2015-01-26

नव साम्राज्यवाद के ओबामा रथ पर सवार मोदी

बनारस के अस्सी घाटों के गंगाजल को हाथ में लेकर कोई कितनी भी कसमें खाये तो भी यह बाते मानने लायक नहीं है कि अमेरीका से ओबामा,  भारत की सैन्य शक्ति और सांस्कृति की झांकी देखने आये हैं भारत के गणतन्त्र दिवस परेड के दौरान च्यूइंग गम की जुगाली करते हुए उन्होने यह बात साफ कर दी    राजनीति में बहुत कुछ होता है जो पर्दे के पीछे होता है और वह दिखता नहीं ओबामा के साथ मोदी ने चाय पर चर्चा की और उसमें हुई बात को किसी से भी बताने से साफ इन्कार कर दिया तर्क दिया कि कुछ बातें पर्दे में ही रहनी चाहिये तो फिर मोदी ने ओबामा को क्यों बुलाया ?  मेरी नजर में सवाल यह होना चाहिये कि ओबामा क्यों आये ? तो वे यहां आये थे और ही, उन्हे किसी ने  भेजा था उन्हे तो परमाणु और रक्षा उपकरणों के सौदागरों ने बुलाया था यही सच्चाई यह जो पूरे ओबामा दौरे को देखने के बाद सामने आती है

जिस क्लीन - ग्रीन परमाणु तकनीक का विक्रय अमेरिका, भारत को शान्तिपूर्ण असैन्य प्रयोग हेतु करना चाहता है उसका वो खुद इस्तेमाल कई वर्षों पहले बन्द कर चुका है भारत जैसे देश अमेरिका के लिये अपना कचरा निपटाने के ठिकाने से ज्यादा कुछ भी नहीं यही डील मनमोहन सिंह के जमाने में पूरी नहीं हो पायी क्योंकि वह बैसाखी-जदां प्रधानमंत्री थे  पर मोदी अपने खुद के विजय रथ पर सवार होकर आये हैं दोनों में एक बात समान है कि कारपोरेट हितों की अनदेखी करने का साहस किसी में नहीं है दोनों ही कारपोरेट हित-नीत, नव - साम्राज्यवाद के ध्वज-वाहक हैं

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के और आज के कारपोरेट-नीत साम्राज्य वाद में फर्क यह कि महारानी की कम्पनी दूसरे देशों मे जाकर वहां के शासन पर काबिज होकर साम्राज्य बढ़ाती थी इस प्रक्रिया में उसे एक व्यापारी के साथ - साथ एक शासक का दायित्व भी उठाना पड़ता था मसलन, उस देश के लिये कानून बनाना और उसके लोगों के लिये व्यवस्था का निर्माण करना जिसके चक्कर में कम्पनी के व्यापारिक हितों और शासकियों हितों में टकराव भी झेलना पड़ता था पर धीरे - धीरे  ईस्ट इण्डिया कम्पनी की दुकान सिमट गयी आज के नव-साम्राज्यवाद में कारपोरेट दूसरे के देश में शासन की जिम्मेदारियों के चक्कर में नहीं पड़ते बल्कि उस देश के शासकों को ही अपने हित साधने के लिये अपना एजेन्ट बना लेते हैं बुरा मानों या भला पर मोदी हो या मनमोहन यह सभी उस नव-साम्राज्यवादी कारपोरेट के हाथों की कठपुतलियां हैं   मतलब, की देश में चाहे किसी की भी सरकार हो वह इन कारपोरेट हितों को अनदेखा नहीं कर सकती   अगर, यकीन हो तो यह एक बानगी देख लीजिये

सामान्य व्यापार बढ़ाने और उससे जुड़े मुद्दे आज कहीं भी सुनाई नहीं दे रहे हैं सब तरफ न्यूक्लियर डील की धूम है भारत सरीखें देशों का विदेशों से रक्षा उपकरणों को  खरीदने का इतिहास पुराना है और साथ ही उनसे जुड़े घोटाले भी उतनी ही निरन्तरता के साथ सामने आते रहे हैं सुखोई, मिग और बोफोर्स आदि सभी वही नाम हैं जिन्होने सरहदों से ज्यादा सत्ता के गलियारों में बम बरसाये हैं   9/11 के बाद दुनिया एक-ध्रुवीय हो गयी और देशभक्ति का मतलब हथियारों का बड़ा जख़ीरा होता चला गया मोदी ने आते ही आते इसी हथियार ब्राण्ड देशभक्ति के नाम पर बड़ा दांव मारा है सबसे अहम बात यह है कि इन सौदों और समझौतों के बारे हम और आप कभी भी कुछ नहीं जान पायेंगे और तो और सार्वजनिक - सुचिता को स्थापित करने वाले सूचना के अधिकार कानून में  रक्षा और परमाणू सौदों से जुड़ी जानकारी देने पर रोक है इसका मतलब कि अब जो कुछ भी होगा वो कभी भी उस देश के सामने नहीं पायेगा जिसके हितों के नाम पर यह सब हुआ सत्ता और कारपोरेट मिल- बांट कर खायेंगे और किसी को कुछ नहीं बतायेंगे

जितना हो-हल्ला बराक हुसैन ओबामा के भारत के गणतन्त्र दिवस परेड में बतौर मेहमान आने पर  मचाया जा रहा है उससे कहीं हट कर पर्दे के पीछे की सच्चाई देखने की जरूरत है मेरी नजर में ओबामा हथियारों का सेल्समैन है और मोदी उसका ग्राहक तो क्या बड़ी बात हुई जो एक सेल्समैन अपने ग्राहक से मिलने गया   ओबामा - मोदी मिलाप से कोई ऐसा जिन्न नहीं निकलेगा जो रामायण के अगले अध्धयाय के रुप में जाना जायेगा

2014-01-24

उत्तर प्रदेश 20 साल में भी गुजरात नहीं बन सकता - नरेन्द्र मोदी

उत्तर प्रदेश 20 साल में भी गुजरात नहीं बन सकता - नरेन्द्र मोदी, गोरखपुर (23-01-2014)
वास्तव में उत्तर प्रदेश गुजरात तो क्या, महाराष्ट्र, तमिल नाडू, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश आदि भी नहीं बन सकता !

