2013-02-16
शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर
शपथ कमजोरों का हथियार है । - शेक्सपीयर
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी 2013
विश्वविद्यालय में आयोजित आज के षष्टम दसवें दीक्षान्त
समारोह के बाद जो मनोविचार मेरे मन में उठ रहे हैं उन्हे अब साझा किये जाने
का समय आ गया है । बेशक युवाओं के प्रति आशावादिता और देश की बेहतरी की आस समाज के
लिये शुभ संकेत हैं । किसी भी राष्ट्र के लिये यह सुखद अहसास होना चहिये कि आगामी समय
को लेकर समाज आशान्वित है । पर आज का प्रश्न है कि शिक्षा के समावर्तन पर जो शपथ दिलायी
जाती है उसे बिसरा क्यों दिया जाता है ? जिसकी ओर इशारा जस्टिस वर्मा
ने किया ।
इस बात को सिर्फ विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों
के परिपेक्ष में न देखकर, बल्कि एक बड़े दायरे में देखे जाने
की जरूरत है । यानि इसको अन्य सभी संस्थाओं से निकलने वाले अभ्यर्थियों के सम्बन्ध
में भी देखा जाना चाहिये । उदारहण के लिये डाक्टरों की हिप्पोक्रेटिक शपथ के सम्बन्ध
में । प्राय: वकीलों, पुलिस वालों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को भी किसी न किसी प्रकार शपथ दिलायी जाती है । इस प्रश्न
को विद्या अर्जन के समय और उसके तुरन्त बाद समाज की बेहतरी के लिये काम करने के जस्बे
के कुछ समय बाद कम होने के कारणों के मूल में जाकर हल करने की आवश्यकता है ।
यहां शेक्सपीयर का जूलियस सीज़र में यह कथन उद्वरित होता
प्रतीत होता है कि "शपथ कमजोरों का हथियार है ।" क्यों नहीं हम अभ्यर्थियों को बिना किसी शपथ के
ही उनके जीवन में अग्रसर होने दें और उन्हे क्या करना है,
क्या नहीं
- उसका फैसला उन्हे स्वयं करने दें । तभी
"या विद्या सा विमुक्तये" का भाव सच्चे अर्थों में सामने आ पायेगा । और साथ
ही किसी शपथ को विस्मित कर देने के अपराध बोध से भी लोगों को मुक्ति मिलेगी । कोई भी
शपथ, विद्या अर्जन के मूल उद्देश्य स्वयं के विवेक से एवं आत्मबल
के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करती है । इस समरोह में छात्रों को जोर
- शोर से इस बात की शपथ दिलायी जाती है कि वे उसी प्रकार का आचरण करेंगे जो कि समाज
में पूर्व से ही निर्धारित कर दिया गया है । बताया गया है कि “महाजनेन गत: सा पंथ:” । यानि बनी - बनायी लकीर
पर चलोगे - इसका वादा करके जाओ । यही आदेश है और यही उपदेश भी है । क्या इसका अर्थ
यह निकला जाये कि जो हो चुके वही महापुरुष होंगे, अब तुम महापुरुष बनने के चक्कर में न पड़ना ? मेरा मन इस बात से अन्दर से कराह
रहा है ?
गुस्ताखी माफ ! पर यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं
बल्कि पूरी व्यवस्था पर है । क्या ऐसा वादा करने से मौलिकता का हनन और नवीन विचारों
का संकुचन नहीं होता है ? यह अलग बात है कि अधिकांश विद्यार्थी
इसे डिग्री लेने के लिये मात्र एक रस्म अदायगी ही मानते हैं । इस बात की इमानदारी से
तस्दीक नहीं होती दिखती । असल जिन्दगी मंचों और समारोहों से अलाहिदा होती है या यूँ
कहें कि हम असल जिंदगी का समारोहों और मंचो के साथ सामन्जस्य नहीं बैठा सके हैं ।
विचारों के उद्वेलन की बात तो सबको भाती है पर उस उद्वेलन
के क्रियान्वन, यदा - कदा दिल्ली बलात्कार कांड जैसी किसी घटना के बाद
ही दिख पाता है । भगत सिंह की जरूरत समाज को हमेशा से रही । पर सभ्य समाज का अभिजात्य
वर्ग यह कह कर अपना दामन छुड़ाता रहा कि भगत सिंह किसी पड़ोसी के यहाँ पैदा हो तो अच्छा
है । किसी को इस बारे कुछ करना चाहिये । पर हम कुछ नहीं करेंगें । व्यवस्था के साथ
हमारे सुविधावादी संतुलन को कोई हानि न पहुँचे ।
भले ही सार्वजनिक मंचों से लोकतन्त्र और इसके मूल्यों
के रहनुमायी की बातें की जाती रही हों पर सच्चाई थोड़ी कड़वी है । राज्य का रवैया भी
लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी में खड़े होने वालों के प्रति सकारात्मक न होकर अपितु
ऋणात्मक ही रहा है । जिसमें पहले इन पहरेदारों को अपने सुविधावादी संतुलन में शामिल
करने के प्रयास किये जातें हैं । यदि इनमें
सफलता नहीं मिली तो राज्य दमनात्मक रवैया अपनाने से भी नहीं चूकता है । क्या अंग्रेज, क्या हिन्दुस्तानी ? इस बात पर सभी एक ही नाँव में सवार
दिखतें हैं । या तो सत्ता वर्ग की मानों या परिणाम भुगतो । शायद इसी कारण से बहुधा
जन आन्दोलन एक समय के बाद या तो हताशा का शिकार हो ठप्प हो जातें हैं या फिर राज्य
से विश्वास उठने के बाद हिंसक तक हो जाते हैं ।
पूरे विश्व के साथही भारत में भी एक नये युग का आगमन
हो रहा है । इस युग में लोग सूचना क्रान्ति के दम पर एक दूसरे लगातार जुड़े हुये हैं
। यह वही युवा वर्ग है जो दिल्ली में जन्तर मन्तर पर और इण्डिया गेट पर नजर आया । यहाँ
भले ही लोग एक दूसरे को व्यक्तिगत रुप से न जानते हों पर उद्देश्यों की समानता के आधार
पर इस आभासी दुनिया में बड़ी तेजी से परिचय होता है । जोकि जरूरत पड़ने पर असल दुनिया
में अवतरित भी होता है । और पुन: अपनी आभासी दुनिया में विलुप्त हो जाता है । इसलिये
यह कहना कि वे लोग एक दूसरे को जानते नहीं थे, शायद सही नहीं होगा । उनकी
पहचान अपने उद्देशयों की समानता के आधार पर सदा बनी रह सकती है ।
आगामी समय में सत्ता वर्ग को इस प्रकार के अन्य आंदोलनों
के लिये भी अपनी कमर कसनी पड़ सकती है । यही नये भारत की उम्मीद है । यही देश की आशा
है । और हाँ, इन सब के लिये किसी शपथ की जरूरत नहीं पड़ती दिखती है
। और न ही किसी विश्वविद्यालय के किसी पाठ्यक्रम में आन्दोलन करना सिखाया जाता है ।
*****
Posted by Sachin Agarwal at 00:09 0 comments
2013-02-15
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
पूर्वांचल की जय और युवाओं पर भरोसे का नाद !
