वर्ष 2011 के अन्तिम सप्ताह में जब मल्टिप्लेक्स में इस फिल्म के इक्का - दुक्का शो ही चल रहे हों और वो भी 20-25 फीसदी दर्शकों के साथ तो कहने की जरूरत नहीं है कि मैं इस फिल्म को देखने वाले दर्शकों के अन्तिम कुछ जत्थों में शामिल था । और शायद ऐसा कुछ नहीं बचा होगा जो अब तक इस फिल्म के बारे न लिखा गया होगा, न कहा गया होगा और पढ़ा - सुना न गया होगा । मीडिया में इस फिल्म को लेकर जो हल्ला और शोर गढा़ गया था वो अबतक पूरी तरह शान्त हो चुका है । शायद अब कोई इस फिल्म की बात भी नहीं कर रहा हो होगा पर फिर भी मेरा मन इसे लिखे बिना नहीं मान रहा है । और यह सोच कर कि हर एक रिव्यू जरूरी होता है, लिख ही डाला ।
"जो तुम आज कर रही हो उसे बगावत कहतें हैं और कुछ सालों बाद लोग इसे आजा़दी कहेगें " मेरी नजर में नायला के किरदार का यह डायलाग पूरी फिल्म का मूल मन्त्र है । 80 के दशक में एक सिल्क सेक्स सेम्बल बन जाती है और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में फिल्म-जगत की हर नायिका सिल्क को गौढ़ करती नजर आती है । विद्या बालान के कम कपड़ो और मादक अदाओं पर दर्शक सीटी तो उस मल्टीप्लेक्स में भी बजा रहे थे जिसमें मैने यह फिल्म देखी पर बहुधा अब यह यह कोई चर्चा का विषय नहीं रहा ।
चमक - दमक वाली दुनिया जिसे आम लोग स्टारडम कहते हैं और तकनीकी जानकार सिल्वर स्क्रीन - के पीछे के सच के तमाम पहलू यदा - कदा सामने आते रहतें हैं । उन्ही में से एक यह भी रहा कि "जिन कानों को तालियों की आवाज सुनने की आदत हो चुकी हो, उन्हे गाली भी न सुनाई दे " तो क्या हाल होगा ? अगर मुझे सही याद है तो फैशन फिल्म में कंगना रानाउत को भी स्टारडम से उतरते इसी प्रकार की हालत में दिखाया गया है । छोटे शहरों से चमक - दमक की ओर, शो-स्टापर बनने की चाहत लिये तो ’फैशन’ फिल्म में प्रियंका चोपड़ा को चन्दीगढ़ से बम्बई तक का सफर तय करते दिखाया गया था । जब सितारा बुलन्द रहा तो दुनिया जूती पर और जब सितारा ढ़ला तो यूँ लगने लगे की सारी दुनिया हमें ही जूती पर बिठाना चाहती है । गलत - सही के इस द्वन्द के बीच घर लौटने की चाहत को न सिल्क रोक पाती है और न बुरे दिनों में फैशन में सुपर माडल बनी प्रियंका । 80 के दशक में जहाँ सिल्क की माँ उसके मुंह पर दरवाजा मारती है तो इक्कीसवीं सदी में राज बब्बर अपनी बेटी (प्रियंका) के बुरे दिनों में साथ खड़े नजर आये थे ।
अपनी इम्पार्टेन्स कम होना इस दुनिया के लोगों को जरा भी बरदाश्त नहीं है । इस दुनिया के लोगों के लिये Love me or hate me, but don't you dare ignore me का कथन सटीक बैठता है । अगर हालात इतने खराब हो तो कि "दुश्मनों को भी" उससे "कोई शिकायत न हो " तो शायद आत्महत्या ही एक मात्र विकल्प बचता है ।
पर सब कुछ के बाद भी सबसे बड़ा सच यह है कि - बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया । सब कुछ पैसे के लिये किया जाता है । जब तक कैश बाक्स में खनक बढ़ रही है तो सब कुछ जायज है । और सबसे ऊपर यह सच कि कैश रजिस्टर कुछ चुनिन्दा लोगों का हक है । चाहे वो फैशन फिल्म में दिखाई गयी कपड़ों की कम्पनी जो माडलिंग के ठेके नयी - नयी लड़कियों को देती थी जिसकी खुद की निगाह अपने मुनाफे पर थी । या डर्टी पिक्चर के कीड़ादास का बाक्स आफिस की नब्ज पर पकड़ ।
मेरी नजर में सोचने वाली बात यह है 80 के दशक की सिल्क, इक्कीसवीं सदी की फैशन फिल्म की नायिका प्रियंका चोपड़ा और हर दिन फिल्म नगरी में स्टूडियोज के बाहर ’25 से 50’ की संख्या में पहुँचती लड़कियों की संख्या यह सिद्ध करती है कि इस नगरी की लोगों को चमक से अपनी ओर खींचने की ताकत में कोई कमी नहीं आयी है । और यह कैसे मान लिया जाये कि यहाँ पहुँचने वाले सभी लोग इसके अच्छे - बुरे किस्सों से अछूते हैं । फिर भी अपने को इस ओर भागने से नहीं रोक पाते । ऐसे में कास्टिंग काउच और इसी प्रकार के अन्य आरोपों की सच्चाई पर चर्चा करना बेमानी है । अर्थशास्त्र का सीधा डिमाण्ड - सप्लाई का मामला है । अगर तू वो न करने के लिये तैयार है तो - कई और लाइन में खड़े हैं । सप्लाई ज्यादा और डिमाण्ड कम । बाकी सब बाजार के हवाले से स्वत: होता है । या कुछ लोग करने की हैसियत में आ जाते हैं । फैशन में कपड़े की कम्पनी का मालिक या दि डर्टी पिक्चर में सुपर स्टार सूर्या ।
