2011-10-27

भारती - वालमार्ट, लखनऊ

भारती - वालमार्ट, लखनऊ

लखनऊ में अभी हाल ही में खुले भारती - वालमार्ट के मार्डन होलसेल स्टोर में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । व्यवस्था के लिहाज से पूरी तरह चाक - चौबन्द यह स्टोर सुशान्त गोल्फ सिटी के मुहाने पर सुल्तानपुर रोड के बहुत ही पास स्थापित किया गया है । पहले मैं इसकी पृष्टभूमि पर प्रकाश डालता हूँ । इस स्टोर (या व्यापार व्यवस्था सम्बोधन बेहतर रहेगा) को साकार रूप देने में कई वर्ष लग गये । सरकारों के भीतर खाने से दो-चार होने के बाद इसके आने के पहले से ही छोटे व्यापारियों ने काफी हो-हल्ला मचाया और आशंका जाहिर की यह उनके व्यापार के लिये घातक होगा । यहाँ तक की उनके व्यापारों के नामों - निशान तक मिट सकते हैं । व्यापार-मण्डलों, संघों ने धरने - प्रदर्शन आदि करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी । आज उसी स्टोर के साकार एवं साक्षात दर्शन कर मैं अभिभूत एवं चकित हूँ, कि ऐसी कोई व्यवस्था पहले क्यों नहीं आयी ? भारतीय व्यापार, व्यापारियों एवं व्यापार के तौर तरीकों में यह स्टोर शायद आमूल-चूल परिवर्तन ला सकने की छमता रखता है

सबसे पहले तो मैं बताना चाहूँगा कि साईज (क्षेत्रफल ) के मामले में यह किसी भी बड़े माल से कम नहीं है । इतने बड़े साईज में होलसेल की एक दुकान वास्तव में आकर्षण का विषय रही । खैर, अब मुद्दे की बात यह की वालमार्ट की देशी-विदेशी उपभोक्ता बाजारों की समझ और भारती की भारतीय जन-मानस पर पकड़ का सीधा अवतरण यहाँ देखने को मिलेगा । नाम है - BEST PRICE.

नाम से क्या लेना, मेरा काम देखो यारों !

यह कि नाम तो होलसेल है और शहर के हर तीन सौ मीटर पर सड़कों को पाटे हुये इसके होर्डींग चीख-चीख कर इसके " केवल व्यापारियों के लिये " होने की घॊषणा करते हैं । पर हकीकत वहाँ मौजूद छोटे-छोटे बच्चों और सजी - धजी, गहनों से लकदक महिलाओं को देखकर कोई भी समझ सकता है कि चोर दरवाजे से बहुत से दैनिक उपभोक्ता भी अन्दर प्रवेश पा चुकें हैं । जो कि एक बाटल टमाटो सास और दो मैगी की मात्रा में "होलसेल" खरीददारी कर रहे थे । और भविष्य में ऐसे लोगों की संख्या बढने वाली है । क्योंकि जब बाजार में आलू दस रुपये से कम न हो और उस स्टोर में पाँच रुपये पैंतालीस पैसे में मिल रहा हो तो कौन नहीं ’होलसेलर’बन कर खरीददारी करना चाहेगा ।

वैसे एक और प्रभाव जो कालान्तर में दिखायी देगा वो यह है कि वास्तव में छोटे व्यापारियों को अपने दुकानों के लिये वस्तुएं खरीदने में बहुत सुविधा होगी । मौजूदा होलसेल बाजार में छोटे व्यापारियों को Touch & Feel का सुख नहीं मिलता - जोकि यह स्टॊर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराता है ।

मेरी उलझन !