मोदी ने आज गोरखपुर रैली में जो कहा और जो उनका आशय था वह वाकई में काबिले - गौर था । मुलायम और मुलायम के जवाबी कीर्तन में उलझे बिना जो पहलू मेरे जेहन में घूम गया उसमें मेरे हाई स्कूल काल से आज तक की तस्वीर में कोई खास अन्तर नहीं नजर आता ।

बताते चलूं कि जब देश मंडल - कमंडल की आग में जल रहा था लगभग उसी समय के आस - पास मैं हाई - स्कूल का अभ्यर्थी था । मेरे आस - पास बहुत कम ही सहपाठी इस ’लफड़े’ में पड़ कर अपना समय खराब करना चाहते थे । @ abhigyan gurha जैसे कुछ बिरले ही थे जिन्होने ने अपनी ’कारस्तानियों’ से मेरा घ्यान अपनी ओर खींचा ।  या यह भी हो सकता है कि ’मेरे स्कूल’ में यह आन्दोलन ज्यादा ठीक से चल न पाया हो या न चलने दिया गया हो ।

खैर, जो भी हो । एक विचार जो मुझे याद आ रहा है वो यह था कि हमें IIT - JEE, CBSE, CPMT आदि की प्रतियोगिता में सफल होकर ’बाहर’ निकलना है ।  ’बाहर’ से ज्यादातर का मतलब देश के बाहर होता था । हमें इस मंडल - कमंडल के चक्कर में नहीं पड़ना है । और अपना कैरियर बनाना है । और करियर उत्तर प्रदेश में तो नहीं बनता है । कमोवेश, यह विचार मेरे सहपाथियों से कहीं ज्यादा उनके अभिभावकों में भी प्रबल था ।

आज, जब देखता हूँ तो पाता हूं तो वाकई कई सहपाठी अपने उपक्रम में सफल हुए । जो भारत के भारत बाहर नहीं जा सके या नहीं गये उन्होनें भारत के ही ज्यादा विकासित बड़े शहरों (दिल्ली, मुम्बई, बंगलौर, हैदराबाद आदि) में अपना ठिया जमाया । और अपने करियर में कामयाबी हासिल की ।

उसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में भी मिले बहुतायत सहपाठियों के लिये उत्तर प्रदेश में कोई लक्ष्य नहीं था । कई तो छोटी- बड़ी पढ़ाई के लिये भी उत्तर प्रदेश से बाहर गये । और कालान्तर में लौट कर नहीं आये । पंकज उद्धास का गीत "चिठ्ठी आई है - आई है" कई बार सुना पर वास्तव जीवन में इसका कोई प्रभाव यदा - कदा ही दीखता है ।

आज लगभग दो दशक के बाद भी हालात में कोई खास परिवर्तन नहीं हैं । न तो उत्तर प्रदेश Education Destination है, न Business Destination, और न ही Investment Destination. आज भी कोई अभिभावक अपने पाल्यों के लिये जब बेहतरी की कामना करतें हैं तो उत्तर - प्रदेश शायद ही उनके विचारों में होता है । यहाँ तक कि प्रदेश के UP-Board के स्कूलों की संख्या लगातार घट रही है । कई स्कूल यू.पी. बोर्ड की मान्यता त्याग कर CBSE की मान्यता ले रहे हैं । एक - आध उदाहरण उत्तर प्रदेश सरकार से UP - Board के स्कूल के लिये मिलने वाली grant-in-aid को त्याग कर भी CBSE से जुड़ने के मिल जायेंगे । मुलायम सिंह यादव के पाल्य और मौजूदा मुख्यमन्त्री अखिलेश भी आस्ट्रेलिया से एम.बी.ए. कर के आये हैं ।  अब, करियर के रूप में तैयार राजनैतिक जमींन पर खेती कर रहे हैं । 

हाल - फिलहाल भी कई नौनिहालों को अपने लक्ष्यों की खोज और प्राप्ति में प्रदेश से बाहर जाते देखा है । यहां तक कि जिनके पास अपने स्थापित व्यापार हैं वो भी प्रदेश की सीमा से बाहर ही नयीं जमीन तलाश रहे हैं । जो ज्यादा सक्षम हैं वो अपने व्यापार को प्रदेश से बाहर ले जाने को अकुला रहे हैं ।

भारतीय अर्थशास्त्र में BI-MA-R-U राज्यों की अवधारणा है । जिसमें Bihar, Madhya - Pradesh, Rajasthan और Uttar Pradesh को शामिल किया गया है । ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है और अपने नाम के अनुरूप यह राज्य आर्थिक रूप से बीमार माने जाते हैं ।  प्रतिभा पलायन की बात करना बहुत बेमानी लगती है जब की सच्चाई के धरातल पर राज्य के नीति - निर्माताओं के पास जातीय - समीकरणों का तो सटीक आंकड़ा है । पर आर्थिक दर्शन के नाम पर सन्नाटा पसरा है । चुनावी नारों और वादों से पेट नहीं भरता ।

तो अगर कोई राज ठाकरे महाराष्ट्र में हमें हेय दृष्टि से देखता है तो उसे बुरा कहने से पहले अपने अन्दर भी झांक कर देखना चाहिये कि क्या कमी रह गयी कि वहां पिट कर भी हमारे लोग वापस नहीं आना चाहते हैं । आशय यह कि Blue Collored और White Collored दोनों प्रकार के आर्थिक सम्भावनाएं उपलब्ध कराने में यह राज्य विफल रहा है । और ’स्वदेस’ भी शाहरुख खान सिर्फ फिल्मों में रचते हैं वो भी अपने मेहताना प्राप्त करने के लिये ।

(नोट : इस विचार के कोई राजनैतिक अर्थ न निकाले जाये । यह विशुद्ध आर्थिक विचार है । यह विचार किसी भी राजनैतिक विचार - धारा का समर्थन और विरोध नहीं करता ।)

2014-01-01

सम्भावनाओं को तराशने और अपेक्षाओं को सम्भालने का समय !



