पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिला मुख्यालय पर वर्ष 1991 - 1992 में अपने चाचा की शादी में सुना ये जुमला आज लगभग 19 साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है। तब मैं नवीं क्लास में पढ़ता रहा हूँगा। इसका प्रयोग भी एक 16 - 17 साल के लड़के की ’मर्दानागी’ पर कुठाराघात करके उसे शराब पिलाने के लिये उकसाने के लिये तब गया था जबकि इसके पूर्व शराब पिलाने वालों के प्रयास और सारी मान - मनव्व्ल, जो कि लगभग पाँच घण्टे की मेहनत थी, बेकार जा चुकी थी । बरात अपने शबाब पर थी और ’पीछे की पंक्ति’ में कुछ ’मर्द’ लोग बाकी दुनिया से छुप - छुपा के जाम से जाम टकराकर आपस में एक दूसरे को अपनी मर्दानगी का सबूत देते नहीं थक रहे थे । जाहिर है, तब शराब के सार्वजनिक प्रयोग को लेकर समाज आज जितना खुला नहीं था । खैर, कन्या पक्ष में मुझे लेकर या यूँ कहूँ कि मेरी ’मर्दानगी’ को लेकर ये प्रमाण पत्र इस लिये भी माँगा गया होगा कि वर के भतीजे का शराब न पीना कहीं इस बात को द्योतक तो नहीं कि वो नाराज़ हो ? और सारा खेल बिगड़ जाये । या यूँ कहे कि शायद वहाँ ये परशेप्शन रहा होगा कि चूंकि बरात लखनऊ से आयी है इसलिये शराब का सेवन करा कर ही ’मर्द’ बारातियों का स्वागत पूरा माना जायेगा । या जो भी रहा हो वे ही बेहतर समझ सकतें होंगे। मैं सिद्धान्त: शराब न जब पीता था और न अब।
पर यह पूरा प्रकरण मेरे दिमाग तबसे ही समाजिक सोंच को लेकर एक घण्टी सी बजती रही है कि शराब न पीने से मेरे पुरूष होने पर क्या अन्तर पड़ता होगा ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब पीना क्यों पुरूषों के ही एकाधिकार क्षेत्र वाला मामला समझा जाये ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब न पीने वाले क्यों कमतर पुरूष माने जायें? या यूँ भी कह ही डालें कि मुझे (उस वक्त की उम्र को भी ध्यान में रखते हुये) शराब पीकर क्यों यह सिद्ध करने के लिये बाध्य किया जा रहा था कि मैं स्त्री नहीं हूँ? वगैरह - वगैरह ! और न जाने लिंग भेद के इस क्रूर विभेद से जाने कितने ही सवाल मन में उमड़ - घुमड़ कर उस बारात के धूम धड़ाके में कुचल दिये गये और वह किशोर मन मसोस कर "का मेहारुर हो?" कह कर चिढ़ाने वाले उस ’मर्द’ को सिर्फ देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका ।
इस जुमले को कहने वाले ने शायद यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इससे उस लड़्के के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । वे तो बस शादी एवं बारात में व्यस्त और इसके दीर्ध कालीन प्रभावों की विवेचना, मिमांसा करने का उनके पास समय नहीं था ।
इस सोंच की पीछे का सच शायद हमें अपनी परवरिश पर एक नजर डालने से मिल जायेगा। घरों में छोटे बच्चे यदि खेलते हुये अगर चोटिल हो जायें तो उन्हे जिस प्रकार से सांतवना दी जाती है जरा उस पर भी गौर फरमाइये । लड़्कों को सांतवना देते समय मैंने यह जुमला अक्सर कहते हुये सुना है कि, "क्या लड़्कियों की तरह रो रहे हो।" जब बहुत बचपन से ही ’मर्द को दर्द नहीं होता’ वाला विचार हमारे अंतर मन में उतार दिया जाता है तो आखिर हम व्यसकों से लिंग भेदी न होने की कैसे उम्मीद कर सकतें है? अब यहाँ पर भी यह सवाल कम से कम मेरे मन तो उठता ही है कि पीड़ा होने पर रोकर उसे अभिव्यक्त करने का एकाधिकार लड़्कियों या स्त्रियों को ही क्यों मिले? मैं अपने असहनीय दर्द को रोकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकता और यदि ऐसा करूँ तो पुनः घुमा फिरा के वही ताना कि "का मेहारुर हो?" (जो रो रहे हो) ।
आप इस सब पर कैसे रिएक्ट करेगें मैं नहीं जानता पर मेरी मानना है कि यह सब कुछ इतने सहज भाव हो रहा होता है और सामाजिक रूप से इतना ज्यादा स्वीकार्य है कि शायद हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता हो ? ये सिर्फ दो उदाहरण हैं और ऐसे न जाने ऐसे कितने ही अवांछित भेदभाव के बीज हम रोज अपने घरों और समाज में छोटे बच्चों के दिलों -दिमाग में बो रहें हैं। हमही उन्हे सिखा रहें हैं लिंग के आधार भेद भाव करना और फिर ये उम्मीद भी कर रहें हैं कि वे व्यस्क जीवन में ऐसा नहीं करेंगें ।
’जब बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाये?’ वाली कहावत को हम चरितार्थ कर रहें है? क्या हम नहीं सिखा रहें है कि शारब पीकर मर्द बनतें हैं और रो कर, आसूँ बहा कर - औरतें !