नायला के शब्दों में अगर वो सिल्क के बारे में नहीं लिखती तो ज्यादा बुरा होता बनस्पत इसके कि वो सिल्क के बारे में बुरी बातें लिख रही थी इस बात को स्थापित करता था कि मीडिया प्रचार क साधन है । नायला का चरित्र कार्पोरेट फिल्म में हाई - सोसाईटी में दखल रखने वाली एक ऐसी ही जर्नालिस्ट के काफी करीब दिखा । और यह तथ्य की मीडिया से रिश्तें बनाना सभी के लिये जरूरी है खुलकर सामने आया। मीडिया के कुछ चुनिन्दा लोगों को हर दुनिया के अन्दरखाने तक पहुचँ होती है जो उन्हे बड़ी खबरें दिलवता है और बेस्ट जर्नलिस्ट का अवार्ड भी ।
क्या हुया जो सिल्क उचाईयों से गिर रही थी - शकीला चढ़ भी तो रही थी ।
2011-12-25
दी डर्टी पिक्चर का एक रिव्यू
Posted by Sachin Agarwal at 04:20 0 comments
पू.वि.वि. से पुलिस वाले चले गये !
पू.वि.वि. से पुलिस वाले चले गये !
(अपने प्रशिक्षण स्थलों से रवाना हुये और प्रदेश को मिले हजारों सिपाही)
शुक्रवार, 23 दिसम्बर 2011
... लगभग एक वर्ष की शिक्षा - दीक्षा के बाद आज हमारे विश्वविद्यालय से तकरीबन 550 प्रशिक्षु पुलिस वाले (सिपाही) चले गये । उनसे बात करके पता चला कि इस दल से सिपाही बने लगभग 400 सिपाहीयों को एक हफ्ते की छुट्टी के बाद जौनपुर के थानों में ही तैनाती मिल गयी है । बाकी सिपाही सूबे के अन्य जिलों में तैनाती के लिये कूच करेगें ।
आपकी यादों को ताजा करने के लिये बताते चलें कि यह वही पुलिस वाले हैं जिन्होंने मुलायम सिंह सरकार के जमाने में अपनी लिखित और शारीरिक परीक्षा पास की थी । फिर मायावती सरकार ने आते ही इस परीक्षा में बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगाते हुये कई जांचे बैठाई । फिर मुकदमे लड़ते हुये जब अन्तत: सफल अभ्यर्थी अपनी बात मनवाने में सफल हुये तो सरकार को इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी पड़ी ।
इतनी बड़ी संख्या में सिपाहियों को ट्रेन करने के लिये मुरादाबाद और सीतापुर के पुलिस ट्रेनिंग कालेज नाकाफी साबित होने लगें तो वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में कई स्थानों पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी । जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय में भी लगभग 550 रंगरूट प्रशिक्षण के लिये जनवरी 2011 में आये थे ।
जब मुझे इसका पता चला था की हमारे विश्वविद्यालय में पुलिस वालों के ट्रेनिंग होगी तो मन में अच्छे भाव नहीं आये । क्योंकि, पुलिस वालों की जो सार्वजनिक छवि है वो आखों के सामने आ गयी । जब एक - एक पुलिस वाले की वीर गाथाएं ही मानस पटल पर उभर रही थी तब मन यह सोंच करके ही उद्वेलित हो गया कि जहाँ एक साथ 550 पुलिस वाले होंगे तो क्या हाल होगा । मन मसोस कर रह गया कि अब एक साल तक वि.वि. के वातावरण का बंटाधार होना निश्चित था । रोज नये किस्से सामने आने की आशंका से चिंतित हो उठा । लूट, अवैध वसूली, हफ्ता वसूली और छेड़-छाड़ आदि की घटनाओं में इजाफा होना मानों तय सा लग रहा था ।
पर इनकी ट्रेनिंग का समय जब पूरा हुआ तो लग रहा है कि सारी की सारी आशंकाएं निराधार साबित हुयी । एक भी घटना नहीं हुयी । अलबत्ता यह समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला । कब कौन सी ट्रेनिंग हुई पता ही नहीं चला । वि.वि. के किसी काम में व्यवधान पड़ा हो, मुझे याद नहीं । किसी छात्र - छात्रा ने इनके होने से किसी प्रकार की समस्या जाहिर कि हो, ऐसा कभी नहीं हुआ । इस दौरान आस - पास के दुकानदार, चाय वाले, ढ़ाबे वाले आदि सब इनके अनुशासन के कायल हो चले हैं । दस मिनट - मतलब दस मिनट और वापस फील्ड में हाजिर होना है । नहीं तो ट्रेनर की लताड़ और दण्ड भी ।
कभी - कभार, सुबह - सवेरे की सैर के दौरान इन रंगरूटों से भेंट हो जाती तो वे वि.वि. के प्रति जिम्मेदार व्यवहार करते नजर आये । वि.वि. के प्रति इनका एक बड़ा योगदान यह है कि वि.वि. एक बड़ा मैदान जो उजाड़ खण्ड पड़ा था उसे समतल कर इस पर ट्रेनिंग करायी गयी । अभी हाल में वि.वि. के शिक्षकों ने एक क्रिकेट मैच भी इसी मैदान पर खेला ।
पर अब रूखसती का समय है और फिर तैनाती !