वर्ष 2014 के आगमन पर सभी अपने तरीके से इसका इस्तकबाल कर रहे हैं । मेरे पास भी है कुछ उद्गगार । जिन्हे यहाँ साझा कर रहा हूँ ।

नव वर्ष बधाईयों का सिलसिला जब उद्विग्न हो गया तो मन के किसी कोने में यह बात कचोटी कि कुछ खट्टी  मीठी यादों के साथ 2013 तो विदा हो गया पर इन बधाईयों के बीच नये वर्ष में जीवन कैसा होगा ? 2013 के शुरू में ही @ tarun subhash का एक एस.एम.एस. आया था कि दो हजार जो कि उनका है वो उन्हे लौटा दिया जाये क्योंकि तब यह सार्वजनिक हो गया था कि दो हजार तेरा (2013) है । इसी मांग को तरूण के अलावा कई और मित्रों ने एस.एम.एस. के माध्यम से मेरे समक्ष रखा और वर्ष के बीच में बाकायदा याद भी दिलाया कि मुझे अब तो उनका 2000 वापस दे देना चाहिये । पर मैं भी ढ़ीठ बना रहा किसी को वापस नहीं किया - उनका 2000 |

एस.एम.एस. पर ठिठोली की बात से आगे अगर असल जीवन के भीतर झांके तो भी स्थिति कुछ खासी अलग नहीं है । हमसे जुड़े सभी की हमसे कुछ अपेक्षाएं हैं । जिसे वह अलग - अलग रूप में कभी प्रकट करता है  । तो कभी अप्रकट रूप में भी रहकर अपेक्षाएं स्पन्दित होती रहती हैं ।  अपने जीवन को ही रिवाईण्ड करें जरा । बचपन में कभी स्कूल में, कभी बोर्ड परीक्षा में पास होने की अपेक्षा । कभी विश्वविद्यालय में प्रवेश की अपेक्षा, फिर जीविकोपार्जन के साधन की अपेक्षा और फिर ......... जिन्दगी की उठा-पटक में इन अपेक्षाओं के बीच समय व्यतीत होता रहा ।

अपेक्षाओं के साथ ही आशाओं का भी जुड़ाव है । आने वाला समय आज से बेहतर होगा - यह हर मनुष्य की सतत प्रस्फुटित होने वाली आशाओं मे से एक है । हमारे प्रयासों और चेष्टाओं का एक बड़ा भाग आशा अनुरूप प्राप्ति में लगा रहता है । यूँ अगर एक बड़े कौनवस पर देखें तो जीवन आशाओं और अपेक्षाओं का तानाबाना मात्र ही लगता है ।

अब चाहे यह आशा, गीता के सर्व ज्ञात "कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है .....  फल की ईच्छा मत करो" वाली शिक्षा के कतई विपरीत ही क्यों न हो । पर मनुष्य तो मनुष्य है । वह हर बात को अपने हिसाब से अपने नफे - नुकसान के तराजू में तौल कर परिभाषित करने में माहिर हो चुका है ।

एक मनुष्य होने के नाते और जैसा कि आजकल फैशन में है कि एक आम आदमीहोने के नाते मेरा भी प्रयास होता है कि इन आशाओं और अपेक्षाओं के मैदान में खेलते रहने के लिये नई संभावनाओं की खोज करूँ । यह मानव जीवन की थाती है कि उसके लिये सम्भावनाएं अनंत हैं ।
बस जरूरत होती है पूरे इमानदार प्रयास की । वर्ष 2014 के लिये और जीवन के हर मौके पर जो बात जीवान्त दीखती है वो दुश्यंत कुमार के इस कथन में नीहित है कि "कौन कहता है आसमां में छेद नहीं होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों " या बचपन में सुना-पढ़ा यह दोहा कि " जिन खोजा तिन पाईयाँ " । पर इसके आगे  "गहरे पानी पैठ(ने)" की शर्त भी जुड़ी है । साथ ही यह भी कबीर ने बता दिया कि जो बापुरे बूढ़न डरेंउन्हे किनारे बैठकर ही संतोष करना पड़ता है । 

तो फिर क्या ? नई आशाओं और नईं अपेक्षाओं को सम्भालने के लिये नयी सम्भावनाएं खोजने का समय है । जो कि सतत है । हम सबके लिये वर्ष 2014 नयी सम्भानाओं के द्वार खोले । और हम सभी अपने से अपनों की अपेक्षाओं पर खरे उतरें ।

इस वैचारिक उधेड़ - बुन के बीच ईष्ट जनों मित्रों एवं सम्बन्धियों के बधाई सन्देशों का भी आभार व्यक्त करना चहता हूँ ।

इति शुभम - शुभ !  स्वागत 2014 !

2013-12-24

झोले वालों के ’असली बसन्त’ पर खद्गदर वालों के पतझड़ का फातिया !

झोले वालों के ’असली बसन्त’ पर खद्गदर वालों के पतझड़ का फातिया !

