2009-12-25
मुद्दा बंटवारे का !
आन्ध्र प्रदेश में के. चन्द्र शेखर राव ने पृथक तेलंगाना प्रांत कि मांग क्या की, कि पूरे भारत में राजनैतिक भूचाल सा आया हुआ है । प्रथक प्रान्तों कि मांग पूर्व में भी होती रही है पर इस बार मामला जयादा ही गर्म है, क्योंकिं केंद्र सरकार ने मामले के साथ सहानुभूति दिखाई है । परिणाम स्वरूप, पूरे देश में भाषाई आधार पर, सांस्कृतिक आधार पर और लम्बे समय से चले आ रहे क्षेत्रीय जन संघर्षों के आधार पर कई प्रान्तों की मांग जोर पकड़ रही है । हरित प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड, रायलसीमा, विदर्भ आदि राज्यों की मांग से जुड़े कुछ आन्दोलन शायद अब निकट भविष्य में नये कलेवर एवं तेवर के साथ दिखाई पड़ें ।
बंटवारे कि मांग के के साथ जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हेतु विश्विद्यालय के जन संचार विभाग में दिनांक 21 दिसंबर 2009 को ' मुद्दा बंटवारे का ' शीर्षक पर एक खुली बहस का आयोजन किया गया । इस खुली बहस का एक उद्देश्य जन संचार विभाग के छात्रों को टेलीविजन पत्रकारिता से जुड़े कामों की रियल लाइफ ट्रेनिंग देना भी था । विभाग के शिक्षक जावेद के निर्देशन में छात्रों को कैमरा के प्रयोग, साउंड, एंकरिंग, सम्पादन आदि कार्यों का भी वास्तविक प्रशिक्षण दिया गया । इस कार्यक्रम में मुझे भी एक पैनालिस्ट के रुप सहभागिता करने का सुअवसर मिला । इसी कार्यक्रम की एक फोटो होस्ट कर रहा हूँ ।
फोटो में (बाएं से दायें) : अमित सिंह वत्स (भा. जा. पा.), डा पंकज सिंह (कांग्रेस) , ड़ा मानस पाण्डेय (रीडर, व्यावसायिक अर्थशास्त्र विभाग), सचिन अग्रवाल (जनवादी विचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सम्मिलित हए ), ड़ा मनोज मिश्रा (जन संचार विभाग से)
Posted by Sachin Agarwal at 01:55 0 comments
Labels: Events, Students, University, मुद्दा बंटवारे का, संस्मरण
2009-12-21
दान की बछिया के दांत गिनने की कला, उत्कृष्ट तकनीक के रूप में
स्कूल और कालेज की कुछ किताबें बहुत समय से मेरे पास रखी थीं | पर मैंने उन्हें न तो किसी पुरानी किताबों की अदला - बदली करने वाली दुकान पर और न ही किसी कबाड़ी वाले को बेचना उचित समझा | काफी समय से, इनके घर में रखे होने के कारण माँ से बहुत डांट भी पड़ती रही हैं, की घर में रहने की जगह कम पड़ रही हैं और यह की मेरा बिस्तर तक पुरानी किताबों से भर गया था | बहुत सोंच - विचार और दिमागी उठा - पटक के बाद मैंने ये निर्णय लिया की इन्हें किसी पुस्तकालय को दान दे दिया जाए तो कुछ लोगों का भला हो जाएगा |
लखनऊ में अशोक मार्ग पर चन्द्र भानु गुप्त भवन में आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय है | यह यहाँ का एक बड़ा पुस्तकालय है जिसमे किताबों का विशाल संग्रह है | कुछ वर्षों पहले तक मैं इस पुस्तकालय का सदस्य भी था | लगभग 10 वर्षों पूर्व, लखनऊ शहर से जब ब्रिटिश लाइब्रेरी की विदाई हुई तो वो भी अपनी किताबों का जखीरा इसी पुस्तकालय के हवाले कर गए थे | शायद लखनऊ शहर में ये सबसे सुपात्र संस्थान भी होगा |