जौनपुर । शुक्रवार 15 फरवरी,
2013.
वसन्त आगमन पर हर्ष, प्रेम और उल्लास का पर्व
वसन्त पंचमी, ज्ञान के उत्सव का पर्व भी है । आज के ही दिन माँ सरस्वती
के अनुष्ठान का भी विधान है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर स्थित वीर बहादुर सिंह
पूर्वांचल विश्वविद्यालय का दीक्षान्त समारोह माँ सरस्वती के इसी पावन पर्व पर ही मनाया
जाता रहा है । विश्वविद्यालय का सोलहवाँ दीक्षान्त समारोह 15 फरवरी 2013 दिन शुक्रवार
को विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुया ।
सामान्य रूप से दीक्षान्त समारोह किसी भी विश्वविद्यालय
के लिये एक वार्षिक उत्सव के समान होता है । आज के दीक्षान्त समारोह पर कुछ कहने से
पहले @ sashi kant tripathi के शब्द,
जो मुझे स्मरण
हो रहे हैं, आपसे साझा करना चाहूँगा । कुछ वर्षों पहले एक दीक्षान्त समारोह के बाद विश्वविद्यालय
की समीक्षा बैठक में इन्होने कहा था कि वास्तव में दीक्षा का कभी अंत नहीं होता । विश्वविधायल
के दीक्षान्त समारोहों में भी कुलपति दीक्षा के लिये स्वीकार किये गये अभ्यर्थियों
को यही आदेश और उपदेश देतें हैं कि वे आजीवन स्वयं को इस दीक्षा के योग्य प्रमाणित
करते रहें । त्रिपाठी के अनुसार वेदों आदि में इस संस्कार के लिये समावर्तन संस्कार
आयोजित कराने की व्यवस्था है । इसलिये उनका सुझाव था कि विश्वविद्यालय भी अपने कार्यक्रम
का नाम आगे से ’समावर्तन संस्कार समारोह’ कर ले तो बेहतर होगा । पर
चूंकि मूलत: हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो कि बनी बनायी लकीरों का अनुसरण करने में
ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है इसलिये त्रिपाठी का यह सुझाव भी उस समीक्षा बैठक से
आगे न बढ़ सका । बताते चलें कि अंग्रेजो द्वारा लादी हुयी गाउन (वह वेषभूषा जो कि इस
समरोह में शोभा यात्रा के लोग धारण करते हैं।) को भी हम तब तक नहीं हटा सके जब तक की
पूर्व राष्ट्रपति प्रो. कलाम ने इसकी शुरुआत नहीं की । और उसके बाद मानों हर तरफ से
अंगेजियत के इस चिन्ह को उखाड़ फेंकने की होड़ सी मच गयी । वैसे मैं अपनी जानकारी बढ़ाने
के लिये मैं यह जरूर जानना चाहूँगा कि इस अवसर पर शोभा यात्रा क्यों निकाली जाती है
और इसकी शुरूआत कैसे हुयी ? गाउन आदि का क्या महत्व है ? अगर आप में से कोई बता सके तो उसका आभारी रहूँगा ।
अब आज के दीक्षान्त समारोह पर आते हैं ।
समारोह विश्वविद्यालय के सर्वेसर्वा कुलाधिपति महोदय
की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । जिसमें की ख्यातिलब्ध न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा ने मुख्य अथिति के रूप में शिरकत की । हाल ही में
दिल्ली बलात्कार कांड (16 दिसम्बर, 2012) के बाद कानून में संशोधन के
लिये बनी कमेटी के अध्यक्ष की मौजूदगी से, बिना शक विश्वविद्यालय आह्र्लादित
दिखा । मैं यह कहने से बच नहीं पा रहा हूँ कि स्वयं वर्मा साहब भी इस घटना को अपने
जीवन की एक महत्व पूर्ण घटना मानतें हैं । उनके दीक्षान्त
भाषण में भी इस घटना से जुड़े अनुभवों की भरमार रही ।
इस समारोह के सम्बन्ध में विगत कुछ वर्षों में एक परिवर्तन
जो देखने को मिला वह है कि विश्वविद्यलय में अब यह समारोह पहले के मुकाबले कुछ संकुचित
स्तर पर मनाया जाता है । संकुचन के कारण आर्थिक हों या सुरक्षा से जुड़े हो सकते हैं
। पक्के तौर पर कह नहीं सकता । पर हाँ इतना जरूर है कि प्रबन्धन की दृष्टि से यह ज्यादा
सुगम हुया है । सैकड़ों की तादात में पी.एच.ड़ी., परास्नातक, स्नातक आदि के अभ्यर्थियों को दीक्षा एवं उपाधि के लिये
स्वीकार करने के ’आदेशों’ और ’उपदेशों’ बाद दीक्षान्त भाषण हुया ।
जस्टिस वर्मा के इस भाषण को युवाओं पर उनके भरोसे की
अभिव्यक्ति के रूप में देखता हूँ । उनका यह भरोसा हाल ही में प्राप्त उनके अनुभवों