अब यह सभी रंगरूट नहीं, वरन उत्तर प्रदेश पुलिस के सिपाही बन चुके हैं । जिन पर प्रदेश की जनता की जान - माल की रक्षा का भार है । देखना यह है कि क्या अपने आगामी जीवन में जब यह लोग सिस्टम का हिस्सा होगें तो क्या इनकी सहजता और सहदृयता ऐसे ही बनी रहेगी । क्या यह सभी ऐसे ही ईमानदार बने रहेंगे और तारीफे़ पाने लायक काम करते रहेगें ।
यकीन तो नहीं है पर फिर भी दिल खुशफहमी पाले ले रहा है ।
Posted by Sachin Agarwal at 00:32 0 comments
2011-12-05
छोटे राज्यों में औद्योगिक विकास का सच
उत्तरान्चल के उद्यमियों की जुबानी सामने आता छोटे राज्य में विकास का एक पहलु और साथ ही छोटे राज्यों से बेहतर विकास हासिल करने की अवधारणा को खारिज करता एक लेख:
देश में आज ऐसा राजनैतिक महौल है जिसमें हर तरफ से छोटे राज्यों की वकालत में आवाजें ऊठ रही है । क्या विदर्भ, क्या हरित प्रदेश, क्या पूर्वांचल और बुन्देलखण्ड । एक और जमीनी सच्चाई यह भी है कि सोन और बेतवा के आस-पास के निवासी भी अपने लिये एक अलग राज्य की आस लगा बैठे हैं । भाषाई, ईलाकाई और सभ्यता की भिन्नता के आधार पर छोटे राज्यों की यह वकालत मुझे बरबस ही इतिहास की किताबों में पढ़ी हुई आजादी मिलने के आसपास के दिनों की याद दिला देती है । यह कि किस तरह से सरदार पटेल ने उस समय बहुधा व्याप्त रजवाड़ों एवं इलाकाई सरदारों से निजात दिलाकर आजाद भारत के संघीय ढ़ाँचे को एक साकार रूप देनें में अपनी जान लगाई । जिस कारण वे लौह पुरूष भी कहलाये ।
मेरे मित्र और तर्कशास्त्री शेषनाथ सिंह मेरी इस आशंका को सिरे से खारिज करते हैं और उस समय के सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश को आज से बहुत भिन्न होने का तर्क देतें हैं । उनकी निगाह में मेरी आशंका निराधार है कि भारत एक बार फिर से रजवाड़ों और कबीलाई सरदारों की सत्ता की ओर बढ़ रहा है । यहाँ पर मेरे पूर्व सहकर्मी ड़ा शुभोजीत बनर्जी के कथन का उल्लेख करना चाहुँगा जिन्होने मेरे साथ की गयी अपनी अनगिनत यात्राओं के दौरान मुझे बहुत सी गूढ़ ज्ञान की बातें बतायी । जिनमें से एक यह भी रही कि सामाजिक और परिवेश की दष्टि से " हम कभी मध्य कालीन युग से बाहर आये ही नहीं और मार्डन काल में होने की बात सिर्फ एक अवधारणा भर है । " उनका यह कथन शायद मौजूदा समाज में व्याप्त कुव्यवस्था और कुरीतीयों पर एक व्यंग या काटाक्ष भी हो सकता है पर मैनें इस कथन पर उनका स्पष्टीकरण कभी नहीं माँगा ।
एक ओर राजनेता जन भावनाओं के सागर में समायिक एवं कृत्रिम लहरें एवं हिलोरें उठावाकर राज सत्ता पर काबिज होने की अपनी महत्त्वकांक्षा को जन - आन्दोलन का नाम देतें रहें और दूसरी ओर व्यवस्था के लिये जिम्मेदार आला नौकरशाही छोटे राज्यों से व्यवस्था के सुगन संचालन की दुहाई रूपी तर्क देते रहें, पर जमीनी सच्चाई समाज के अलग - अलग वर्गों से मालूम कर एक समग्र परीक्षण की आवश्यकता है । छोटे राज्यों के पक्ष में दिये जाने वाले अनेकों तर्कों में से एक यह भी है कि व्यवस्थात्मक सुगमता होने के कारण विकास और खासकर औद्योगिक विकास का पहिया जोर से घूमेगा और जैसा कि भारत में चिर काल से होता आया है - राजसत्ता इससे जन - साधारण के भला होने का तर्क देती है । जिस देश में महात्मा गाँधी की लेखनी ने समाज के अन्तिम व्यक्ति के विकास को सर्वोपरि माना हो उस देश में अपने को राष्ट्रपिता का असली राजनैतिक वंशज बताने वाले हर राजनेता का यह परम धर्म है कि वह भी ऐसे ही तर्क दे । क्योकिं ऐसे तर्क भारत में प्रमाणीक रूप से ’पालिटिकली सेलेबल थाट’ सिद्ध हुये हैं ।