बात युनाईटेड प्रोगेसिव एलायन्स प्रथम (UPA - 1) की पहली बार सरकार बनने और सोनिया गांधी के खुद को सरकार से अलग करते हुये मनमोहन सिंह को प्रधान मन्त्री बनने के लिये आगे करने के समय की है । चूंकि कांग्रेस के लोग इस बात को हजम नहीं कर पा रहे थे कि नेहरु - गांघी परिवार से इतर कोई कुर्सी सम्भाले इसलिए सोनिया गांघी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council - NAC) का गठन कराया और सरकार को विकास एवं जनहित के मुद्दों पर सलाह देने का बीड़ा उठाया ।

इस परिषद में सोनिया ने देश भर के नामचीन समाजिक कार्यकर्ताओं जैसे अरूणा राय, मेधा पाटकर, सन्दीप पाण्डेय आदि को शामिल किया । तब यह कहा गया कि सोनिया ने सरकार को समाज और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर चलाने का इन्तजाम किया है । और अखबारों के opinion editorial पन्नों पर छपने लगा कि यह "झोले वालों का बसन्त काल है ।"   सोनिया के रास्ते सीधे तौर पर सामाजिक सरोकारों का सरकार के काम - काज पर प्रभाव रहेगा । सरकारी बैठकों में भी झोलेवाओं से राय - मशविरा किया जाना शुरू हुआ ।  बताते चलें के सामाजिक कार्यकर्ताओं को euphimistically "झोलेवाला" कहा जाता है । साथ ही यह भी बतातें चलें कि UPA - 1 के कार्यकाल की उपलब्धियों में RTI Act और MNREGA सरीखे लोक कल्याणकारी कानून शामिल हैं । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (FSB) भी इसी NAC के दिमाग की उपज कहा जा सकता है ।

आज जब अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की कुर्सी पर बैठने को तैयार हो गये तो बरबस ही 1999 से आगे का समय जो मैने देखा - एक kaleidoscope की भांति आखों के आगे घूम गया । लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.काम. में पढ़ते समय मेरे ईमेल पर पता चलता था कि दिल्ली में ’परिवर्तन’ नामक गैर सरकारी संस्था (NGO) द्वारा बिजली दफ्तरों के बाहर जनसभाएं करके और कैम्प आदि लगा के जनता की समस्याओं से दो-चार होकर उन्हे सुलझाने का प्रयास किया जा रहा था । और इस संस्था का मुखिया अरविन्द केजरीवाल नाम का व्यक्ति, इनकम टैक्स का एक बड़ा अधिकारी था । ’परिवर्तन’ की ईमेल की खास बात यह होती थी कि वे अपनी सफलताओं और विफलताओं को बेहद साफगोई से रखते थे । केजरीवाल ने इससे पहले अपने इनकम टैक्स कार्यालय से ही समाज सेवा की शुरुआत की थी ।

बाद में केजरीवाल ने ’परिवर्तन’ के बैनर के तले ही शुचिता कानून कहे जाने वाले सूचना का अधिकार अधिनियम को पूरे देश में लागू करने के लिये आन्दोलन खड़ा किया ।  2005 में पूरे देश में लागू होने से पहले दिल्ली सहित देश के छ: राज्यों में अलग-अलग अधिनियमों के माध्यम से यह कानून लागू था । RTI पर केजरीवाल रसीखे लोगों के इसी संघर्ष के कारण 2005 में पूरे देश को यह अधिकार मिला । और इसके लागू होने के बाद भी पूरे देश में इसके ट्रेनिंग कार्यक्रम और क्षमता विकास के कार्यक्रम आयोजित किये । मनीष सिसोदिया उसी दौर के साथी हैं ।

शुचिता संवर्धन के उसी दौर में Association for Democratic Reforms (ADRI) नामक संस्था बनी जिसमें IIM - Bangalore के प्रो. त्रिलोचन शास्त्री, IIM - Ahemedabad के एक प्रो. और अनिल बैरवाल आदि शामिल थे । ADRI ने पूरे देश में Election Watch नामक कार्यक्रम की नीवं रखी जिसने चुनावी उम्मीदवारों के हलफनामों का अध्ययन करके उम्मीदवारों के आय - व्यय और आपराधिक मुकदमों को सार्वजनिक करने का बीड़ा उठाया । 

केजरीवाल नाम के इस झोलेवाले का जो बसन्त काल तब शुरू हुया था आज वह एक मुक्कमल मुकाम पर पहुँच गया है । अब यह मुकाम किसी सोनिया के रहमों करम पर नहीं है । किसी को सलाह न देकर अब वह खुद अपनी इबारत लिख सकेंगे । मुबारक हो यह बसन्त ! शुचितानीत राजनीति का शैशव-काल मुबारक हो !

पर पूरे प्रकरण से ’खद्दर वाले’ तिलमिलाए हुये हैं । समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों ? उनकी थाथी में ठेस जो लगी है । शायद राजनीति में उनका पतझड़ काल शुरू हो गया है ? समय रहते नहीं चेते तो जनता फातिया भी पढ़वा देगी । 

2013-11-12

’A’ for Accounting और ’क’ से कामर्स पढ़ते हुये निगाहें क्षितिज पर रखना सिखाया

बहुत वर्षों बाद एक शख्स से मुलाकात हुई । वह भी संयोगवश ।

आपकी सिफत यह है कि इन्होने मुझे वाणिज्य और प्रबन्धन के वो बुनियादी सबक दिये जिन्हे समझने के लिये मैं ’A’ for Accounting और ’क’ से कामर्स कह सकता हूँ । मतलब आप समझ गये होंगे । कक्षा 11 - 12 यानि स्कूल के दिनों में इनसे मुलाकात करने के लिये बदस्तूर रोज सुबह 5:00 बजे उठ कर, सर्दी, गरमी बरसात की बे-रहमी झेलते हुये, अपने घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था ताकि सुबह 6:30 बजे से इनके सबक ले सकूं । साथ में मेरा एक सहपाठी और भी जाता था । @ surendra chawla याद है कि नहीं ?