आज दीपावली के बाद का दिन है । आज गोवर्धन पूजा का दिन है । लखनऊ की स्थानीय भाषा में इसे जमघट भी कहते हैं । यह दिन आम तौर पर पड़ेवा के नाम से भी प्रचलित है । पुराने लखनऊ के लोग आज के दिन को कनकउआ (पतंग) के पेंच लड़ा कर मनाने के लिये पूरे साल भर इंतजार करते हैं । यह मूलत: छुट्टी का दिन है । साल भर काम की रेलम - पेल के बाद राहत के कुछ पल स्वत: ही जीवन में प्रवेश करते दिखतें हैं । और वो भी इतने बेहतर तरीके से और इतने मुफीद मौके पर । वाह !

व्यापारी परिवारों में इस दिन कारोबार बंद रहता है । या एक प्रकार से वर्जित होता है । हर वर्ष की भांति आज सुबह - सवेरे ही माँ ने हिदायत दे डाली की आज "लिखा - पढ़ी का कोई काम न करना ।" ऐसा शायद इसलिये की साल - भर कलम चलाने के बाद एक दिन चित्रगुप्त जी भगवान ने अपने लिये भी छुट्टी मांगी होगी । कायस्थ बन्धु आज के दिन कलम - दवात की पूजा करतें हैं

पर मेरी उलझन यह है कि कागज-कलम का प्रयोग तो हो नहीं रहा । पर जब मैं यह पोस्ट फेसबुक पर लिख रहा हूँ तो क्या इस नियम / वर्जना का उल्लघंन होगा ? क्या माँ और चित्रगुप्त जी महाराज नाराज तो नहीं हो जायेंगें ?

कॊई मदद करेगा क्या ?

2011-10-21

परिवर्तन 20 - 20.

अभी - अभी - वि.वि. के निकट स्थापित मिश्रा जी के ढाबे से खाना खा के लौटा हुँ । इस ढाबे को मैं प्यार से "होटल मिश्रा इण्टरनेशनल" कहता हूँ । विगत कुछ वर्षों में वि.वि. के आस-पास के वातावरण को समझने में इन्ही मिश्रा जी का बहुत योगदान रहा है । यहाँ की समाजिक व्यवस्था को समझने में भी इनका सहयोग रहा है। आज इनकी व्यथा उमड़ पड़ी कि हमारा शासक वर्ग निरंकुश होता जा रहा है । "हर पाँच साल बाद सांसद जी / विधायक जी का दो बीगहे का मकान बन जाता है ।" गोरे के शासन से ज्यादा खतरनाक हैं ये काले । इनको हम डण्डा लेकर भगा भी नहीं सकते ।

मेरी टिपण्णी : यदि आजादी के 64 साल बाद जनता ये बात करना शुरू कर रही है तो शायद अगले दस - बीस सालों में हमारे माननीयों का वही हष्र हो जो कि गद्दाफी साहब का हुआ। सड़क पर सरेराह गोली मार दी जायेगी । परिवर्तन की बयार बहनी शुरू हो गयी है । जो हवा का रुख नहीं पहचानेंगे वो मिट जायेंगें ।

परिवर्तन : 20 - 20 Chetan Bhagat के नये उपन्यास का सबब भी कुछ इसी तर्ज पर है ।

आसरा !

जब डुबने लगे जहाज ,
तो कश्तियों का आसरा क्या होगा ?

हर पल बेपर्दा हो रहे रहनुमा,
अब आवामों का आसरा क्या होगा ?

रहनुमाई हुयी बेहयायी, बेहयायी बनती जा रही खुदाई,
या खुदा !
अब इन्सानों का आसरा क्या होगा ।
अब इन्सानों का आसरा क्या होगा ?

(जौनपुर, 21.10.2011)

2010-10-15

Murder of democracy at Goa ! Did anyone say Aah?

OPEN LETTER TO ALL MEMBERS OF

THE INDIAN CASKET ASSOCIATION

Formerly

INDIAN COMMERCE ASSOCIATION.

www.icaindia.info


Dear All,

After the Murder of Democracy at Goa and the throne usurped for unscrupulous intentions there is a need for serious rethinking and deep rooted reforms in this organisation. If decisions are to be taken back door and imposed upon the entire organisation then we should rather move to rename this body (ICA) as the INDIAN CASKET ASSOCIATION. Where decisions are brought out from a casket and thrust upon the entire house.