इस पृष्ठभूमि में 2006 में की गयी हिमाचल यात्रा का एक अनुभव बताना स्थानोचित होगा । 1966 में पंजाब से अलग होकर बना हिमाचल राज्य वर्ष 2006 तक अपने लिये सिर्फ एक ही राज्य विश्वविद्यालय से काम चला रहा था । 1966 से 2006 तक के चालीस वर्षों के सफर में शिक्षा के क्षेत्र में यह काफी उल्लेखनीय प्रगति कही जा सकती है । और दूसरा अनुभव हाल ही में की गयी उत्तराखण्ड यात्रा के दौरान हुया । उत्तराखण्ड जो अपने गठन के समय उत्तरान्चल था - का मौजूदा नाम मुझे पसन्द नहीं आया । मुख्यता इसलिये, क्योकिं इसमें पूरे उत्तारंचल गठन के आन्दोलन की आत्मा का नाश सा होता दिखता है । खंड और आंचल शब्दों के लिये मन में जो भाव आतें है वो भी एक से नहीं हैं । आंचल के लिये आन्दोलन हुये, जाने गयी पर जन-अपेक्षाओं की आत्मा जीवान्त हो उठी थी । राज्य विभाजन के समय भी, उस समय के दर्द को कम करने के लिये तर्क गढ़ा गया कि विभाजन से टुकड़े नहीं होंगे वरन एक आंचल का अधिकाधिक विकास होगा ।
उत्तर प्रदेश (यू.पी.) पर इस इलाके विकास के लियी ध्यान न देने का आरोप था और सिवाय इसके कि राज्यपाल का ग्रीष्म कालीन एक आवास देहरादून में भी था, यू.पी. की प्रशासनिक मशीनरी इस आंचल की ओर ध्यान नहीं देती थी । या फिर जब आला नौकरशाही को अपने बीबी बच्चों के गर्मियों की छुट्टीयाँ बिताने की याद आती थी तो उत्तरांचल में बने सरकारी गेस्ट हाउस और सरकिट हाउस से लेकर सितारा दर्जों के होटलों तक की पूछ होती थी । विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश के सरकारी हाकिम अपने उत्तरांचली समकक्षों को व्यक्तिगत स्तर पर विभाजन के विषय में वही दुहायी देते देखे गये जैसी फिल्म सरफरोश में शायर बने नसीरुद्दिन शाह ने दी थी, कि दिल्ली में बैठे हुये कुछ सरफिरों ने देश के नक्शे पर एक लकीर (सर रेडक्लिफ लाइन) खींच दी और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान असतित्व में आ गये । पर आवाम के दिलों में लकीर खींचना मुश्किल है और इसलिये वो शायर दोनों मुल्कों को एक ही मानता था । ऐसा करने की उसकी निजि गरज क्या थी, ये फिल्म देखने वाले हर व्यक्ति को मालूम है । ठीक वैसे ही उत्तर प्रदेश के सरकारी हाकिम उत्तरांचली हाकिमों से अपनत्व का सम्बंध जोड़ते फिरते थे । गरज क्या थी, यह भी सबको मालूम है । उत्तराखंड नाम मुझे इसलिये भी पसन्द नहीं आया क्योंकि खण्ड शब्द कहीं मन के भीतर खाने में कचोटता है और समग्र भारत की अवधारणा पर चोट करता है ।
वर्ष 2011 समापन की बेला में उत्तरांचल यात्रा तक यह उत्तराखंड हो चुका है । और अब मुझे पृथक राज्य की विकासवादी होने की अवधारण को परखने की ज़मीन तैयार दिखी । इसके पूर्व की यात्रा उत्तरान्चल स्थापना के शुरुआती दिनों में वर्ष 2001-2002 में की थी । सामान्य जन जीवन से शुरू करता हूँ । जन-मानस को कोई अमूलचूल लाभ हुआ हो कह नहीं सकता पर नेताओं और अफसरों को हुआ लाभ शुद्ध रूप से दिख रहा था । नेताओं, मन्त्रियों, विधायकों, आदि के लिये कुछ और पद अब मौजूद थे और उनपर काबिज होने की ईच्छा रखने वालों की सलाम-बन्दगी की दौड़ अब लखनऊ के रास्ते नहीं, देहरादून के रास्ते दिल्ली तक जाती थी । 