लगभग बीस साल हो गये कक्षा 12 की परीक्षा पास किये हुये । इस बीच आपके बारे में यार - दोस्तों से, सहपाठियों से यदा कदा सुनता रहा । यह कि आपके बारे में जो सुनता रहा उसे शब्दों में नुमायां करना तो मुश्किल है पर यूँ समझ लीजिये कि शायद बहते पानी की तरह - जो कभी ठहरे नहीं । हमेशा नयी चुनौइयों से टकराये और नये आयाम के साथ नये मुकाम हासिल किये । और हर मुकाम हासिल होते ही क्षितिज भी ऊँचा हो गया ।

पूरे विश्वास के साथ तो नहीं कह सकता पर शायद ’रमता जोगी बहता पानी’ इसी को कहते होंगे । हमेशा बहते पानी के तरह आगे बढ़े और जहाँ पहुंच गये वहीं रम गये । रच - बस गये । पर क्षितिज से निगाहें न हटी । और आज भी आपका विश्वास देखकर लगता है कि कभी हटेंगी भी नहीं । आज भी उतने ही उर्जावान और नये विचारों से लबरेज । कुछ कर गुजरने की कुलमुलाहट ।

उम्र के इस पड़ाव तक आते - आते यह तो समझ में आ ही गया कि बुनियाद गहरी और मजबूत हो इसके लिये बुनियाद के मानक कड़े और कठोर होतें हैं । कौन जाने कि आगे जाकर इमारत को कौन - कौन से झांझवत झेलने पड़े । आपने हमें कड़े मानकों पर कसा और घिसा । जिसका लाभ मैं स्वयं कई बार खुद अलग - अलग किस्म की नयी इबारतें लिखकर उठा चुका हूँ । बहुत से मिथक तोड़े और नये आयाम कायम करते हुये आज भी निरन्तर लाभ ले रहा हूँ ।

इस मुलाकात की खास बात यह रही कि बीस वर्षों के बाद मालूम हुया कि जिन मानकों पर आपने हमें तौला और परखा उससे भी कहीं ज्यादा कड़े मानक आपने स्वयं, अपने लिये बनाये थे । अपने पर भरोसा इस कदर की पी.सी.एस. अफसर की सरकारी नौकरी से तौबा करने से नहीं चूके । यानि एक बार फिर -  निगाहें क्षितिज पर होनी चाहिए और हर एक उपलब्धि के बाद क्षितिज ऊँचा उठ जाये ।

आपसे मिल कर एक ऐसी नयी उर्जा का संचार हुआ जिसकी शायद बहुत समय से जरूरत थी । खुद के भीतर जिस ठहराव से उबरने की जरूरत थी, वो मिली । इसके लिये अत्यंत आभारी हूँ ।  गुरु का ऋण चुकाना तो संभव नहीं और कोई प्रयास भी नहीं करना चाहता क्योंकि कुछ ऋण नहीं चुकाने का अपना आनंद है । बल्कि जब जरूरत हो और ऋणी बनने से भी नहीं चूकूंगा ।

सर, मैं जानता हूँ मेरी सीमा यहीं तक है । आपकी अनुमति के बिना आपको जाहिर नहीं कर सकता । पर आप चाहें तो आशीर्वाद दे सकतें हैं ।

आपका छात्र !
सचिन अग्रवाल

2013-10-16

गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !

गांधी के बहाने बुनियादी बात, ड़ा अनिल पी. जोशी के साथ !
पर क्या व्यापार और व्यापारिक शिक्षा समाजोन्मुखी होने को तैयार है ?


विगत गांघी जयन्ती पर विश्वविद्यालय में पद्र्म पुरुस्कार से सम्मानित सुविख्यात पर्यावरणविद ड़ा अनिल पी. जोशी का व्याख्यान आयोजित किया गया । इससे पहले जोशी साहब से मेरा परिचय दैनिक हिन्दुस्तान के op-ed page पर प्रकाशित होने वाले उनके लेखों के माध्यम से था । विश्वविद्यालय को जोशी का अभारी होना चाहिए कि उन्होनें उसी दिन लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी, मसूरी (आई.ए.एस. आकादमी) में अपने प्रस्तावित कार्यक्रम के ऊपर विश्वविद्यालय के आमंत्रण को रखा ।  साथ ही छात्रों और शिक्षकों से बात के लिये समय दिया ।

उनके व्याख्यान से ठीक पहले एक स्थानीय कालेज के पूर्व प्राचार्य रहे दर्शनशास्त्री गांघी के महातम पर बोल के चुके थे । और जोशी जी ने यह बात बखूबी पकड़ी की लगभग 500 क्षमता वाले उस संगोष्ठी भवन में लोगों की गांधी का दर्शन सुनने की कोई खासा इच्छा नहीं थी । सिर्फ रस्म अदायगी के लिये लोग बाग अपनी उपस्थिति दिखा रहे थे ।

सो उन्होनें एक बहुत बुनियाद बात से शुरू किया कि जिसे भी पानी, हवा और भोजन की जरूरत न हो वो बाहर जा सकता था ।  उनकी बातें बुनियादी थी, जमीन से जुड़ी और बिना लाग लपेट के । कान के रास्ते दिल में उतरने वाली । जल, जंगल, जमीन  के विमर्श में जोशी ने पहाड़ के पहलू (डाईमेन्शन) को न सिर्फ जोड़ा बल्कि उसे पहचान दिलाने के लिये सतत संघर्षरत रहे । उनके काम की बानगी http://www.hesco.in/abouthesco.php पर देखी और समझी जा सकती है ।

जोशी सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित विकास के प्रचलित माडल को खारिज करते हैं । उनकी दलील है कि जी.डी.पी. बढ़ाने में जितने प्राकृतिक संसाधन लगते हैं उनकी कीमत बढ़े हुये उत्पादों की कुल वसूलयाबी कीमत से कहीं ज्यादा हैगी । क्योंकि विकास के नाम पर इन संसाधनों का जो दोहन हो रहा है उसकी भरपाई नहीं होती है इसलिये हम सस्ते विकास के चक्कर में पड़कर अमूल्य प्राकृतिक संपदा खोते जा रहे हैं । सीधे शब्दों में बढ़ता हुआ जी.डी.पी.,  बढ़ते विकास का और समृद्धि का द्द्योतक नहीं है । इसलिए विकास को मापने के नये पैमाने खोजने और स्वीकारने होंगे । और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी और निजी कब्जेदारी रोकनी होगी ।