Where some people's bloated ego is large and inflated enough to let it crush and walk upon the bare chests of masses, brutally crushing their rights to even say Ah!. I am peeved and so should be every law abiding & sensible member of the association for despite the UNANIMOUS NEGATIVE VOTE of the house the top functionary of the association is declared ‘elected’. This reflects upon us too, not only as the members of this now nondescript organisation but also as citizens of this largest democracy of the world.

After seeing such throne usurping exercise at 63rd Annual Conference of ICA at Goa, I feel reminded of the brutal middle ages where kings were murdered for grabbing power to be further murdered and conspired by another one ... and this process continues. The recent Moughal history is an adequate testimony to it.


In the very first year of adopting a written constitution (which incidentally took 63 years), we witnessed bloodshed of a different order. Even though the now adopted constitution envisages a democratic setup in the organisation, all attempts to silence the common voice were made - including the nasty proposal to perform feticide on this vibrant medium of communication - the e-ica google group.


By any means it was not a silent coo. It was a roaring one. A noisy, nasty, undemocratic, authoritarian, repressive and bloody coo. Where democracy was butchered and people's wish tarred into pieces so miniscule – never to be ever seen. Where the KING'S procession walks over the corpses of his subjects –to be. It also creates a piquant situation where the king has virtually no subjects to rule over – as all are dead by the time king emerges victorious. The DRUM BEATS of the victory procession are too loud to leave any room for the last voices of those who might be alive and lying wounded in the battle field.

This even reflects upon as the flag bearers of the society in general. I am now able to fully understand that how goons, criminals, mafias and all anti-social people are able to reach the parliament, make laws, levy taxes on us (which they themselves never intend to pay), and leave the battle field alive to kill any and all voices of dissent. While we just do the proverbial coffee table lip-service. Didn't democracy allow us the legitimate right to elect our fate deciders? But someone did rightly say that in democracy we get the government we deserve. Possibly, INDIAN CASKET ASSOCIATION deserves this. It is fit to be led by such unpopular throne grabbers.


Being democratic and republic also implies that the command of the masses is reflected in all forms of decision making and conversely the reflection that it is our government. I wonder if we will be able to say that atleast for the next one year.


I believe that traditions should not be allowed to stand in the way of law and the intent of the General Body. Its time all sane members of the association rise to tide over traditions which are retrograde.

Its time we introspect and kept organizational integrity above the personal highhandedness of individuals.

Regards,

SACHIN AGARWAL

via email send to e-ica [at] googlegroups [dot] com

2010-09-14

Profiting from a Catastrophe

Profiting from a Catastrophe

By Sanjay Kumar Singh | Sep 9, 2010
http://valueresearchonline.com/story/h2_storyview.asp?str=15150

The Big Short narrates the story of a few investors who had noticed as early as 2004-05 that lending standards within the US mortgage market had plummeted so sharply that in a few years loans would start going bad at a catastrophic rate. These investors took advantage of an instrument called the credit default swap (CDS), which is an insurance contract, to bet against the mortgage market. When calamity finally struck in 2008, it shook Wall Street and plunged the global economy into a crisis. But a small minority made a fortune out of it.

This is the story of dysfunction within financial markets on a massive scale. At the outset, the average reader would have many questions about the crisis. Why would any bank or mortgage lender lend to the subprime section of the population, knowing well that when the teaser-rate period ended borrowers would surely default? How did the rating agencies give high ratings to products underpinned by crappy loans? Why were abstruse instruments like collateralised debt obligations (CDOs) allowed to be created whose only purpose, in hindsight, was to do credit laundering (convert poor-quality bonds into higher-quality ones)? The book answers all these queries well.

If you have read Liar's Poker, you would surely be a Michael Lewis fan already. The author is in his elements once again, combining a Jeffrey Archer-like ability to spin a racy yarn while at the same time being able to explain complex financial developments to laymen.