पर आधिरित था । कुछ लोगों के लिये यह एक आंखे खोलने वाला तथ्य हो सकता है, क्योंकि आम तौर पर भारत में युवाओं को कम तरजीह दी जाती है । उन्हे नौसिखिया, कम जानकारी वाला, उदंड आदि जुमलों से नवाज़ा जाता रहा
है । पर बकौल जस्टिस वर्मा उनके लिये 30 दिन के रिकार्ड समय में कानून संशोधन की रिपोर्ट
तैयार करना संभव नहीं होता अगर उन सैकड़ों लड़के - लड़कियों ने उन्हे अपनी बिन मांगी सहायता
न उपलब्ध कराई होती । वे सभी अपने संसाधनों का प्रयोग कर इस कमेटी की मदद में अनवरत
लगे रहे ।
यह एक ऐसा समूह था जिसमें कोई नेता नहीं था । जिसे किसी
नेता ने बुलाया नहीं था । शायद, कोई अपने बगल में खड़े शख्स को जानता
नहीं था पर फिर भी गजब की तारतम्यता थी उनके बीच । उद्देश्यों की तारतम्यता और देश
के लिये विषम मौके पर कुछ कर दिखाने की तारतम्यता । इसी कारण, वर्मा साहब देश की बेहतरी के प्रति आश्वस्त दिखे । क्योंकि अब कमान इन्ही युवाओं
के हाथों में आयेगी ।
आपके भाषण में दिल्ली के आन्दोलन पर भी अपनी राय रखी
गयी । न्यायमूर्ति के शब्दों की आत्मा के साथ अन्याय न हो जाये इसलिये अंग्रजी में
ही कुछ सूत्र वाक्य आपसे साझा करना बेहतर होगा ।
1. Youth coming forward is
an encouraging sign.
2. The pressure of civil
society on the government machinery is expedient from the December 16 incident and the incidents following it.
3. Anger was channalised
to revitalise the democratic institutions and it was different from the one
seen in earleir ones. (Possibly an oblique reference to the Anna / Kejriwal
show where the demand for a particular law making was not taken that seriously
by the governement and eventually did not yield the desired results)
4. Civil Society palys a
role to eradicate gender bias.
इन सूत्र वक्यों के साथ - साथ वे नव दीक्षीत छात्र -
छात्राओं को हिदायत भी दे गये कि आज जो शपथ उन लोगों ने ली हैं वो मात्र एक रस्म अदायगी
न बन के रह जाये ।
इसके बाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति महाहिम श्री बी.
एल. जोशी जी का अध्यक्षीय उद्धबोधन हुया । आपने जस्टिस वर्मा की बातों को उद्वेलित
करने वाला बताया । कार्यक्रम के दौरान छात्र - छात्राओं को स्वर्ण पदक प्रदान करते
समय उन्होनें देश के युवाओं से जो बातें की उसे साझा करते हुये उन्होनें कहा कि मेडल
प्राप्त करने वाला प्रत्येक छात्र उन्हे भविष्य के प्रति आशावान दिखा । उनका छात्रों
के लिये जो सन्देश रहा उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की अलख जगाये रखना भी शामिल था ।
प्रधानमन्त्री और राष्ट्र्पति ने जो बात हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी
सत्र में कहीं थी, उसकी टीस, महामहिम के भाषण में यहाँ भी झलकी । यह कि विश्व के नामचीन 200 विश्वविद्यालयों
में भारत का एक भी नहीं है । शोध का स्तर गिरा है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर टक्कर नहीं
ले सकता है । यह बात आज इस कार्यक्रम में स्वीकृत की गयीं 387 पी.एच.डी. डिग्रियों
पर भी लागू होती है । पर सब कुछ के बाद वे भी भविष्य के प्रति आशावान दिखे कि शायद
आगामी किसी दीक्षान्त समारोह में ऐसा सम्भव हो, जो की वस्तुत: उनके इस विश्वविद्यालय
के उन तीन दीक्षान्त समारोहों में सम्भव नहीं हो सका जिसमें उन्होनें सिरकत की ।
इस कार्यक्रम के प्रारम्भ में विश्वविद्यालय का कुलगीत
गाया गया जिसके बोल कुछ इस प्रकार से हैं :
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल
विश्वविद्यालय का हरितांचल
जय - जय - जय पूरब की आत्मा
जय - जय - जय पूर्वांचल ॥ ....
*********
Posted by Sachin Agarwal at 23:18 0 comments
स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !
स्पेशल 26 की फर्ज़ी धर पकड़ !