वास्तव में यह कोई ऐसी बात नहीं है जो पहले न कही गयी हो ।  बहुत से संस्थान और संगठन इन बातों को उठाते रहे हैं । सबसे पहले जो उदाहरण मेरे ज़हन में आता है वो मेधा पाटकर का है । नर्मदा नदी पर बन रहे बांध से होने वाले प्रभावों को पढ़ने के लिये गयी टाटा सामाजिक अध्ययन संस्थान (Tata Institute of Social Sciences, Mumbai) की यह छात्रा कैसे पढ़ाई के बीच बांध से प्रभावित जिन्दगियों की आवाज बनी और देश की नामचीन आन्दोलनकारी । मेधा पर भी विकास - विरोधी होने के आरोप लगे । लम्बी अदालती लड़ाई से भी हारने के बाद भी जो बात मेधा कहना चाहती थी वो होते हवाते, हिचकोले खाते बढ़ती रही और बढ़ रही है । जोशी भी शायद उन्ही विचारों के प्रवर्तक हैं । रास्ते जुदा पर मजिंल एक ।

इस परिपेक्ष्य में कहना चाहूँगा कि अपने स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार की रटंत आधारित शिक्षा हम परोस रहें है उससे तो जोशी-पाटकर स्कूल आफ थाट्स का भला होता नहीं दिखता । इसका रास्ता भी शायद गांधी की ओर देखने से मिल सकता है । गांघी ने समग्र विकास (Sutainable Development) का विचार दिया था । इसके साथ ही अगर समाजिक सम्पदा का 'न्यासी-हित सिद्धान्त' को मिला दिया जाये तो बात बन सकती है । कई आन्दोलनों एवं आन्दोलनकारियों के साथ काम करने का जो कुछ भी अनुभव मुझे मिला उसमे मैंने सदैव एक सवाल पूछा । वह यह की प्रबंध शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा (जिससे मैं भी जीविकोपार्जन करता हूँ ) में ऐसा क्या किया जाय कि जो पाठ आन्दोलनों के माध्यम से कार्पोरेट को जबरिया पढ़ाया जाता है उसे क्यों न भविष्य के कार्पोरेट को क्लास रूम में ही पढ़ा दिया जाये कि भविष्य में वे सामाजिक मसलों पर ज्यादा संवेदनशील हों । पर ऐसा कोई संस्थान मिला नहीं । सभी को यह चिन्ता है कि बाजार की जरूरतों में उनका पाठयक्रम कहीं पिछड़ न जाये ।

किसी दिन अगर मेरा कोई अपना शिक्षण संस्थान हुआ तो उसमें MBA (Sustainable Development) और MBA (Corporate Social Responsibility) जरूर पढ़ाया जायेगा । और हो सका तो B.Tech. (Sustainable Development) भी ।

जेम्स बांड की एक फिल्म देखी थी Quantum of Solace. उसकी कहानी भी यही थी कि दो माफिया गुटों और देशों के बीच संघर्ष चल रहा है । पूरी फिल्म भर जिसे हम समझते रहे की संघर्ष पेट्रोल को लेकर है वो अन्त में जेम्स बांड ने खोजा की साफ - पीने योग्य पानी को लेकर था । बताने की जरूरत नहीं की व्यापारिक हित प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की राह में अग्रसर हैं । खुश तो आज तुम बहुत हो्गे कि अभी पीने को पानी सिर्फ पानी ही 15 - 20 रुपये लीटर मिल जाता है । और अगर आक्सीजन (प्राण वायु) भी किसी सिलेन्डर में नाप कर बेची जाये तो ?

2013-10-15

राम, रावण एवं रावण तत्व । एक विमर्श !



बुराई पर अच्छाई की प्रतीकात्मक जीत,  धुंवाधार आतिशबाजी के साथ आज एक भर फिर मुक्कमल हो गयी । आज भी दशहरा है ।  रावण फिर जला और राम की सत्ता पर लोगों ने फिर आस्था जताई ।  यहाँ मैं इस बात से आज आगे बढ़ना चाहता हूँ कि हर बरस इस आयोजन की क्या सार्थकता है ?

सिर्फ प्रतीकात्मक ही रह गया है । रावण को बुराई का होल - सोल ठेकादार मानकर फूंक देना । क्योंकि वास्तव में तो न तो रावण मरता दिखता है और न ही रावण तत्व का खात्मा होता हुआ ।  इन सब रस्म अदायगी के बीच एक विचार यह भी आया कि रावण का एक बहुत बड़ा उद्देश्य राम को स्थापित करना भी है । क्योंकि राम का महातम रावण के किरदार के बिना कैसे चमकता ?  रावण की सिर्फ एक गलती उसे अर्श से फर्श पर पहुँचा देती है । 

कुबेर को रावण का बड़ा भाई बताया गया है । यानि एक जिम्मेदार पद पर । रावण की शिव - भक्ति पर स्वयं महादेव भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकते । और जो काम पूरे विश्व में कोई नहीं कर पाया वो सिर्फ रावण ने कर दिखाया । शिव के नृत्य तांड़वको शब्द-बद्ध एवं लय-बद्ध करने का । उस जमाने में भी ज्ञानी - महात्मा लोगों की कमी नहीं रही होगी । शिव तांड़व स्त्रोत वास्तव में रावण स्त्रोत है । और शिव को दस बार आपना शीश काट कर अर्पित करने के कारण उसका नाम दशानन पड़ा । स्वयं महादेव ने उसके दसों सिर वापस किये ।