2001 एवं 2002 में भी मेरा यहाँ आना हुआ था । पर तब और अब के प्रदेश में बहुत कुछ बदला - बदला नजर आया । तब जनता में उत्साह था कि नया - नया राज्य 2000 में बना है और उनकी आखों में विकास के करीब होने के सपने थे । जो शायद अब सच्चाई की धूल में धूमिल पड़ चुके हैं । इस एक दशक में जनता और गांधी का वो आखिरी आदमी इस बात को पूरी तरह समझ कर आत्मसाथ कर चुका था कि उसके हिस्सें में जो आना था वो लम्बी सरकारी जद्दोजहद के बाद मिलने वाली वही विधवा पेन्शन और विकलांग पेन्शन की चेक है जोकि किसी नेता के सार्वजनिक समारोह में दी जाये या दफ्तरों के गलीयारों में - सुविधा शुल्क देना ही पड़ेगा, धक्के खाना ही पड़ेगा ।
विकास के नाम पर सड़कों की हालत उत्तर प्रदेश से कुछ बेहतर दिखी पर इतनी बेहतर भी नहीं कि गुणगान किया जा सके । उदाहरण के तौर पर काशीपुर को मुरादाबाद से जोड़ने वाली सड़क, काशीपुर में उतनी बुरी हालत में नहीं थी जितनी की उत्तर प्रदेश की सीमा में मुरादाबाद की तरफ । पर काशीपुर इण्डस्ट्रीयल एरिया में भी बड़े - बड़े गढ्ढ़े थे । जिनपर पैबन्द (पैच) लगाने का काम चल रहा था । जोकि उत्तर प्रदेश की सीमा में उनसे बड़े गढ्ढ़े होने के बाद भी नहीं चल रहा था । पर विकास की हकीकत यह रही कि जो पैबन्द लगाये जा रहे थे वो अगली पूर्णमासी देख पायेगें, इसमें मुझे शक है ।
मतलब विकास का अपना ढ़र्रा है जोकि अपने हिसाब से ही चलेगा । और क्रमिक विकास का सिद्धान्त कि - विकास एक धीमी प्रकिया है - जीवान्त होता दिखा । ’ट्रिकिल डाउन थ्योरी’ अब उत्तराखण्ड पर भी लागू हो रही थी और समाज का वो अन्तिम आदमी अपने समग्र विकास की बाट जोहता दिखा । आम आदमी के बाद अब एक नजर औधोगिक विकास पर डालते हैं । विभाजन के बाद उत्तरान्चल ने औद्योगिक विकास का परचम निश्चय ही बुलंद किया है । काशीपुर, हरिद्वार, पंतनगर, सेलाक्युई, देहरादून, सितारगंज और कोटद्वार ने देवभूमि उत्तराखण्ड को देश के धार्मिक और आध्यात्मिक नक्शे के अलावा औद्योगिक नक्शे पर भी स्थापित किया है । और हिमाचल प्रदेश के बड्डी से निकटता के कारण एक दूसरे के समर्थन में काम करते हुये देश को कई बेहतरीन कारखाने दिये हैं । जहाँ यह पहलू कुछ सुकून दे सकता है वहीं उद्योगपतियों से बातचीत कुछ अलग ही दास्तां बयान करती है ।
एक मझोली उत्पादन क्षमता वाली पेपर मिल के मालिक को जब मैंने छोटे राज्यों की विकासवादी महानता के गुणगान का रट्टापाठ वाला प्रचलित राष्ट्र गीत सुनाया तो ऐसा लगा मानों उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो । तब उन्होनें अपना नजरिया पेश किया कि उनके हिमाचल प्रदेश के मित्र ने विभाजन पूर्व उनसे कहा था कि जब छोटे राज्य बन जाओगे तब बात करेगें । आज उन्हे अपने हिमाचली मित्र की बातों में नीहित सच का भान हो चला था । उनके शब्दों में "पहले हम भूसे के ढ़ेर में सुई थे अब हम खुद भूसे का ढ़ेर हैं । तब हमें ’कोई’ पूछता नहीं था अब सीधे उँचे - स्तर से हमसे ’अपेक्षा’ की जाती है ।"