बजट 2013 से लगायी जा रही बहुत सी आशाओं में से एक यह भी है कि सरकार काले धन को बाहर लाने के लिये किसी क्षमादान योजना की घोषणा कर सकती है । ऐसी एक योजना 1997 में वी.डी.आई.एस. (Voluntary Disclosure of Income Scheme - 1997) के नाम से आयी थी । इस बात को अगर फिल्म स्पेशल - 26 की रिलीज की टाइमिंग के साथ जोड़कर देखा जाये तो इसकी टाइमिंग बहुत ही सटीक है ।
फिल्म की टाईमलाइन 1987 की है । समाजिक परिपेक्ष में कहें तो काले धन के आगे सरकारें जितनी बेबस 1987 में थी उतनी ही 1997 में और उतनी ही 2013 में । अगर कहूँ कि सरकारों की बेबसता इतनी बढ़ती नजर आती है कि वे इसके सामने घुटने टेकने में ही समझदारी मानती हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात को फिल्म एक रोचक अन्दाज में प्रस्तुत करती है । काला धन आशातीत रफतार से बढ़ा वही उसकी निगरानी करने वाली सी.बी.आई. (CBI) नामक एक संस्था की असलियत उसके अधिकारी के रूप में मनोज बाजपेयी के किरदार वसीम खान खोलते दिखे । वसीम खान अपनी तन्खवाह में इजाफे और प्रमोशन के लिये अपने उच्च अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते दिखतें हैं और ऐसा न होने पर रिश्वत लेना शुरू करने की धमकी देते हैं । किसी प्रकार उच्च अधिकारी उनको टालता है । और फिर वही काम । जबकि नकली सी.बी.आई. से मिलकर दिल्ली का इन्सपेक्टर और शान्ती जी ’असली काम’ कर गये जबकि बाकि तो अपनी नौकरी .. ...
तो इस प्रकार की समाजिक सेटिंग में अगर कोई फर्जी सी.बी.आई. अधिकारी बन कर किसी भ्रष्ट राजनेता या व्यापारी को लूट ले तो उन्हे समाजवाद का पहरुआ कहना भी गलत नहीं होगा । जहाँ फिल्म ’पान सिंह तोमर’ में फर्जी पुलिस बनकर अपहरण किया जाना दिखाया गया, वहीं स्पेशल 26 कुछ आगे बढ़ते हुये फर्जी इनकम टैक्स और सी.बी.आई. की रेड (छापा) दिखाकर अकूत संपदा की लूट दिखाने में कामयाब रही । इस फिल्म से देश के युवाओं को सन्देश मिलाता है कि ज्यादा पैसा कमाने के लिये ’डान’ बनकर खून- खराबा करने की जरूरत नहीं हैं । वरन बकौल मुख्य किरदार अजय बने अक्षय खन्ना, पैसा दिमाग से कमाया जा सकता है ।
इस फिल्म के कुछ दृश्यों में लूय्टयन की दिल्ली, खासकर सफेद पुति कनाट प्लेस, उसकी खाली - खाली सड़कों और उन पर दौड़ती इक्का - दुक्का मारुती - 800 कारें भी इस अहसास को गहराती है कि अब भारत तरक्की कर चुका है । आज सड़कों पर हमर, मर्सडीज और फोक्स वैगन की भरमार के साथ ही पार्किंग को रत्ती भर भी जगह नहीं मिलेगी ।
फिल्म की टाइमलाइन के अनुसार कुछ बातें जो खटकी वो हैं कि दिल्ली के आटो में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटील की किसी फिल्म का एक पोस्टर चिपका था वो प्लास्टिक (फैल्क्स) पर छपा था । कलकत्ता से एक दृश्य में सी.पी.ई. - एम की झण्डियाँ भी प्लास्टिक की दिखीं । उस समय तक फैल्क्स एवं प्लास्टिक की झडियों का चलन नहीं आया था । दिल्ली से चण्डीगढ़ वाली ट्रेन का ईन्जन (प्रबल) भी 1987 बाद ही सेवा में लिया गया था । बम्बई के ज्वेलरी शोरूम में सी.सी.टी.वी. कैमरे का प्रयोग दिखायी गया है जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 1987 में इसका प्रयोग होना शुरू हो गया था कि नहीं । पर यह मेरे सन्देह के घेरे में है ।
कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा दर्जन भर जबरदस्ती ठूंसे गये गानों के युग से बाहर आ चुका है । स्पेशल 26 भी एक थीम में चली जहाँ एक गाना फिल्म के लिये वाजिब होता है । इसके प्रोमों में दिखाया जाना वाला गाना (धर पकड़) कास्टिंग के समय प्रयोग किया गया है । काजल अग्रवाल हिन्दी फिल्मों के लिये लम्बी रेस की घोड़ी साबित हो सकती हैं पर उन्हे अपने बोलने के तमिल अन्दाज को बदलना चाहिये ।
वसीम खान को फिल्म में परिचित कराने के लिये, गुप्ता नामक किसी किरदार को पकड़ने के लिये एक उबाऊ भागा - दौड़ी का सीन जबरदस्ती डाला गया सा लगता है । इसकी कोई जरूरत कथानक के साथ मेल खाते हुये नहीं दिखी । दर्शक बिना इसके भी वसीम खान को असली सी.बी.आई. अफसर मान लेते । मेरे विचार में फिल्म ज्यादा कम्पलीट सी दिखती अगर राजनेता और व्यापारी के साथ - साथ किसी सरकारी अफसर के घर भी रेड डालते दिखाया जाता ।
असली सी.बी.आई. अफसर वसीम को जब अहसास होता है कि खुद उसे और उसकी पूरी टीम को ही स्पेशल 26 की तरह इस्तेमाल किया जा चुका है और वे फर्जी सी.बी.आई के हाथों काले धन की चोरी को पकड़ पाने में असफल रहे तो उनका चुल्लू भर पानी (डूबने के लिये) मंगाना भी छू गया । पर जल्द ही असली और फर्जी सी.बी.आई. की और मुठभेड़ों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि फिल्म इस नोट पर खत्म होती है कि इसका सीक्वेल भी आ सकता है ।