One message that comes across starkly is that it pays to be sceptical in the financial markets. A Deutsche Bank bond trader named Greg Lippmann is convinced that making a bet against the subprime market would make a lot of money for his clients. So even though his own firm makes millions selling subprime mortgage bonds, he sets out to sell the idea of shorting the subprime mortgage market using CDS. One of the hedge funds he calls upon is Steve Eisman's. Eisman and his colleagues have been studying the subprime market for years and are convinced that it would implode. What they are not sure of is Lippmann's motives. They pepper him with a lot of questions. Lippmann's answers correspond with their own views. Finally, one of them blurts out what the group has been feeling all along (I have paraphrased): "All that you have said makes perfect sense. We believe this is a good trade and it will make us money. But tell me: finally, how do you plan to f… us?" Given the scale of mis-selling that happens in our country, I wish more of us had an equally heightened sense of scepticism towards the snake oil salesmen in the financial services industry.

My key take-aways from the book

  • In any situation where there are conflicting viewpoints, those with their ears closest to the ground will be proved right eventually.
  • People at the centre of events rarely see what's going wrong. They have too much at stake to have any real perspective. It's usually outsiders or the people at the fringes who spot the problems first.
  • Incentives matter. If a line of action benefits someone in the short run, he will pursue it, unmindful of the long-term consequences. By the time the day of reckoning arrives, he will have moved on and someone else will have to bear the brunt.
  • What started off as a good thing will not always remain so; it could by degrees mutate into something draconian.
  • Watchdogs can turn predators. Witness the part played by rating agencies in the subprime crisis.
  • And finally, if you don't understand it, don't get into it. Complexity is just another tool in the arsenal of those who sell financial products to dupe us with.

2010-05-10

स्त्री - पुरूष का विभेद सिखाता हमारा सामाजिक ढाँचा और हमारी परवरिश भी

"का मेहारूर हो?" (क्या तुम औरत हो?)

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिला मुख्यालय पर वर्ष 1991 - 1992 में अपने चाचा की शादी में सुना ये जुमला आज लगभग 19 साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है। तब मैं नवीं क्लास में पढ़ता रहा हूँगा। इसका प्रयोग भी एक 16 - 17 साल के लड़के की ’मर्दानागी’ पर कुठाराघात करके उसे शराब पिलाने के लिये उकसाने के लिये तब गया था जबकि इसके पूर्व शराब पिलाने वालों के प्रयास और सारी मान - मनव्व्ल, जो कि लगभग पाँच घण्टे की मेहनत थी, बेकार जा चुकी थी । बरात अपने शबाब पर थी और ’पीछे की पंक्ति’ में कुछ ’मर्द’ लोग बाकी दुनिया से छुप - छुपा के जाम से जाम टकराकर आपस में एक दूसरे को अपनी मर्दानगी का सबूत देते नहीं थक रहे थे । जाहिर है, तब शराब के सार्वजनिक प्रयोग को लेकर समाज आज जितना खुला नहीं था । खैर, कन्या पक्ष में मुझे लेकर या यूँ कहूँ कि मेरी ’मर्दानगी’ को लेकर ये प्रमाण पत्र इस लिये भी माँगा गया होगा कि वर के भतीजे का शराब न पीना कहीं इस बात को द्योतक तो नहीं कि वो नाराज़ हो ? और सारा खेल बिगड़ जाये । या यूँ कहे कि शायद वहाँ ये परशेप्शन रहा होगा कि चूंकि बरात लखनऊ से आयी है इसलिये शराब का सेवन करा कर ही ’मर्द’ बारातियों का स्वागत पूरा माना जायेगा । या जो भी रहा हो वे ही बेहतर समझ सकतें होंगे। मैं सिद्धान्त: शराब न जब पीता था और न अब।