मैंने भी अपनी पुरानी किताबें इसी पुस्तकालय को दान देने का मन बनाया | बड़े श्रद्धा भाव से किताबों का बंडल बना के और बाकायदा चिठ्ठी टाइप कर मैं पुस्तकालय पहुँच गया | दिन के करीब बारह बजे थे और उनके आगन्तुक रजिस्टर पर बमुश्किल मुठ्ठीभर नाम ही दर्ज थे | खैर, आगन्तुक रजिस्टर में अपनी एंट्री कर मैंने लाइब्रेरीयन से सम्पर्क साधा और अपनी मंशा बतायी | उन्होंने प्रसन्नता जताते ह्युए बाकायदा मेरी चिठ्ठी पर एक कर्मचारी को 'मार्क' कर दिया कि ये पुस्तकें दान में स्वीकार कर ली जाएँ | देख कर कुछ अटपटा लगा ! पर क्या कहता | दिल में जन - सेवा के 'महान' भाव उमड़ - घुमड़ रहे थे | पुस्तकें उस कर्मचारी को रिसीव करा के मैंने लाइब्रेरी का एक नजारा लिया तो पाया कि वह लगभग पूर्णतया: खाली ही पड़ी थी | इक्का - दुक्का लोग भी नहीं दिखे | शायाद लोगों को ज्ञान ज्यादा हो चुका था और अब उन्हें लाइब्रेरी की जरूरत नहीं रही | तुरंत ही, ब्रिटिश लाइब्रेरी के बंदी के समय ब्रिटिश कौंसिल का दिया तर्क याद गया कि वे लाइब्रेरी इसलिए बंद कर रहे थे कि उनके यहाँ पर्याप्त संख्या में लोग नहीं आते थे | मैंने उस कर्मचारी को बताया की मेरे पास और भी किताबें हैं जिसे मैं दान में देना चाहता हूँ पर स्कूटर पर कम जगह होने के कारण उन्हें नहीं ला सका और उन्हें फिर कभी लाउंगा |
कुछ दिनों बाद दुबारा उसी 'महान' कार्य के लिए पुस्तकालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | पर इस बार के अनुभव पिछले बार से ज्यादा स्मरणीय हैं | पहले तो मैंने सीधे उसी कर्मचारी से सम्पर्क साधने की सोंची जिसने पहले मेरी लायी किताबों को रिसीव किया था | पर वह उस दिन नहीं आया था | एक अन्य व्यक्ति को उसकी सीट पर बैठे देख मैंने उसे ही अपने आने का कारण बताया | वह तो कुछ बोला नहीं अलबत्ता एक अन्य महिला बोली की पहले 'आर्डर' करा लाइए | आर्डर भी इस बात का कि दान में किताबें स्वीकार कर ली जाए | आर्डर लाइब्रेरियन करते हैं जो उस समय आफिस में नहीं थे | मुझसे पहली अपेक्षा यही थी कि मैं उस समय आऊं जब लाइब्रेरियन आफिस में हों | खुदा कसम, उन 28 किताबों को पुस्तकालय की छठी मंजिल से नीचे लाकर वापस घर लाने और फिर किसी मुफीद समय दुबारा पुस्तकालय ले जाने के ख्याल से ही मेरी रूह फना हो गयी |
थोड़ी मान - मनव्वल के बाद एक कर्मचारी को शायाद मेरे ऊपर दया आ गयी और वह मेरी चिठ्ठी को किसी को 'दिखा' लाया | उस 'देखने वाले' देवता को तो मैंने नहीं देखा पर मेरा मन उसके प्रति अनन्त श्रद्धा से भर गया की एक बहुत बड़ी तात्कालिक समस्या से बचा लिया | तभी एक महिला कर्मचारी ने टिप्पणी करी की ये किताबें तो पुरानी हैं और अब 'कोर्स' से बाहर हो चुकीं हैं | इस प्रश्न के लिए में बिलकुल भी तैयार नहीं था | पर फिर भी मैंने खुद को संभालते हुए कहा की अधिकतम किताबें अकाउंट्स, कामर्स और इकोनामिक्स की हैं जो की मूल रूप से वैसी ही रहती हैं |
तब तक एक भला माणूस मेरी लायी किताबों को गिनने लगा | उसने घोषणा की, कि एक किताब कम है | मैंने पूरी इमानदारी के साथ दान देने का निर्णय लिया था सो तर्क दे दिया की साहब मैं तो दान दे रहा हूँ | वो भी स्वयम आकार | मैं कम क्यों दूंगा ? खैर, मैंने भी गिना तो वाकई एक किताब कम थी | अब डर गया की कहीं मुझसे दुबारा चिठ्ठी टाइप करवाने को न कह दें | पर रास्ता भी उन लोगों ने खुद ही सुझाया, की जो किताब नहीं हो, लिस्ट में उसके नामे पर क्रास मारकर साइन कर दें |