लक्ष्मण को राजनीति शास्त्र के ज्ञाता रावण की मृत्यु शय्या पर रावण के पास स्वयं मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने कुछ ज्ञान हासिल करने भेजा था । राम ने जिस रामेश्वरम मन्दिर की स्थापना की उसमें पुरोहित का किरदार भी रावण के जिम्मे रहा ।

रावण सामराज्यवादी था । वह अपना सामराज्य बढ़ा रहा था । आज भी कौन सा शक्तिशाली देश यह काम नहीं कर रहा है । जबसे दुनिया एक ध्रुवीय हुई है तबसे यह बात और भी प्रासंगिक हो चली है । सामराज्यवाद जो पहले ब्रिटेन का काम माना जाता था । वह सोवियत संघ के टूटने के बाद अमेरिका का शगल हो चला है । जहाँ अमेरिका आर्थिक सामराज्यवाद की दिशा में बढ़ रहा है वहीं ब्रिटेन उसके साथ राजनैतिक सामराज्यवाद भी बढ़ाता था ।  तो रावण बुरा था इसलिये उसके पुतले पूरे देश में फूंके जा रहे हैं - 5000 साल बाद भी । और अमेरिका के पुतले भी पूरे विश्व में हर उस देश में फूंके जा रहे हैं जहाँ - जहाँ उसके सामराज्यवाद ने लोगों को दु:ख पहुँचाया । यहाँ तक की स्वयं अमेरिका में भी । साथ ही बताने की जरूरत नहीं की रानी का सामराज्य अब सिमट चुका है ।

यह रावण के किरदार की एक बानगी भर है । और आप में से हर कोई इसकी मीमांसा अपने - अपने चश्में से ही करेगा । प्रदूषण बढ़ाने की दृष्टि से शायद हम - सब भी रावण के ही रोल में हैं । इसलिये रावण का नहीं रावण-तत्व का दहन करें और इस किरदार के उअले पक्ष को अंगीकृत करने में कोई हर्ज नहीं दिखता ।

शायद, शायर निदा फाज़ली ने इसी लिये कहा हो :

हर आदमी में होते हैं दस - बीस आदमी
जिसे भी देखिये
बार - बार देखिये ।

2013-09-27

सत्य के आग्रह से कतई परे, सत्याग्रह !

प्रकाश झा कैम्प से गंगाजल और अपहरन जैसी जीवान्त फिल्में देखने के बाद सत्याग्रह देखकर बहुत प्रसन्नता नहीं हुयी । इस बात को शायद इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म देखने के कई दिन बाद उस पर कुछ लिखने का मन बना पाया हूँ । एक बिखरे हुये से कथानक की झलक, जिसमें सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कई घटनाओं की चटनी परोसने का प्रयास ज्यादा दिखा।  सत्येद्र दुबे हत्याकाड़ं, अन्ना का अन्दोलन, केजरीवाल का आन्दोलन से विरचन कर राजनैतिक दल बनाना और गांधी के अन्तिम दिनों की झलक, सबकुछ एक साथ ।

एक बात इस फिल्म में जोरदार तरीके से कह दी, कि अगर आप व्यापार में हैं और तो समाज सेवा और आन्दोलन का ख्वाब मत देखिये क्योंकि राजनीति आपको जीने नहीं देगी । पर राजनीति के उच्चतम शिखर पर भी आपका बड़ा और महा-भ्रष्ट व्यापारी होना काफी मददगार सिद्ध हो सकता है । क्योंकि मानव (अजय देवगन) को अपना 5000 करोड़ का बिजनेस (जो कि वास्तविकता में 6250 करोड़ का था ) छोड़कर ही सत्याग्रह में उतरना पड़ा । । इसके पलट सभी मन्त्री सरकारी बैठकों में अपने - अपने कारोबारी हित साधते नजर आये । यहाँ तक कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का नेता भी अपने कारोबारी हितों के चलते आन्दोलन से अचानक अलग हो गया ।

फिल्म के कुछ पहलुओं पर फिल्म से मेरा प्रश्न है ।  मध्य प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में बिहारी / भोजपुरी बोलने वाले विलेन टाइप नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) की क्या जरूरत थी ? क्या बुन्देलखण्डी बोलने वाला कोई किरदार बेहतर नहीं होता ?  शायद ’गठबंधन की राजनीति ’ की मजबूरी रही होगी ?

मध्य प्रदेश में ’ हिन्दुस्तान ’ अखबार नहीं चलता है । वहाँ ’ नव भारत ’ की धूम है । पर पूरी फिल्म में प्रकाश झा हिन्दुस्तान अखबार दिखाने से बाज नहीं आये । मेरे विचार में यह रियालटी सिनेमा के सिद्धान्तों के विपरीत है । इसे हिन्दुस्तान अखबार के विज्ञापन के रूप में देखा जा सकता है । वैसे हिन्दुस्तान अखबार के अलवा फिल्म में ’ अल्ट्राटेक सीमेन्ट ’, हीरो की पैशन मोटर साईकिल, और किसी चावल के ब्राण्ड तो मुझे याद आ रहा है, जिनके की विज्ञापन दिखाये गये । इसके अलावा और ब्राण्ड भी हो सकते हैं ।

ए.बी.पी. न्यूज की प्रतिनिधि बनी करीना कपूर खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गयी और अम्बिकापुर में ही बस गयी । पत्रकारिता की निश्पक्षता पर यह सवाल खड़ा करता है । क्या वास्तव में ए.बी.पी. न्यूज अपने किसी संवाददाता को ऐसा करने देगा ? कि जब चाहे आन्दोलनकारी बन जाओ और जब चाहे रिपोर्टर ? साथ ही अजय देवगन और करीना का प्रेम प्रसंग (चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो)  कथानक से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता ।  इस पहलू पर भारतीय फिल्म निर्माताओं को हालीवुड से सीखने की जरूरत है । कि काम से काम रखो, बिलावहज का रोमांस मत ठूसो ।

2013-07-21

पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !

पाकिस्तान से ’भागा था मिल्खा’ और वहीं से मिला ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब !

भारत पाकिस्तान के बटवारे के दंश को दोनों मुल्कों के इतिहास, साहित्य, लोकगीतों और अब फिल्मों के माध्यम से संजो कर रखा जाता रहा है । जहाँ आक्रमण, बार्डर और लक्ष्य जैसी फिल्में सीधे तौर पर दोनों मुल्कों की सेनाओं के टकराव को दिखाती हैं वहीं अब फिल्मों की एक जमात ने उस टकराव को खेल के मैदानों तक ला खड़ा किया हैं ।

’चक दे इण्डिया’ में भारत के एक मुसलमान हाकी खिलाड़ी के पाकिस्तान के खिलाड़ी से मैच के बाद हाथ मिलाने पर देश-द्रोही करार दिया जाना दिखाया । इस खिलाड़ी का कैरियर लगभग तबाह हो गया था । जिसे फिर से महिलाओं की हाकी टीम के कोच के रूप में आने के लिये काफी मशक्क्त करनी पड़ी । और जब तक महिलाओं के हाकी का विश्व खिताब जीत नहीं लिया उसका "गद्दार" का तमगा हटा नहीं ।

फिल्म में मिल्खा की जो कहानी दिखायी गयी उससे मालूम हुआ कि उनको ’फ्लाईंग सिख’ का खिताब पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक ने दिया था । किसी भी कामयाबी के लिये कड़ी मेहनत, लगन और जज्बे की जरूरत के महत्व को यह फिल्म रेखांकित करती है ।

गुरू, उस्ताद और मौलवी के महातम को भी बखूबी दिखाया गया है । पर एक बात जो दिल को छू गयी वह थी कि सिर्फ ’एक मग दूध और दो कच्चे अण्डों’ पर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार किये जा रहे थे  ।  सोनम कपूर की अदाकारी में दिल्ली 6 वाला खिलंदड़ी अन्दाज बरकरार दिखा । फरहान अख्तर एथलीट कम और बाडी बिल्डर टाइप ज्यादा लगे ।

पाकिस्तान से विभाजन के वक्त जान बचा कर ’भागने’ पर मिल्खा के उपर चुभने वाली टिप्पणी पाकिस्तान के कोच ने की ।  निश्च्य ही फिल्म के कुछ भाग को हटाकर इसे कुछ छोटा किया जा सकता था ।  यह भी एक पीरीयड फिल्म है और कुछ glitches रह जातें है ।  चूंकि मिल्खा सिंह आज भी स्वयं जीवित हैं इसलिये यह माना जा सकता है कि उनके ऊपर बनीं फिल्म "भाग मिल्खा भाग" पर उनकी स्वीकृति भी है । 

और हाँ भविष्य में मैं एक फिल्म भारत - पाकिस्तान के क्रिकेट वर्ल्ड कप फाईनल पर भी देखना चाहूँगा ।  कोई फिल्म अगर आई-पी-एल आदि में मैच फिक्सिंग पर भी बने तो क्या कहना । मधुर भण्डारकर खेमें से हो तो बेहतर ।

2013-03-28

उत्सवों के प्रतीक चिन्हों पर प्रश्नचिन्ह ?

होली पर्व बीत रहा है और मेरे मुझे भीतर तक कचोट रहा है । बात उत्सवों के प्रतीक चिन्हों की है । उत्तर भारत में होली पर गन्ने और जौ की बाली को होली की आग में तपा कर लाने और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की प्रथा है । यह कृत्य हमें याद दिलाता है कि मूल रूप से हम कृषि आधारित सभ्यता हैं । गन्ने और गेहूँ, दोनो की ही फसलें लगभग होली के आस - पास ही तैयार हो रही होती हैं ।

होली, खेत में खड़ी फसलों का उत्सव है । इसके बाद अप्रैल में लोहड़ी, ओणम और बिहू भी मनाया जाता है । यह सभी फसलों के खेत से खलिहान पहुँचने के उत्सव हैं ।

ठीक वैसे ही जैसे दिवाली के पास धान की फसल आ रही होती है । जिससे खील तैयार की जाती है । जोकि दिवाली के पूजन में भी अपना विशेष स्थान रखती है । या यूँ कहा जाये कि प्रकृति के साथ समाज ने सामंजस्य बिठाया और उत्सवों को फसल की तैयारी के समय के आस - पास निर्धारित किया । चूंकि समाज में बहुधा कृषि आधारित रोजगार था, इसलिये तैयार होती फसलें आने वाली समृद्धि का प्रतीक मानी गयी । तो इसलिये आर्थिक संपन्नता के महौल में उत्सव मनाये जाने का रिवाज चल निकला । जो आज भी जारी है ।

मेरा प्रश्न इन प्रतीक चिन्हों की प्रासंगिकता पर है । आर्थिक आंकड़े बताते है कि कृषि क्षेत्र अब बहुधा जनसंख्या को रोजगार देने क्षमता खोता जा रहा है । यह रुतबा अब सेवा क्षेत्र की झोली में खिसकता दिख रहा है । रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर लगातार बढ़ते नये कदमों ने भी अपना काम किया । अब आपको अपने आस पास ऐसे परिवार मिल जायेंगे जिनका कोई गांव कनेक्शन नहीं रहा । किशोरों और युवाओं की पूरी - पूरी खेप है जिसने गेहूँ से पहले पैकेटबन्द आटे को पहचाना । ऐसे में होली के अवसर पर गन्ने और जौ की बाली के साथ - साथ दिवाली पर खील के पूजन की प्रासंगिकता पर एक प्रश्नचिन्ह है।

इन उत्सवों के लिये समाज को शीध्र ही शायद नये प्रतीकचिन्हों की आवश्यकता पड़े !

 

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