पर यह पूरा प्रकरण मेरे दिमाग तबसे ही समाजिक सोंच को लेकर एक घण्टी सी बजती रही है कि शराब न पीने से मेरे पुरूष होने पर क्या अन्तर पड़ता होगा ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब पीना क्यों पुरूषों के ही एकाधिकार क्षेत्र वाला मामला समझा जाये ? या यूँ भी कहा जा सकता है कि शराब न पीने वाले क्यों कमतर पुरूष माने जायें? या यूँ भी कह ही डालें कि मुझे (उस वक्त की उम्र को भी ध्यान में रखते हुये) शराब पीकर क्यों यह सिद्ध करने के लिये बाध्य किया जा रहा था कि मैं स्त्री नहीं हूँ? वगैरह - वगैरह ! और न जाने लिंग भेद के इस क्रूर विभेद से जाने कितने ही सवाल मन में उमड़ - घुमड़ कर उस बारात के धूम धड़ाके में कुचल दिये गये और वह किशोर मन मसोस कर "का मेहारुर हो?" कह कर चिढ़ाने वाले उस ’मर्द’ को सिर्फ देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका ।

इस जुमले को कहने वाले ने शायद यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इससे उस लड़्के के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । वे तो बस शादी एवं बारात में व्यस्त और इसके दीर्ध कालीन प्रभावों की विवेचना, मिमांसा करने का उनके पास समय नहीं था ।

इस सोंच की पीछे का सच शायद हमें अपनी परवरिश पर एक नजर डालने से मिल जायेगा। घरों में छोटे बच्चे यदि खेलते हुये अगर चोटिल हो जायें तो उन्हे जिस प्रकार से सांतवना दी जाती है जरा उस पर भी गौर फरमाइये । लड़्कों को सांतवना देते समय मैंने यह जुमला अक्सर कहते हुये सुना है कि, "क्या लड़्कियों की तरह रो रहे हो।" जब बहुत बचपन से ही ’मर्द को दर्द नहीं होता’ वाला विचार हमारे अंतर मन में उतार दिया जाता है तो आखिर हम व्यसकों से लिंग भेदी न होने की कैसे उम्मीद कर सकतें है? अब यहाँ पर भी यह सवाल कम से कम मेरे मन तो उठता ही है कि पीड़ा होने पर रोकर उसे अभिव्यक्त करने का एकाधिकार लड़्कियों या स्त्रियों को ही क्यों मिले? मैं अपने असहनीय दर्द को रोकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकता और यदि ऐसा करूँ तो पुनः घुमा फिरा के वही ताना कि "का मेहारुर हो?" (जो रो रहे हो) ।


आप इस सब पर कैसे रिएक्ट करेगें मैं नहीं जानता पर मेरी मानना है कि यह सब कुछ इतने सहज भाव हो रहा होता है और सामाजिक रूप से इतना ज्यादा स्वीकार्य है कि शायद हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता हो ? ये सिर्फ दो उदाहरण हैं और ऐसे न जाने ऐसे कितने ही अवांछित भेदभाव के बीज हम रोज अपने घरों और समाज में छोटे बच्चों के दिलों -दिमाग में बो रहें हैं। हमही उन्हे सिखा रहें हैं लिंग के आधार भेद भाव करना और फिर ये उम्मीद भी कर रहें हैं कि वे व्यस्क जीवन में ऐसा नहीं करेंगें ।

’जब बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाये?’ वाली कहावत को हम चरितार्थ कर रहें है? क्या हम नहीं सिखा रहें है कि शारब पीकर मर्द बनतें हैं और रो कर, आसूँ बहा कर - औरतें !

2010-02-21

दरकते दरख्तों ने

दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है,
ज्यादा तालीम ने इंसा को कमजोर बनाया है |

बंद करो ये स्कूल, कालेज, मदरसे,
जिसने सिर्फ दो रोटी कमाने का फलसफा पढ़ाया है |

न रही रहनुमाई, न नुमाइंदे, न नुमाइंदगी
बस धक्कम-पेल जम्हूरियत का चक्का घुमाया है |

कुछ दरक गये, कुछ दरक रहें हैं
जिन पर था मेरी कश्ती खेने का दारोमदार
उन्होंने ही उसे छिछले पानी में डुबाया है |


चार हर्फ़ क्या पढ़ लिए,
दो जून की मशक्कत में चल दिए,
भुला दिए साथी, सरोकार और मुल्क
फिर इस कमीनगी को
'नयी आबो हवा' का जामा पहनाया है |


कभी सोंचा, जब दरक जायेंगे सब
कौन, किसको, क्या मिल जाएगा
होगी पास शायद बहुत सी दौलत
बस और क्या ?