अंत में मैंने अपनी चिठ्ठी पर किताबें रिसीव करके वाले सज्जन से पुस्तकालय की मोहर लगाने को कहा तो उन्होंने बाहर, इश्यु काउन्टर पर बैठीं एक महिला के पास भेज दिया | उनसे भी एक मोहर लगवाना आसान कैसे होता और क्यों ? पहला जवाब आया की जिसने रिसीव लिया है मोहर भी वही लगाएगा | पर फिर न जाने क्या सोंच कर वो मेरे ऊपर मेहरबान हो गयीं और फाइनली इस सवाल के साथ मोहर लगा ही दी की क्या किताबें रिसीव करने वालों ने मुझे धन्यवाद पत्र नहीं दिया ? मन से आवाज आई की धन्यवाद तो मुझे आप सभी को देना चाहिए की आप लोगों ने मेरी द्वारा दान में दी गयी किताबों को ले लिया और मुझे कृतज्ञ किया |
सारी जद्दोजहद के बाद जब मैं बाहर आ रहा था तो दिल के किसी कोने में एक ख़याल आ ही गया की जब दान की बछिया के दांत गिनने की कला, इतनी उत्कृष्ट तकनीक के रूप में विकसित कर ली गयी हो तो क्या इन किताबों के बदले मैटनी शो के दो टिकट बुरे थे ? और मां की डांट भी बहुत समय पहले पड़ना बंद हो जाती !
Posted by Sachin Agarwal at 23:24 0 comments
Labels: Life, दान की बछिया के दांत
जौनपुर ' राजुओं ' का शहर है !
बुधवार, 16 दिसंबर को विश्वविद्यालय से जौनपुर शहर आते समय मेरे साथ आये ड़ा. उमेश पाठक से मुलाक़ात हुई | वे विश्वविद्यालय के जन संचार विभाग में अतिथि प्रवक्ता के रूप में आये हुए थे और शाम को जन संचार विभाग के प्रध्यापक दिग्विजय सिंह के साथ शहर वापस जाने के लिए किसी वाहन - साधन का इन्तजार कर रहे थे | दिग्विजय ने उमेश को मेरे साथ मोटरसाइकिल पर शहर भेज दिया | रास्ता लंबा था, सो बातों का दौर शुरू हुआ तो मालूम हुया की वे पूर्व में इसी विभाग के छात्र भी रह चके हैं | अलबत्ता काफी कम समय के लिए | उन्होंने अपना कोर्स बीच में ही छोड़ दिया था | कारण, उन्होंने महसूस किया की यहाँ पर प्रगति के साधन नहीं हैं और पिछड़ेपन के कारण उनका समय एवं प्रतिभा का छयन हो रहा था | फिर वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र हुए और वर्तमान में दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कालेज में प्रध्यापक हैं |
बातों की चाशनी कुछ गहरी होती जा रही थी और क्षेत्र के पिछड़ेपन से होते हुए अब बात सामाजिक जीवन पर मुड़ चुकी थी | दोनों ही जाने - अन्जाने बेबाक टिप्पणियाँ कर रहे थे | तभी जौनपुर से सम्बंधित किसी प्रसंग पर उमेश ने जो बोला, वो एक यादगार टिप्पणी बनकर अब मेरे जहन में गहरे तक पैठ बना चुका है | और हमेशा याद रहेगा | वे बोले " ये राजुओं का शहर है " | एक बारगी तो मैं इस दिलचस्प टिप्पणी को समझ ही नहीं पाया की वो क्या कहना चाह रहे हैं | पर जब उन्होंने ' का हो राजू ' पर जोर देकर कहा तो मुझे भी कुछ ' बुझा' गया | दरअसल उन्होंने इस इलाके में बहुतायत से बोले जाने वाले एक पापुलर जुमले को इस अंदाज में पेश किया की वह यादगार बन गया | यह जुमला वास्तव में एक क्षेत्रीय पहचान का बोध कराता है | यहाँ के लोग शायद न माने, पर मुम्बई में यह जुमला उनकी पहचान एक ख़ास क्षेत्र से आने वालों के रूप में कराता है | आज के, क्षेत्रीयता से प्रभावित राजनैतिक वातावरण में इस पहचान के ख़ास मायने भी हो सकते हैं |