यह बड़ी अर्थपूर्ण बातों का दौर था । उनसे वार्ता के इस दौर में सरकारी तंत्र के द्वारा दिया जाने वाला बेहतर शासन और अनुशासन की दलील का एक और कटु - पहलु नजर आया । और तंत्र की जगमाती दुनिया के पीचे का नंगा सच एक बार फिर उकेरा गया । इस उद्योगपति का इशारा व्यापार और अद्योगिक इकाइयों से सरकारी तन्त्र के द्वारा की जाने वाली लूट (वसूली) की ओर था । बड़े राज्यों में जब कई इकाइयाँ होती थी तो सरकारी प्रवर्तन से जुड़ी मशीनरी का ध्यान आदतानुसार बड़ी इकाईयों की ओर ही जाता था । छोटे और मझोले उद्योगों की ओर तंत्र के लोगों का ध्यान कम ही जाता था । मतलब लूट-खसोट की ज्यादा अपेक्षा बड़ी इकाइयों और व्यापारों से होती थी । पर जब राज्य बट गया और अफसरों की फौज घटने के बजाय एक नयी जमात के साथ अपनी संख्या को, चुस्त प्रशासन की दलील के साथ, बढ़ाती हुई सामने आयी तो छोटे और मझोले उद्योग भी तंत्र की निगाहों में आ गये और हाकिमों द्वारा की जाने वाली वसूली की ज़द में स्वत: शामिल कर लिये गये । उदाहरण के तौर पर विकासवादी राजनैतिक पार्टियों की आये दिन होने वाली रैलियों और सभाओं का हवाला देते हुये उन्होनें कहा कि इनके वित्तपोषण के लिये अब ’उँचे स्तरों’ से अपेक्षा की जाती है । विभाजन के पूर्व इतने उपर के राजनैतिक स्तर से कभी छोटे और मंझोले उद्योगों से अपेक्षा नहीं की जाती थी । और यहाँ भी बताते चलें कि विकासवादी छोटे राज्य में सरकारी तंत्र की रोजमर्रा की सुविधा शुल्क की अपेक्षाओं में कोई फर्क नहीं आया हैं । विकास की ट्रिकल डाउन थ्योरी यहाँ पर पूरी तरह काम करती दिखी । बस फर्क इतना था कि विकास नहीं अपेक्षाएं ’ट्रिकल डाऊन’ करती दिख रहीं थी ।
अब छोटे राज्यों की एक और सच्चाई का जिक्र करना चाहूँगा । प्रश्न यह है कि छोटे होने से क्या उत्तराखण्ड ही एक छोटा राज्य बना जिसका कि विकास बहुत ज्यादा होने की अपेक्षा की गयी । क्या विभाजन से उत्तर प्रदेश पहले से छोटे एक राज्य के रूप में सामने नहीं आया ? इस छोटे उत्तर प्रदेश को क्या फायदा हुआ ? इसके विकास की बात क्यों नहीं की जाती है ? विभाजन से छोटे हुए उत्तर प्रदेश को क्या मिला ? क्या इस छोटे उत्तर प्रदेश में गांधी का वो आखिरी आदमी नहीं रहता है ? उसे विकास की जरूरत नहीं है ? या आगे जो नये राज्य उत्तर प्रदेश को विभाजित कर बनाये जायेगें उसके बाद मूल में जो रह जायेगा, उस उत्तर प्रदेश को मूलत: सर्व साधन सम्पन्न मान लिया गया है, जिसे किसी प्रकार के संसाधनों और विकास की जरूरत नहीं है । आखिर ऐसा क्यों ? विकासवादी नदी क्यों एक ही दिशा में बहे और कुछ खेतों को सींचने की जिम्मेदारी अपने ऊपर उठाये हुये बहती रहे । चाहे बाकी खेत सूखे रह जायें । इसकी आवाज कौन सा राजनेता या राजनैतिक दल उठाएगा ?
और जब आवाज उठाएगा तो विकास के नाम पर और विभाजन होगा । और बाँटते चले जाने के कारण एक दिन हम फिर से रजवाड़ो और कस्बाई सरदारों के दौर में नहीं पहुँच जायेगें । रजवाड़े और इलाकाई सरदार आवाम पर जुल्म ढ़ाने के लिये नये - नये कर (टैक्स) लगाकर उसे जालिम कोतवालों और हाकिमों से वसूलवाते थे । छोटे राज्यों के राजनेता और अफसर अपनी राजनैतिक एवं प्रशासनिक हैसियत के अनुसार जनता का और उद्योगों का अवैध दोहन कर रहें हैं । ड़ा बनर्जी का कथन प्रासंगिक लगता है कि हम मध्य काल से कभी बाहर आये ही नहीं ।
जय नव विकासवाद ! जय नव वसूली वाद ! जय मध्यकाल !