क्या नहीं हमने
इस गुलामी का परचम खुद फहराया है |

दरकते दरख्तों ने हमें ये सिखाया है
ज्यादा तालीम ने हमें कमजोर बनाया है |

2010-02-10

इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से रिफंड दिलाने के नाम पर ठगी का मंसूबा

इंटरनेट ने सूचना में क्रांति ला दी है और अब ये क्रान्ति ग़दर मचाने की राह पर चल पड़ी है |


एक सूचना आती है की इनकम टैक्स वाले ऑनलाइन लिफंड भेजेंगे | वित्त मंत्री के इस बयान को सूचना के मूल-भूत वाहक - प्रेस ने भरपूर मात्रा में मुझे और आपको परोसा | दिल में जाने कितने मंसूबे पाल लिए कि चलो अब उस बाबू कि मिन्नते नहीं करनी पड़ेगी और घर बैठे इनकम टैक्स का रिफंड हमारे बैंक खाते में आ जायेगा | यूँ तो भारत में ये कुछ ज्यादा कल्पनाशील होने जैसा भी हो सकता है पर अभी हाल ही के पिछले पन्द्रह वर्षों में ही हमने दुर्लभ प्रजाति 'हथोड़ा छाप' टेलीफोन से पी. सी. ओ. और मोबाइल की गलियों से होते हुए इंटरनेट और सैटेलाईट संचार का सफर कुछ इस सुलभता और तेजी से तय किया कि दिल उम्मीदें लगा बैठता है | शायद कभी या शायद इसी साल ही इनकम टैक्स का रिफंड इक दिन चुपके से मेरे और आपके बैंक खाते में पड़ा हो और जब एक दिन पास - बुक की एंट्री कराते समय इसका पता चले तो ! हो जायेगी बल्ले - बल्ले | हैं न |

पर साहब ज्यादा खुश-फहमियाँ न पालें और लौट आयें जमीं पर | जिस सूचना क्रांति को लेकर अभी - अभी आप कल्पना के समुद्र में एक गोता लगा आयें हैं उसे ही प्रयोग करके कुछ कलंदर टाइप के लोग इसे सूचना जनित फ्राड क्रान्ति की शक्ल देने में निरंतर जोर अजमाइश कर रहें है |

आन - लाइन लाटरी में बिना कोई टिकट खरीदे या बिना दांव लगाए करोड़ों डालर जीतने वाले इ-मेल आप सभी को मिल चुकें होंगे | और झूठा ही सही एक फिल-वक्त का सकून तो दिल को मिलता ही होगा जब आप को सूदूर अफ्रीका या यूगांडा के बैंक का अधिकारी आपके ईमानदार होने की दुहाई देते हुए यह बताता होगा कि उसके बैंक में करोड़ों डालर की ऐसी रकम है जो कि वह अपने देश से निकाल कर आपके बैंक खाते में भेजना चाहता है | पर हाय ! उसे यह रकम भेजने के लिए प्रक्रिया शुरू करने के लिए कुछ रकम चाहिए जो कि आपको उसके बताये बैंक खाते में (हो सकता है कि वो बैंक खाता भारत में ही हो ) डालनी होगी| इस रकम का प्रयोग करके अगला बड़ी इमानदारी से बेईमानी को इमानदारी साबित करने वाले कागजात बनवाएगा और फिर आपको सारी रकम भेज देगा | आप चाहें तो यह रकम जो आपने भेजी होगी उसे 'उसके हिस्से' से काट कर उसके भारत आने पर उसे सौंप दें |

