper platform i.e. a general body meeting or over the internet group & mailing list that is just being hosted to facilitate people voice out amongst their own fellow members, from the comforts of their personal PCs. Some even expect the Office Bearers to be having some Jinie who would wash away all the issues in one go. Experiences are innumerable and possibly one post may even be a bad idea to put them all.

I return with more on my Learnigs in Democracy.


 

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