बजट 2013 से लगायी जा रही बहुत सी आशाओं में से एक यह भी है कि सरकार काले धन को बाहर लाने के लिये किसी क्षमादान योजना की घोषणा कर सकती है । ऐसी एक योजना 1997 में वी.डी.आई.एस. (Voluntary Disclosure of Income Scheme - 1997) के नाम से आयी थी । इस बात को अगर फिल्म स्पेशल - 26 की रिलीज की टाइमिंग के साथ जोड़कर देखा जाये तो इसकी टाइमिंग बहुत ही सटीक है ।
फिल्म की टाईमलाइन 1987 की है । समाजिक परिपेक्ष में कहें तो काले धन के आगे सरकारें जितनी बेबस 1987 में थी उतनी ही 1997 में और उतनी ही 2013 में । अगर कहूँ कि सरकारों की बेबसता इतनी बढ़ती नजर आती है कि वे इसके सामने घुटने टेकने में ही समझदारी मानती हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात को फिल्म एक रोचक अन्दाज में प्रस्तुत करती है । काला धन आशातीत रफतार से बढ़ा वही उसकी निगरानी करने वाली सी.बी.आई. (CBI) नामक एक संस्था की असलियत उसके अधिकारी के रूप में मनोज बाजपेयी के किरदार वसीम खान खोलते दिखे । वसीम खान अपनी तन्खवाह में इजाफे और प्रमोशन के लिये अपने उच्च अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते दिखतें हैं और ऐसा न होने पर रिश्वत लेना शुरू करने की धमकी देते हैं । किसी प्रकार उच्च अधिकारी उनको टालता है । और फिर वही काम । जबकि नकली सी.बी.आई. से मिलकर दिल्ली का इन्सपेक्टर और शान्ती जी ’असली काम’ कर गये जबकि बाकि तो अपनी नौकरी .. ...
तो इस प्रकार की समाजिक सेटिंग में अगर कोई फर्जी सी.बी.आई. अधिकारी बन कर किसी भ्रष्ट राजनेता या व्यापारी को लूट ले तो उन्हे समाजवाद का पहरुआ कहना भी गलत नहीं होगा । जहाँ फिल्म ’पान सिंह तोमर’ में फर्जी पुलिस बनकर अपहरण किया जाना दिखाया गया, वहीं स्पेशल 26 कुछ आगे बढ़ते हुये फर्जी इनकम टैक्स और सी.बी.आई. की रेड (छापा) दिखाकर अकूत संपदा की लूट दिखाने में कामयाब रही । इस फिल्म से देश के युवाओं को सन्देश मिलाता है कि ज्यादा पैसा कमाने के लिये ’डान’ बनकर खून- खराबा करने की जरूरत नहीं हैं । वरन बकौल मुख्य किरदार अजय बने अक्षय खन्ना, पैसा दिमाग से कमाया जा सकता है ।
इस फिल्म के कुछ दृश्यों में लूय्टयन की दिल्ली, खासकर सफेद पुति कनाट प्लेस, उसकी खाली - खाली सड़कों और उन पर दौड़ती इक्का - दुक्का मारुती - 800 कारें भी इस अहसास को गहराती है कि अब भारत तरक्की कर चुका है । आज सड़कों पर हमर, मर्सडीज और फोक्स वैगन की भरमार के साथ ही पार्किंग को रत्ती भर भी जगह नहीं मिलेगी ।
फिल्म की टाइमलाइन के अनुसार कुछ बातें जो खटकी वो हैं कि दिल्ली के आटो में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटील की किसी फिल्म का एक पोस्टर चिपका था वो प्लास्टिक (फैल्क्स) पर छपा था । कलकत्ता से एक दृश्य में सी.पी.ई. - एम की झण्डियाँ भी प्लास्टिक की दिखीं । उस समय तक फैल्क्स एवं प्लास्टिक की झडियों का चलन नहीं आया था । दिल्ली से चण्डीगढ़ वाली ट्रेन का ईन्जन (प्रबल) भी 1987 बाद ही सेवा में लिया गया था । बम्बई के ज्वेलरी शोरूम में सी.सी.टी.वी. कैमरे का प्रयोग दिखायी गया है जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 1987 में इसका प्रयोग होना शुरू हो गया था कि नहीं । पर यह मेरे सन्देह के घेरे में है ।
कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा दर्जन भर जबरदस्ती ठूंसे गये गानों के युग से बाहर आ चुका है । स्पेशल 26 भी एक थीम में चली जहाँ एक गाना फिल्म के लिये वाजिब होता है । इसके प्रोमों में दिखाया जाना वाला गाना (धर पकड़) कास्टिंग के समय प्रयोग किया गया है । काजल अग्रवाल हिन्दी फिल्मों के लिये लम्बी रेस की घोड़ी साबित हो सकती हैं पर उन्हे अपने बोलने के तमिल अन्दाज को बदलना चाहिये ।
वसीम खान को फिल्म में परिचित कराने के लिये, गुप्ता नामक किसी किरदार को पकड़ने के लिये एक उबाऊ भागा - दौड़ी का सीन जबरदस्ती डाला गया सा लगता है । इसकी कोई जरूरत कथानक के साथ मेल खाते हुये नहीं दिखी । दर्शक बिना इसके भी वसीम खान को असली सी.बी.आई. अफसर मान लेते । मेरे विचार में फिल्म ज्यादा कम्पलीट सी दिखती अगर राजनेता और व्यापारी के साथ - साथ किसी सरकारी अफसर के घर भी रेड डालते दिखाया जाता ।
असली सी.बी.आई. अफसर वसीम को जब अहसास होता है कि खुद उसे और उसकी पूरी टीम को ही स्पेशल 26 की तरह इस्तेमाल किया जा चुका है और वे फर्जी सी.बी.आई के हाथों काले धन की चोरी को पकड़ पाने में असफल रहे तो उनका चुल्लू भर पानी (डूबने के लिये) मंगाना भी छू गया । पर जल्द ही असली और फर्जी सी.बी.आई. की और मुठभेड़ों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि फिल्म इस नोट पर खत्म होती है कि इसका सीक्वेल भी आ सकता है ।
Posted by Sachin Agarwal at 23:07 0 comments
2013-02-01
गणतंत्र के लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !
गणतंत्र के लड्डू से गण - गण को लड्डूओं की ओर !
जौनपुर, 26 जनवरी 2013
विगत 65 वर्षों की तरह ही आज सुबह सवेरे भी " ए मेरे वतन के लोगों .. याद करो कुर्बानी " मार्का गीतों के स्वर कान में पड़े । पर आज के परिवेश में यह एक रस्म अदायगी मात्र ही लगती है ।
महारानी का राज्य समाप्त होने के बाद एवं आजा़द भारत के अपने सविंधान लागू होने के 65 वर्षों बाद भी हम आजादी और उसके मायनो का वही रिकार्ड बजा रहे हैं जो शायद 1950 या 1960 के दशक में बज रहा था । राष्ट्रीय ध्वज को सलामी के समय मेरे मन में जो विचार आये वो काफी अलग थे । यहां आप से साझा कर रहा हूँ । जन - गण के लिये आजादी और स्वराज की जो परिभाषा 1947 में गढ़ी गयी थी वो उसे आज भी रटाई जा रही है । देश की बहुधा आबादी के लिये आजादी की सीमा आज भी, देश की राजनैतिक आजादी पर आकर रुक जाती है । परन्तु, देश पर न्योछावर होने की शिक्षा देते समय यह कभी भी नहीं सोचा जाता कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर आजादी नहीं पहुँचती, तब तक देश की आजादी का जश्न केवल केवल रस्मी तौर पर ही मनाया जाता रहेगा ।
सही मायनों में प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक अजादी के बिना राजनैतिक आजादी का जश्न बेमानी होगा । आजाद भारत को विरासत में मिली सोंच के अनुसार आर्थिक आजादी के लिये आय के परम्परागत साधन के रूप में, सेवा (नौकरी) का बड़ा योगदान रहा है । सेवा अगर सरकारी हो तो उसे सोने पर सुहागा माना जाता रहा है ।
1990 के दशक में शुरू हुये आर्थिक सुधारों से इस ट्रेंड में कुछ बदलाव आया । परन्तु सरकारी मशीनरी की सोंच और गुलाम मानसिकता के चलते व्यक्तिगत सम्पदा अभी भी सरकारों और इनके खेवनहारों की वक्रदृष्टि के निशाने पर हैं ।
इस मानसिकता के कुछ ताजा उदाहरण देखिये ।
पूर्व वित्त मन्त्री एवं मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वोडाफोन पर उसके अधिग्रहण सौदे हुये पूंजीगत लाभ पर पिछली तारीखों से कर लगाने कि जिद पकड़ी तो देश के कारोबारी घरानों का भारत में नियमन के स्थायित्व पर शक का माहौल बना । साथ ही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की कारोबारी मंशा पर सवालिया निशान लगे । पूरे प्रकरण से भारत की सरकारों की व्यवसाय के प्रति नजरिये पर जो माहौल बना उसे, विदेश में रहने वाले एक रिश्तेदार ने इन शब्दों में बयान किया । Indians don't have respect for contractual obligations. यानि भारतियों में अनुबन्धात्मक दायित्वों के प्रति सम्मान नहीं है ।
अब मौजूदा वित्त मंत्री पी. चिदाम्बरम अमीरों पर अधिक कर लगाने की वकालत कर रहे हैं । देश में अजादी के बाद से ही समाजवाद की घुट्टी पिलायी जाती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति काल के नीति नियन्ताओं की उस समय के महाशक्ति रूस से निकटता के कारण हमारी आर्थिक नीतियों में साम्यवाद की झलक भी देखी जा सकती है । साम्यवाद, राज्य को सर्व-शक्तिमान मान कर उसके सभी क्रिया कलापों को सर आखों बिठाने की अवधारण भी है । इस अवधारणा के चलते उद्योगों एवं व्यापार को हमेशा से कड़े सरकारी निगरानी में रखा गया । सरकारी मशीनरी और नियामक प्राधिकारियों पर यह विचार आज भी हावी रहता है कि वह जो करेंगे, सब सही होगा और उद्योगों को छूट देने से देश का अहित ही होगा ।
उदारीकरण की बयार ने थोड़ा सा, परन्तु नकाफी स बदलाव लाया है ।
देश की आज की आवश्यकता में सबसे ऊपर अद्यमिता का स्थान है । इसे आजादी और गणतंत्र की नई परिभाषा में शामिल कर बड़े दायरे में समझने की जरूरत है । मौजूदा दौर में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिये आवश्यक क्षमता एवं शैक्षणिक दक्षता देश की बहुधा आबादी के पास अभी भी नहीं है । तो उद्यमिता एक सशक्त माध्यम हो सकता है ।
परन्तु सरकारी महकमों के कार्य करने के तरीके और उसके पीछे की मानसिकता से उद्यमिता पनपने की उम्मीद तक दम तोड़ती नजर आ रही है ।
जितना खतरा देश को एफ.डी.आई. (FDI) से नहीं है उससे ज्यादा नुकसान व्यवसाय से जुड़े सरकारी प्रवर्तन महकमों के DDI (Domestic Direct Invasion) है । जिसके चलते इन महकमों को व्यापार के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने का मौका मिलता है । यह दखलन्दाजी व्यवसाय की जमीनी और वास्तविक सच्चाईयों को बिल्कुल नजरंदाज़ करती है ।
छोटे से लेकर मंझोले और बड़े व्यवसाय तक - सभी इससे पीड़ित हैं । रतन टाटा सरीखे नामचीन व्यवसायियों ने मंच से कई बार इस बात को उद्धवरित किया कि व्यवसायिक कार्यों के चलते उनसे कई बार रिश्वत की मांग की गयी है । युवा को अगर उद्यमिता की ओर अग्रसर करना हो तो सरकारी व्यवस्था को व्यवसाय एवं व्यवसायी के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है ।