हमें नव काल की प्रतीक्षा है । और एक नये अविभाजनवादी (संयुक्त) राजनैतिक सोंच की भी ।
संयुक्त राज्य अमेरीका का उदाहरण :
सामाजिक एवं राजनैतिक ढ़ांचे के आधार पर भारतीय राज व्यवस्था और संयुक्त राज्य अमेरिका में काफी समानताएं हैं । बहु जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा आदि की समानता, व्यक्ति के अधिकारों की समानता और लोकतांत्रिक राज व्यवस्था आदि समानताएं तत्काल ही मेरा ध्यान आकृष्ट करती हैं । सभ्यता, भाषा और विचारों की भिन्नता से अमेरीका भी लबरेज़ है और भारत भी । तब भी पूरे अमेरीका में मात्र 50 राज्य ही हैं । जबकी क्षेत्रफल के लिहाज से वो भारत से लगभग तीन गुना बड़ा है ।
अमेरीका के राज्यों का क्षेत्रफल विस्तार कुछ इतना बड़ा है कि कईयों में तो एक से अधिक टाईम जोन तक हैं । यानि पूरे राज्य में एक ही समय सवेरा और शाम नहीं होती है । बहुत से राज्य और शहर तक अपने लोकल टाइम से चलतें हैं । तो हमारे राजनेताओं के अनुसार तो वहाँ विकास होना तो दूर, लोगों ने विकास का नाम भी नहीं सुना होना चाहिये ।
इसके उलट पूरी दुनिया में नव समाज और उदारवादी पूंजीवाद का स्वत: नियुक्त नायक होने के बाद भी आजतक वहाँ व्यक्तिगत ’फीफडम’ का असतित्व है । मौजूदा भारतीय विचारों के अनुसार तो वहाँ सैकड़ों राज्य होने चाहिये थे । और विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन की शायद अमेरीका को बहुत जरूरत है । पर अमेरिका में विकास के हाल की बानगी किसी को बताने की जरूरत नहीं है । जहाँ अमेरीकी जमींदारों के पास हजारों एकड़ की ’राँच’ (जमीन रूपी सम्पदा) है वहीं उसकी आबादी का एक बड़ा भाग लाइन में लगकर कल्याणकारी राज्य का टिकट वाला खाना खाता है । जो हमारे यहाँ स्कूलों में मंध्यान भोजन (मिड डे मील) के नाम से प्रचलित है वो शायद वहाँ पर आबादी के हर उस व्यक्ति को उपलब्ध है जोकि राज्य पर उसकी जिम्मेदारी डालना चाहे । और राज्य भी इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिये तत्पर रहता है । वो राज्यों के बड़े होने के कारण जनता के लिये पर्याप्त साधनों के आभाव का रोना नहीं रोते ।
इस विचार से विकास के लिये छोटे राज्यों से ज्यादा एक परिपक्व राजनैतिक सोंच की ज्यादा जरूरत है । जिस दिन हम घूसखोरी और कमीशनबाजी से मुक्त होकर सरकारी ठेकों में काम पूरा कराना सीख जायेंगें, राज्य छोटे हो या बड़े - विकास संभव हो जायेगा । सच्चाई तो यह भी लगती है कि छोटे राज्यों की मांग राज नेताओं की एक जमात के द्वारा शायद इसलिये भी की जाती है कि सरकारी धन की सर्वव्यापी लूट की प्रक्रिया जितनी अपने पास हो उतना अच्छा और जितने पास हो उतना अच्छा । कि कौन दूर जाकर खजाना लूटे, क्यों न खजाने को अपने पास बुला लिया जाये ।
छोटे राज्यों की आवश्यकता को खारिज करने में मेरा एक तर्क यह भी है कि एक तरफ जो सरकारी मशीनरी अपने मौजूदा बोझ तले दबती दिखायी पड़ती है और सरकारी कामगारों की फौज के निक्कमेंपन की दास्तानों से टनों कागज़ स्याह हो चुका है, वहीं दूसरी ओर नये राज्यों के गठन के साथ ही सबसे पहले किये जाने वाले कामों में से एक यह भी है कि नये राज्यों के बेहतर प्रबन्धन की जरूरतों का हवाला देते हुये तुरन्त हजारों की संख्या में सरकारी हाकिमों और कारिन्दों की फौज सत्ता की सेवा को जोड़ ली जाती है । और फिर आगामी सरकारें अपने खर्च के बोझ का हवाला देते हुये उन्हे निकालने के प्रयोजन करती दीखती हैं । उत्तर प्रदेश और उत्तरान्चल के कर्मियों के बटवारे का मुद्दा भी आज तक नहीं निस्तारित हुआ है ।
लम्बे समय से चले आ रही राज्य व्यवस्था में काम करते हुये राज्यों ने अपने संसाधनों का विकास और उनके प्रयोग की व्यवस्था भी बना ली होती है । जोकि विभाजन से अनेकों रूप से प्रभावित होती है । उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश से उत्तरान्चल के अलग होने पर बहुत सी पन-बिजली परियोजनायें उत्तराखण्ड के भू-भाग में होने के कारण उधर चलीं गयीं । ऐसा ही हालत में छ्त्तीसगढ़ में बिजली परियोजनाएं होने के कारण मध्य प्रदेश का और झारखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों के होने के कारण बिहार की अर्थव्यवस्था को भी झटका लगता है । इस ठेस की (चाहे जिसे भी लगे) की भरपाई के लिये जनता पर ही तो नये टैक्स और खर्चे लादें जातें हैं या केन्द्रीय मदद की ओर मुँह ताका जाता है । पर समाज का वो आखिरी आदमी (वो चाहे जिधर भी हो) ही पिसता है । पहले कोई विकास के इन्तजार में फिर कोई विकास से जुदा होकर, आभाव में । कुल नतीजा चुनावी अंकगणित में कुछ वोटों के अलावा और कुछ जोड़ता नहीं मालूम पड़ता और उस आखिरी आदमी के लिये सिफर ही दीखता है । पर शासकों का फील गुड पक्का।