उसके बाद भर मंदी के समय में विदेशों में लकालक नौकरी दिलाने के आफर मेरे छात्रों को ही नहीं वरन मुझे भी मिले | भला हो उन फिरंगी आदम जात का, जो की हमारे जैसे गरीब भारतीयों को नौकरियां दिलाने को लेकर दिन-रात सूख - सूख कर आधे हुए जा रहे हैं | एक बार तो लकालक तनख्वाह के लालच में आ ही गया था और सरकारी नौकरी पर लानत भेजने ही वाला था | पर जब पूरा आफर पढ़ा तो पता चला की उन बेचारे, भले फिरंगियों कुछ हजार डालर के बराबर रकम विदेश जाने के मेरे कागजात बनवाने के लिए भेजने पड़ेंगे | अब ये रकम आपसे आपके ही कागजात बनवाने के नाम पर अगर झटक ही ले रहें हों तो कौन गुनाह हो गया | आखिर इतनी भल-मंसाहत दिखाने की भी तो कुछ कीमत होती है |

अभी नौकरी के आफर मिलने ख़तम भी नहीं हुए थे और हम विदेशों से कमा कर अपना धन रखने के लिए बैंक अकाउंट भी नहीं खुलवा पाए थे की मुआ जाने क्या हुआ की अचानक देश के लगभग सभी बड़े - बड़े बैंकों के विदेशों में रखे सर्वर रातों - रात क्रैश करने लगे | एक बार फिर मालूम हुआ की दुनिया में भले मानुष अभी पूरी तरह से ख़तम नहीं हुए हैं | तुरत - फुरत हमें इ-मेल आने लगे की सर्वर क्रैश होने की वजह से बैंक का सारा डाटा ध्वस्त हो गया है | मजा तो यह की, जिन बैंकों में मेरा कोई लेना - देना नहीं था वो भी मुझपर मेहरबान होकर मुझे यह सूचना दे रहे थे | आखिर क्रांति जो आ गई थी |

अब मुझे यदि अपना बैंक अकाउंट चेक करके देखना हो तो इ-मेल में दिए लिंक को खोलकर उसमे दिखने वाली वेब -साईट (जो की दिखने में आपके बैंक जैसी ही होगी) पर जाकर अपना नाम, पता, वही पुराना वाला अकाउंट नंबर और पासवर्ड आदि डालकर बैंक का रिकार्ड पूरा करन था | इसके बाद आप अपना बैंक अकाउंट पहले के जैसे चेक कर सकेंगे | यहाँ भी भाई लोगों ने भल - मंसाहत की मिसाल पेश करते हुए आपको भविष्य में अपने बैंक अकाउंट चेक करने और पैसे लिकालने के काम से मुक्त करते हुए सारा काम खुद ही कर दिया | उनके लिए दुआ कीजिये | नहीं तो आज भी अपना कीमती समय बैंक से सर फोड़ने में खर्च कर रहे होते |

अब यही सूचना - क्रान्ति हमारे जीवन में और गहरे पैठ बनाता जा रहा है | 'इनकम टैक्स वाले' आज कल इ-मेल भेज कर आपसे आपका इनकम टैक्स रिफंड दिलाने के नाम एक वेब साईट पर जाकर (जो की दिखने में इनकम टैक्स की साईट जैसी ही होगी) अपना नाम, पता, बैंक अकाउंट नंबर, उसका बैंक अकाउंट का इंटरनेट लाग - इन आई दी और पासवर्ड आदि मांगे जाएगा | जो की एक बार गया तो गया | यदि ऐसा हो भी जाए तो भी हमें नतमस्तक होकर प्रणाम करना चाहिए की जिस काम की वित्त मंत्री सिर्फ घोषणा करते रह गए कम से इन रणबांकुरों ने उसे अंजाम तक पहुँचने से पहले ही अपने साधुवादी प्रयास शुरू कर दिए | अब इनकम टैक्स का आनलाइन रिफंड मिले या न मिले पर वो बाबू जरुर मुस्करा रहा होगा जिसका 'हक़' मारने की योजना आप बना रहे थे | अरे - अरे वो 'हक़' मिलने की उम्मीद में नहीं मुस्कुरा रहा है | वो तो इसलिए मुस्कुरा रहा है कि जाइये हुजुर कहाँ जायेंगे, ये नजर लौट के फिर ... |