वित्त मंत्री के साथ - साथ देश को भी यह समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति, व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिक प्रयास करता है । इस पर अमीरों पर उनके अधिक टैक्स लगाने के प्रस्ताव से कारोबारी माहौल कमजोर होगा । इन्ही सब खबरों के बीच अर्थव्यवस्था में काले धन को बाहर लाने के लिये सरकार के द्वारा पुन: कोई योजना लाने की तैयारी बजट 2013 में की जा रही है । काले धन को देश की मुख्य धारा में लानें की यह पहली कोशिश नहीं है । अन्तिम बार ऐसी योजना Voluntary Disclosure of Income Scheme, 1997 में आयी थी । इस योजना में जिन लोगों ने काले धन का स्वत: प्रकटीकरण किया उन्हे बाद में आयकर विभाग द्वारा नोटिस एवं स्पष्टीकरण आदि से परेशान किया गया । ऐसी किसी भी योजना पर समय से अपना कर आदि अदा करने वाले करदाता सवाल उठाते हुये आलोचना करते हैं कि ऐसी योजना से कर अपवंचन करने वालों को शय मिलती है और यह कर कानूनों का पालन न करने वलों के लिये एक प्रोत्साहन योजना की तरह काम करती है । आवश्यकता है कि टैक्स अदा करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो, न की मौजूदा समय में टैक्स अदा करने वालों पर जबरिया अधिक टैक्स लादा जाये । ज्यादा टैक्स से छुपाने के लिये किये गये लेन-देनों से ही काले धन का निर्माण होता है । आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की जिसमें जनता को किसी प्रकार के व्यक्तिगत और कारोबारी सौदों को छिपाने की जरूरत न पड़े ।
तभी लड्डू सिर्फ गण-दिवस पर नहीं पर वर्ष के हर दिन और गण-गण को मिल सकेंगे । मेरे विचार में यह आज के भारत के जन-गण के मन की आवाज है । शायद आज से पचास साल बाद गाने के बोल कुछ इस प्रकार से हों :
ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो आर्थिक आजादी के लिये शहीद हुये हैं
उनकी याद करो कुर्बानी !!
****
गुस्ताखी माफ़ !
(मौजूदा दौर में एक हास्यास्पद बात यह दिखती है की कई बार जो लोग इस प्रकार के गीतों के रिकार्ड बजाने में बहुत आगे रहते हैं उनकीअपनी जिंदगी इस गीत से दूर - दूर तक कहीं भी सुर - ताल मिलाती नहीं दिखती । और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी न माना जाये ।)
जौनपुर, 26 जनवरी 2013
विगत 65 वर्षों की तरह ही आज सुबह सवेरे भी " ए मेरे वतन के लोगों .. याद करो कुर्बानी " मार्का गीतों के स्वर कान में पड़े । पर आज के परिवेश में यह एक रस्म अदायगी मात्र ही लगती है ।
महारानी का राज्य समाप्त होने के बाद एवं आजा़द भारत के अपने सविंधान लागू होने के 65 वर्षों बाद भी हम आजादी और उसके मायनो का वही रिकार्ड बजा रहे हैं जो शायद 1950 या 1960 के दशक में बज रहा था । राष्ट्रीय ध्वज को सलामी के समय मेरे मन में जो विचार आये वो काफी अलग थे । यहां आप से साझा कर रहा हूँ । जन - गण के लिये आजादी और स्वराज की जो परिभाषा 1947 में गढ़ी गयी थी वो उसे आज भी रटाई जा रही है । देश की बहुधा आबादी के लिये आजादी की सीमा आज भी, देश की राजनैतिक आजादी पर आकर रुक जाती है । परन्तु, देश पर न्योछावर होने की शिक्षा देते समय यह कभी भी नहीं सोचा जाता कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर आजादी नहीं पहुँचती, तब तक देश की आजादी का जश्न केवल केवल रस्मी तौर पर ही मनाया जाता रहेगा ।
सही मायनों में प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक अजादी के बिना राजनैतिक आजादी का जश्न बेमानी होगा । आजाद भारत को विरासत में मिली सोंच के अनुसार आर्थिक आजादी के लिये आय के परम्परागत साधन के रूप में, सेवा (नौकरी) का बड़ा योगदान रहा है । सेवा अगर सरकारी हो तो उसे सोने पर सुहागा माना जाता रहा है ।
1990 के दशक में शुरू हुये आर्थिक सुधारों से इस ट्रेंड में कुछ बदलाव आया । परन्तु सरकारी मशीनरी की सोंच और गुलाम मानसिकता के चलते व्यक्तिगत सम्पदा अभी भी सरकारों और इनके खेवनहारों की वक्रदृष्टि के निशाने पर हैं ।
इस मानसिकता के कुछ ताजा उदाहरण देखिये ।
पूर्व वित्त मन्त्री एवं मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वोडाफोन पर उसके अधिग्रहण सौदे हुये पूंजीगत लाभ पर पिछली तारीखों से कर लगाने कि जिद पकड़ी तो देश के कारोबारी घरानों का भारत में नियमन के स्थायित्व पर शक का माहौल बना । साथ ही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की कारोबारी मंशा पर सवालिया निशान लगे । पूरे प्रकरण से भारत की सरकारों की व्यवसाय के प्रति नजरिये पर जो माहौल बना उसे, विदेश में रहने वाले एक रिश्तेदार ने इन शब्दों में बयान किया । Indians don't have respect for contractual obligations. यानि भारतियों में अनुबन्धात्मक दायित्वों के प्रति सम्मान नहीं है ।