खैर, विश्वविद्यालय से शहर तक के रास्ते में उन्होंने मुझे कई भाषाओं में बोलने की अपनी अनूठी कला से वाकिफ़ कराया तो मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका | मैं सबसे ज्यादा उनका शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे मुनव्वर राणा की कविता मां से परिचित कराया |
और इसी प्रकार 'अपनी बातों' के बीच अपनी मंजिल आने पर उमेश ने फिर मिलने के वादे के साथ मुझसे विदा ली और जीवन में एक यादगार प्रसंग जुड़ गया |
बातों की चाशनी कुछ गहरी होती जा रही थी और क्षेत्र के पिछड़ेपन से होते हुए अब बात सामाजिक जीवन पर मुड़ चुकी थी | दोनों ही जाने - अन्जाने बेबाक टिप्पणियाँ कर रहे थे | तभी जौनपुर से सम्बंधित किसी प्रसंग पर उमेश ने जो बोला, वो एक यादगार टिप्पणी बनकर अब मेरे जहन में गहरे तक पैठ बना चुका है | और हमेशा याद रहेगा | वे बोले " ये राजुओं का शहर है " | एक बारगी तो मैं इस दिलचस्प टिप्पणी को समझ ही नहीं पाया की वो क्या कहना चाह रहे हैं | पर जब उन्होंने ' का हो राजू ' पर जोर देकर कहा तो मुझे भी कुछ ' बुझा' गया | दरअसल उन्होंने इस इलाके में बहुतायत से बोले जाने वाले एक पापुलर जुमले को इस अंदाज में पेश किया की वह यादगार बन गया | यह जुमला वास्तव में एक क्षेत्रीय पहचान का बोध कराता है | यहाँ के लोग शायद न माने, पर मुम्बई में यह जुमला उनकी पहचान एक ख़ास क्षेत्र से आने वालों के रूप में कराता है | आज के, क्षेत्रीयता से प्रभावित राजनैतिक वातावरण में इस पहचान के ख़ास मायने भी हो सकते हैं |
खैर, विश्वविद्यालय से शहर तक के रास्ते में उन्होंने मुझे कई भाषाओं में बोलने की अपनी अनूठी कला से वाकिफ़ कराया तो मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका | मैं सबसे ज्यादा उनका शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे मुनव्वर राणा की कविता मां से परिचित कराया |
और इसी प्रकार 'अपनी बातों' के बीच अपनी मंजिल आने पर उमेश ने फिर मिलने के वादे के साथ मुझसे विदा ली और जीवन में एक यादगार प्रसंग जुड़ गया |
Posted by Sachin Agarwal at 14:40 0 comments
Labels: Life, राजुओं का शहर
2009-12-11
Realising the importance of studio apartments
Living single has its challenges in terms of managing time. There are a host of things that one would like to do at the same time. Say, cooking food while watching the news on television. Conventional apartments, like the one made available by my employer have their limits in offering their convenience to 'self-dooers' like me. Studio apartments can be good solution. With lesser walls things can be arranged in the way one wants. Flexibility is the name of the game. One may even sleep in the kitchen or attend guests while cooking or instruct children at the same time. The concept also saves a lot of space in this era of ever squeezing land resource.
Posted by Sachin Agarwal at 21:18 0 comments
Labels: Life, Living single, Studio Apartments
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