अब आप किससे ठगना पसंद करेंगे | देशी या विदेशी | या ग्लोबलाइजेशन के दौर में भेद - भाव की बात न करें |

2010-01-30

भोजपुरी गानों के दो रूप

भोजपुरी भाषा की पहचान बढ़ाने में द्विअर्थी संवादों और गानों का अभूतपूर्व योगदान है | शायद और किसी माध्यम को इतना अधिक सौभाग्य प्राप्त न हो | भोजपुरी भाषा के ऐसे 'संकलन' किसी भी गानों की दुकान में सुलभता से मिल जायेंगे | अभी, हाल ही में सड़क मार्ग से कार द्वारा की गई एक लम्बी यात्रा में भोजपुरी गानों के दो रूप सुनने को मिले | यात्रा के प्रथम चरण में जाते वक्त आजमगढ़ निवासी प्रसिद्ध भोजपुरी गायक बालेश्वर यादव के गाये कुछ गाने सुनने को मिले | ये देख के दिल को कुछ सुकून हुआ की 'नीक लागे टिकुरिया गोरखपुर के' जैसे कालजई लोक गीतों ने बैलगाड़ी और गाँव के भोंपू से एयर- कन्डीशन कारों तक का सफ़र बड़ी सहजता के साथ तय कर लिया | अधिकतर गाने सामजिक समस्याओं पे कटाक्ष थे | जिसमे युवकों और युवतियों के हीरो और हिरोइन बनने के लिए मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर दु:ख व्यक्त किया था | इस गाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं की बहुतायत से मुंबई जाने की प्रवृत्ति पर गायक के मन की टीस भी झलक रही थी | बालेश्वर ने इसे बुराई बताने के लिए लड़के और लड़कियों के साथ घटने वाली 'घटनाओं' का अलग - अलग हवाला देते हुए अपनी बात उस भोजपुरी लोकगीत में रखी | एक अन्य गाने में इसी गायक द्वारा युवाओं (लड़के) के द्वारा कालेज के समय में किये जाने वाले उदंड व्यवहार का व्यख्यान किया गया था | लेट उठना, कपडे ठीक से न पहनना, लडकियाँ छेड़ना, कालेज में फर्नीचर को तोड़ना आदि | सुनकर 'द्विअर्थी' भोजपुरी गानों का एक दूसरा ही अर्थ एवं स्वरुप सामने आया |

यात्रा के दूसरे चरण में लौटते वक्त भी कार का वातावरण भोजपुरीमय ही था | पर इस चरण में जो गाने बज रहे थे उनको सुनकर मालूम हुआ की समाज में खुलापन अपनी पैठ आम तौर से 'कंजर्वेटिव' समझे जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों तक बना चुका है | ये गाने अब द्विअर्थी नहीं रहे थे, बल्कि सीधे- सीधे एकार्थी हो चुके थे | मतलब अब छुपा कुछ नहीं बचा था | जो 'कुछ कहने' के लिए कुछ वर्षों पहले तक प्रतीकात्मक संवादों एवं गद्यों का सहारा लिया जाता था और श्रोता उसी को सुन कर 'रस' ले लिया करते थे | पर अब समाज खुल चुका था | दायरे सिमट रहे हैं | इसलिए प्रतीकात्मक प्रतीकों की भी आवश्यकता नहीं रही |

कुल मिला कर, 'दिल' अब 'बच्चा' नहीं रहा | और फिर, आखिर कब तक आप दिल को बच्चा मानते रहेंगे |

 

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