अब मौजूदा वित्त मंत्री पी. चिदाम्बरम अमीरों पर अधिक कर लगाने की वकालत कर रहे हैं । देश में अजादी के बाद से ही समाजवाद की घुट्टी पिलायी जाती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति काल के नीति नियन्ताओं की उस समय के महाशक्ति रूस से निकटता के कारण हमारी आर्थिक नीतियों में साम्यवाद की झलक भी देखी जा सकती है । साम्यवाद, राज्य को सर्व-शक्तिमान मान कर उसके सभी क्रिया कलापों को सर आखों बिठाने की अवधारण भी है । इस अवधारणा के चलते उद्योगों एवं व्यापार को हमेशा से कड़े सरकारी निगरानी में रखा गया । सरकारी मशीनरी और नियामक प्राधिकारियों पर यह विचार आज भी हावी रहता है कि वह जो करेंगे, सब सही होगा और उद्योगों को छूट देने से देश का अहित ही होगा ।
उदारीकरण की बयार ने थोड़ा सा, परन्तु नकाफी स बदलाव लाया है ।
देश की आज की आवश्यकता में सबसे ऊपर अद्यमिता का स्थान है । इसे आजादी और गणतंत्र की नई परिभाषा में शामिल कर बड़े दायरे में समझने की जरूरत है । मौजूदा दौर में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिये आवश्यक क्षमता एवं शैक्षणिक दक्षता देश की बहुधा आबादी के पास अभी भी नहीं है । तो उद्यमिता एक सशक्त माध्यम हो सकता है ।
परन्तु सरकारी महकमों के कार्य करने के तरीके और उसके पीछे की मानसिकता से उद्यमिता पनपने की उम्मीद तक दम तोड़ती नजर आ रही है ।
जितना खतरा देश को एफ.डी.आई. (FDI) से नहीं है उससे ज्यादा नुकसान व्यवसाय से जुड़े सरकारी प्रवर्तन महकमों के DDI (Domestic Direct Invasion) है । जिसके चलते इन महकमों को व्यापार के कामों में अनावश्यक दखलंदाजी करने का मौका मिलता है । यह दखलन्दाजी व्यवसाय की जमीनी और वास्तविक सच्चाईयों को बिल्कुल नजरंदाज़ करती है ।
छोटे से लेकर मंझोले और बड़े व्यवसाय तक - सभी इससे पीड़ित हैं । रतन टाटा सरीखे नामचीन व्यवसायियों ने मंच से कई बार इस बात को उद्धवरित किया कि व्यवसायिक कार्यों के चलते उनसे कई बार रिश्वत की मांग की गयी है । युवा को अगर उद्यमिता की ओर अग्रसर करना हो तो सरकारी व्यवस्था को व्यवसाय एवं व्यवसायी के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है ।
वित्त मंत्री के साथ - साथ देश को भी यह समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति, व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिक प्रयास करता है । इस पर अमीरों पर उनके अधिक टैक्स लगाने के प्रस्ताव से कारोबारी माहौल कमजोर होगा । इन्ही सब खबरों के बीच अर्थव्यवस्था में काले धन को बाहर लाने के लिये सरकार के द्वारा पुन: कोई योजना लाने की तैयारी बजट 2013 में की जा रही है । काले धन को देश की मुख्य धारा में लानें की यह पहली कोशिश नहीं है । अन्तिम बार ऐसी योजना Voluntary Disclosure of Income Scheme, 1997 में आयी थी । इस योजना में जिन लोगों ने काले धन का स्वत: प्रकटीकरण किया उन्हे बाद में आयकर विभाग द्वारा नोटिस एवं स्पष्टीकरण आदि से परेशान किया गया । ऐसी किसी भी योजना पर समय से अपना कर आदि अदा करने वाले करदाता सवाल उठाते हुये आलोचना करते हैं कि ऐसी योजना से कर अपवंचन करने वालों को शय मिलती है और यह कर कानूनों का पालन न करने वलों के लिये एक प्रोत्साहन योजना की तरह काम करती है । आवश्यकता है कि टैक्स अदा करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो, न की मौजूदा समय में टैक्स अदा करने वालों पर जबरिया अधिक टैक्स लादा जाये । ज्यादा टैक्स से छुपाने के लिये किये गये लेन-देनों से ही काले धन का निर्माण होता है । आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की जिसमें जनता को किसी प्रकार के व्यक्तिगत और कारोबारी सौदों को छिपाने की जरूरत न पड़े ।
तभी लड्डू सिर्फ गण-दिवस पर नहीं पर वर्ष के हर दिन और गण-गण को मिल सकेंगे । मेरे विचार में यह आज के भारत के जन-गण के मन की आवाज है । शायद आज से पचास साल बाद गाने के बोल कुछ इस प्रकार से हों :
ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो आर्थिक आजादी के लिये शहीद हुये हैं
उनकी याद करो कुर्बानी !!
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गुस्ताखी माफ़ !
(मौजूदा दौर में एक हास्यास्पद बात यह दिखती है की कई बार जो लोग इस प्रकार के गीतों के रिकार्ड बजाने में बहुत आगे रहते हैं उनकीअपनी जिंदगी इस गीत से दूर - दूर तक कहीं भी सुर - ताल मिलाती नहीं दिखती । और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी न माना जाये ।)
Posted by Sachin Agarwal at 21:55 0 comments
Labels: आजादी, आर्थिक आजादी, लड्डू, लोकतंत्र
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