उत्तर प्रदेश में मौजूदा प्रस्तावित राज्य विभाजन के प्रयोग में भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस दर्द का भी दबाव है कि वे पूरे प्रदेश के सबसे ज्यादा उपज करने वाले क्षेत्र हैं और सरकारी खजानें में बहुत कुछ उनका ही दिया हुया है । तो खर्च भी उनपर ही सबसे ज्यादा होना चाहिये । जबकि अर्थशास्त्र की किताबों में जो पढ़ा उसके अनुसार कराधान में "नो क्विड् प्रो क्यो " का सिद्धान्त लगता है । सीधे शब्दों में कर दाता राज्य को अपने द्वारा अदा किये गये टैक्स के बदले इस बात के लिये बाध्य नहीं कर सकता है कि राज्य इस टैक्स को उस कर दाता के कहे अनुसार खर्च करे । हाँ सूचना का अधिकार आने से इतना जरूर संभव हुआ की लोग बाग हिसाब किताब की जानकारी अपने हाकिमों से मांगने लगे । पर किस्ज़्ज़्ज़्ज़ि व्यक्ति विशेष
अपने मन-माने ढ़ंग से ख्रर्च करने केलिये
बेनिफिट
जबकि इसके उलट प्रस्तावित पूर्वांचल वह क्षेत्र है जो कि सरकारी खजाने में जमा कम करता है पर खर्च ज्यादा करता है । तो हरित प्रदेश को आपत्ती है कि पूर्वांचल के लोग उनके पैसे पर क्यों मौज करें । अब अगर कल्याणकारी राज्य की शीर्ष सत्ता में बैठे लोग इन विचारों के समर्थन में उतर कर राज्य विभाजन के लिये आगे बढ़तें हैं तो क्या वे हमें रजवाड़ों और कबीलाई विचारधारा के करीब नहीं ले जा रहें हैं । और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते एक दिन कोई सिरफिरा नेता मेरठ राज्य और बनारस राज्य की मांग नहीं उठा देगा ? या यह कि मुज्जफरनगर वाले ज्यादा खातें हैं पर अपना गेहूँ तो कम ही उगाते नहीं - जैसी बातें सामने आ जायेंगी ।
फिर अमेरीका के राष्ट्रपति जब यह कहतें है कि भारत और चीन के लोग ज्यादा खा रहें हैं इसलिये दुनिया भर में खाद्यानों के दाम बढ़ रहें है, तो हमें बहुत बुरा भले ही लगे और इस पर हमारी प्रतिक्रिया बौद्धिक रूप से चाहे जितनी तीक्ष हो, पर अमेरीका के साथ युद्ध में नहीं बदलती । पर जब बात मेरठ राज्य और मुज्जफरनगर राज्य के बीच होगी तो निश्चय ही तलवारें खिचनें में कोई समय नहीं लगेगा । क्योंकि तर्क पर कभी या एक बारगी तो भावनायें भारी पड़ ही जाती हैं ।
मेरी नजर में विषमतायें और विविधतायें एक संघीय राज व्यवस्था को और मजबूत करतीं हैं । बिलकुल वैसे ही जैसे एक संयुक्त परिवार में सम्पन्न भाई अपने से कम साधन - सम्पन्नता वाले भाई को हमेशा मदद के लिये तैयार रहता है पर फिर भी उससे अलग होने की बात नहीं करता था । आज यही विघटनवादी सोंच जो हमारे परिवारों में रसोईघरों की संख्या बढ़ाने में अपना योगदान देती रही अब राज्यों की संख्या बढ़ाती मालूम पड़ रही है । और इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उन्ही राजनेताओं के हाथ में निर्णय की चाभी है जोकि इस विघटनवादी विचारधारा के पोषक हैं । तो वैचारिक धरातल पर भी इसे खारिज करने की या इससे अलग विचारों के प्रसार की संम्भावना समाप्त होती दीखती हैं । राजनैतिक पार्टियों में भी विचारों का निर्माण और उन पर निर्णय पार्टी के व्हिप के आधार पर होने का युग आया तो मौलिक विचारों की मृत्यु और तिलांजली भी पूरी होती है । व्हिप से अलग बोलना मानों बगावत के समान है तो कौन राजनैतिक रणबांकुरा पार्टी लाइन से हटकर बोलकर अपने राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना चाहेगा ।
यदि यह तर्क न हजम होते हों तो पारिवारिक विघटन के बाद सामाजिक विघटन के रास्ते पोषित होती हुयी विघटनवादी राजनैतिक सोंच हमें जिस मुहाने पर ले आयी है, उस परिदृश्य पर एक नजर डालें तो स्याह सच्चाई सामने घूम जायेगी और आने वाले भविष्य की झलक भी स्वत: दिख जायेगी ।
Posted by Sachin Agarwal at 12:44 0 comments